डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक सार्थक कहानी – ‘इलाज’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 224 ☆
☆ कहानी – इलाज ☆
डा. प्रकाश शहर के नामचीन चिकित्सक हैं। दिन में एक अस्पताल में बैठते हैं। शाम को अपने क्लिनिक में बैठते हैं। उम्र ज़्यादा नहीं है लेकिन शोहरत खूब है। कहते हैं कुछ लोगों के हाथ में ‘जस’ होता है। कुछ वजह उनके अच्छे स्वभाव की भी है। शायद माँ-बाप ने क्रूरता से पैसा खींचने की कला नहीं सिखायी। इंसान बने रहने की अहमियत सिखायी। इसीलिए उनके क्लिनिक में अमीर गरीब, बली और निर्बल सब बेझिझक चले आते हैं।
डा. प्रकाश ने अपने क्लिनिक में तीस मरीज़ों की सीमा रखी है। उससे ज़्यादा न देखने की कोशिश करते हैं। उनका सोच है कि मरीज़ों की भीड़ लगाने से उनके साथ न्याय नहीं हो पाता। लेकिन सीमा का निर्वाह हमेशा नहीं हो पाता। सीमा तोड़कर आने वाले बहुत होते हैं। पुराने परिचय की दुहाई देने वाले, शहर में अपने महत्त्व के बूते कहीं भी ठँस जाने वाले, और इन सब के ऊपर नेताओं के छुटभैये। घुटनों तक कुर्ता, कान पर चिपका मोबाइल, और साथ में दो चार खुशामदे। डा. प्रकाश ने व्यवस्था के लिए दरवाज़े पर एक सहायक ज़रूर बैठा रखा है लेकिन धमकाते और रोब झाड़ते चमकदार लोगों के सामने तीन हज़ार रुपल्ली पाने वाले सहायक की क्या औकात? वह धमकी सुनते ही घबराकर डाक्टर साहब की तरफ भागता है। डाक्टर साहब इन छोटी बातों को विवाद नहीं बनने देते। ऐसे लोगों को निपटा कर आगे बढ़ जाते हैं।
डाक्टरों का मरीज़ों के घर ‘विज़िट’ करने का रिवाज़ अब कम हो गया है। पहले दवाख़ाने जाने से पहले डाक्टर ज़रूरतमन्द मरीज़ों के घर का चक्कर लगा लेते थे। लेकिन पैसे वाले और सामर्थ्यवान लोग अब भी ज़रूरत पड़ने पर अच्छे डाक्टर को बुला ही लेते हैं। पैसा और सामर्थ्य हो तो दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तुएँ आपको मुहैया हो जाएँगीं। अपने उसूलों के बावजूद डा. प्रकाश भी जब तब शहर के रसूखदार लोगों के द्वारा पकड़ लिये जाते हैं।
एक दिन एक नेतानुमा युवक डाक्टर साहब के क्लिनिक में आकर बैठ गया। हाथ में मोबाइल और मुँह में पान मसाला। नाटकीय विनम्रता से बोला, ‘डाक्टर साहब, आपको मेरे पिताजी को देखने चलना है। एक दिन थोड़ा समय निकालिए।’
डाक्टर साहब बोले, ‘कहाँ हैं पिताजी? उन्हें ले आइए।’
युवक दाँत निकालकर बोला, ‘यही तो समस्या है। वे डेढ़ सौ किलोमीटर दूर गाँव में हैं। यहाँ नहीं आ सकते।’
डाक्टर साहब ने कहा, ‘कहीं जाने का सवाल ही नहीं है। यहाँ तो दम मारने की फुरसत नहीं है। आप व्यवस्था करके यहीं ले आओ। आजकल तो सब इन्तज़ाम हो जाता है।’
युवक हाथ उठाकर बोला, ‘आप चलें तो हम बड़ी झंझट से बच जाएँगे। इतवार को वक्त निकाल लीजिए। मैं गाड़ी लेकर आ जाऊँगा। दस ग्यारह बजे निकलेंगे, शाम तक आराम से वापस आ जाएँगे। आप जो फीस कहेंगे हम नज़र करेंगे।’
फिर डाक्टर साहब के चेहरे की तरफ देख कर बोला, ‘कलेक्टर साहब कह रहे थे कि हम डाक्टर साहब को फोन कर देंगे, लेकिन मैंने सोचा इतने छोटे काम के लिए क्या कलेक्टर साहब से फोन कराएँ। इतनी तो हमारी ही सुन ली जाएगी।’
डाक्टर साहब थोड़ा रुखाई से बोले, ‘किसी और डाक्टर को देख लीजिए। मेरा जाना नहीं हो पाएगा।’
युवक खड़ा हो गया। ठंडी साँस लेकर बोला, ‘और डाक्टर और ही हैं। आपकी बात और है। खैर, आप सोचिएगा। मैं फिर संपर्क करूँगा।’
वह चला गया। पौन घंटे में क्षेत्र के टी.आई. साहब का फोन आ गया। सकुचते हुए बोले, ‘डाक्टर साहब, अनिल राय आपसे मिला होगा।’
डाक्टर साहब ने पूछा, ‘कौन अनिल राय?’
टी.आई. बोले, ‘वही जिसने थोड़ी देर पहले अपने पिताजी को दिखाने के लिए आपको गाँव ले जाने की बात की थी।’
डाक्टर साहब बोले, ‘हाँ, याद आया। कहिए।’
टी.आई. बोले, ‘अगर हो सके तो हो आइए, डाक्टर साहब। संडे को टाइम निकाल लीजिए। आपका भी मन बहल जाएगा। यहाँ तो कहीं न कहीं फँसे ही रहेंगे। जब तक आप नहीं जाएँगे, न आप को चैन लेने देगा न मुझे। बड़ा बवाली आदमी है।’
डाक्टर साहब ने ‘ठीक है, देखते हैं’ कहकर फोन रख दिया।
अगले इतवार को अनिल एक सफारी गाड़ी लेकर एक और युवक के साथ आ गया। हाथ जोड़कर बोला, ‘मेरी प्रार्थना स्वीकार करके आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, डाक्टर साहब। आपका उपकार जिन्दगी भर याद रखूँगा।’
गाड़ी में वे दोनों ड्राइवर के बगल में बैठे और डाक्टर साहब पीछे। पूरे वक्त अनिल राय के कान से मोबाइल चिपका रहा। वह खासा बातूनी था।डाक्टर साहब ने सुना वह किसी से कह रहा था, ‘बड़ी मुश्किल से राजी हुए। पहुँचेंगे तो चार लोगों को समझ में आएगा कि हम बाबूजी का कितना खयाल रखते हैं। इत्ते बड़े डाक्टर का आना मामूली बात थोड़इ है। हमें पता है कि बाबूजी का आखिरी टैम है, कुछ होना नहीं है। लेकिन चार लोग देख तो लें कि हम क्या कर सकते हैं। सब जगह खबर कर देना। हमने भी फोन कर दिया। आकर सब लोग देखें। सब लोग इकट्ठे होंगे तो डाक्टर साहब को भी अच्छा लगेगा।’
शहर से बाहर निकले तो आसपास विशाल वृक्ष और हरयाली देखकर डाक्टर साहब को अच्छा लगा। सोचा, अच्छा हुआ कि कुछ देर को निकल आये। आँखों और मन को थोड़ा आराम मिलेगा। शहर में तो चकरघिन्नी बने रहना है।
लेकिन गाड़ी शहर से बाहर निकलकर हिचकोले खा रही थी। सड़क की हालत खस्ता थी। शहर से बाहर निकलते ही बहु- प्रचारित विकास की कलई खुल गयी थी।
अनिल ने रास्ते में दो-तीन जगह गाड़ी रोककर भक्तिभाव से डाक्टर साहब को चाय-पान पेश किया। रास्ते में जहाँ भी रुका वहाँ उपस्थित लोगों को बताना नहीं भूला कि शहर से बहुत बड़े डाक्टर साहब को ले जा रहा है, पिताजी को दिखाने। ‘अपना करतब्ब करना चाहिए, बाकी भगवान के हाथ में है। अपने करतब्ब में कसर नहीं छोड़ना चाहिए।’
डाक्टर साहब का मोबाइल बराबर बज रहा था। जिस अस्पताल में वे बैठते थे वहाँ से बार-बार मरीज़ों को लेकर उनसे निर्देश लिये जा रहे थे। अच्छा डाक्टर कहीं भी जाए, दुखी और पीड़ित संसार उसका पीछा करता रहता है।
जैसे तैसे अनिल राय के गाँव पहुँचे। अनिल की इच्छा के अनुरूप घर के सामने अच्छी खासी भीड़ थी। सब डाक्टर साहब के दर्शनार्थी। कच्चा पक्का मिलाकर घर काफी लंबा चौड़ा था।
अनिल भीड़ को देखकर प्रमुदित था। तत्परता से भीड़ के बीच रास्ता बनाता, वह डाक्टर साहब को मरीज़ के पास ले गया। वहाँ डाक्टर साहब के पास ज़्यादा कुछ करने को नहीं था। छः सात माह पहले गिर जाने के कारण वृद्ध की कमर की हड्डी टूट गयी थी। तब से लेटे ही थे। हड्डी तो जुड़ गयी थी,लेकिन अब वे उठने के लिए तैयार नहीं थे। जीवन-शक्ति शेष हो गयी थी। वे अर्ध-चेतना की अवस्था में थे।
डाक्टर साहब ने उन्हें देखा परखा, कहा, ‘हालत ठीक नहीं है। अब इन्हें सेवा की ही ज़रूरत है। कुछ दवाएँ लिख देता हूँ। इन्हें रोज़ देते रहिए।’
सुनकर अनिल के चेहरे पर कोई विषाद उत्पन्न नहीं हुआ। वह डाक्टर की बातों पर सिर हिलाता, उनके निर्देश लेता रहा। फिर हाथ जोड़कर उन्हें बाहर बैठक में ले आया। वहाँ काफी लोग डाक्टर साहब के दर्शन के लिए जमे थे। इतने बड़े डाक्टर को अपने बीच पा वे खासे रोब में थे। गाँव में रोगों का डेरा था। छोटे-छोटे रोग भी मुसीबत बन जाते थे। लेकिन इतने बड़े डाक्टर के सामने अपने छोटे रोगों की बात करना उन्हें कमअक्ली की बात लग रही थी।
उन्हीं के बीच बातचीत करते डाक्टर साहब का चाय-नाश्ता हुआ। वहीं सबके सामने अनिल ने डाक्टर साहब को लिफाफा पकड़ाया, कहा, ‘डाक्टर साहब, आपकी फीस। वैसे हम आपको कुछ देने लायक नहीं हैं।’ वह इसी बात में मगन था कि वह इतने बड़े डाक्टर को अपने घर तक लाने में सफल हुआ था। पिताजी की तबियत फिलहाल उसके लिए ज़्यादा अहमियत नहीं रखती थी।
चाय-नाश्ते के बाद अनिल बोला,’एकाध घंटे आराम कर लीजिए। थक गये होंगे।’
डाक्टर साहब ने कहा, ‘नहीं, वहाँ मरीज़ों को देखना है। कई फोन आ गये। अभी निकलना पड़ेगा।’
चलते वक्त अनिल डाक्टर साहब से हाथ जोड़कर बोला, ‘डाक्टर साहब, माफ करें, मैं तो आपके साथ नहीं जा पाऊँगा, लेकिन दो आदमी आपके साथ भेज रहा हूँ।’
डाक्टर साहब ने तत्काल जवाब दिया, ‘किसी की ज़रूरत नहीं है। मैं ड्राइवर के साथ आराम से चला जाऊँगा। आप अपना काम देखिए।’
भीड़ ने डाक्टर साहब को विदा किया। अनिल पुलकित था। उसकी खुशी और गर्व देखते ही बनता था।
डाक्टर साहब ने गाड़ी में बैठ कर आँखें मूँद लीं। ऐसे ही ज़्यादातर रास्ता कट गया। दूर तक सन्नाटे में गाड़ी चलती रही, फिर शहर की रोशनियाँ जुगजुगाने लगीं। डाक्टर साहब के ज़ेहन पर फिर उनकी ज़िम्मेदारियाँ हावी हो गयीं।
घर पहुँचे तो पता चला दो तीन सीरियस मरीज़ों के रिश्तेदार कई बार उन्हें ढूँढ़ते हुए भटके, कि वे आयें तो उन्हें ले जाकर कुछ ढाढ़स प्राप्त करें। अभी शायद फिर आएँगे।
सुनकर डाक्टर साहब ‘ठीक है’ कह कर हाथ-मुँह धोने चल दिए।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈