श्री संतोष नेमा “संतोष”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – ऊँचे हिमगिरि के शिखर। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 196 ☆
☆ संतोष के दोहे – ऊँचे हिमगिरि के शिखर ☆ श्री संतोष नेमा ☆
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भारत का मोहक मुकुट, है अपना कश्मीर
इस धरती पर स्वर्ग-सी, है जिसकी तस्वीर
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सुंदर छटा लुभावनी, अमरनाथ शिव-धाम
मानस रमता है वहाँ, घाटी ललित ललाम।
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धारा हटते ही हटी,सबके मन की पीर
बनी हुईं कश्मीर पर, टूटी सभी लकीर।
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अभिन्नांग है देश का,जम्मू औ कश्मीर
अलग न कोई कर सके,पैदा हुआ न वीर
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चौतरफा रौनक दिखे,केसर घुली जुबान
सुभग शिकारे तैरते, झीलों की पहचान
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कहता सीना तान कर,मुझसे ऊँचा कौन
सुंदर पेड़ चिनार के,रहते कभी न मौन
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ऊँचे हिमगिरि के शिखर,माँ वैष्णव का धाम
जिनके दर्शन से बनें,सबके बिगड़े काम
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वहाँ तिरंगे का बढ़ा,आज बहुत सम्मान
बदल गई आबोहवा,हुई सुरक्षित आन
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आज गर्व से कह रहा,एक बात “संतोष”
अब अखंड भारत हुआ,बढ़ा एकता कोष
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© संतोष कुमार नेमा “संतोष”
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