हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 21 – चाहत /हसरत ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले
श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है जीवन दर्शन पर आधारित एक अतिसुन्दर दार्शनिक / आध्यात्मिक रचना ‘चाहत /हसरत ‘। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 21 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ चाहत /हसरत ☆
कुछ जद थी
कुछ ज़िद थी
कुछ तुझ तक पहुँचने की हूक थी
मैं नंगे पांव चला आया
खाली था कुम्भ
मन बावरा सा मीन
नैनों में अश्रु
रीता / भरा
कुछ मध्य सा मैं बन आया
कुछ घटता रहा भीतर
कुछ मरता रहा जीकर
साँसों को छोड़, रूह को ओढ़
मै कफ़न साथ ले आया
तेरी चाहत का दिया जला है
ये जिस्म क्या तुझे पुकारती एक सदा है
जो गूँजती है मेरी देह के गलियारों में
अब गिनती है मेरी आवारों में
बस छूकर तुझे मै ठहर जाऊँ
मोम सा सांचे में ढल जाऊँ
गर तेरे इज़हार की बाती मिले
मै अखंड दीप बन जल जाऊँ
आत्मा पाऊँ ,
शरीर उधार लाऊं ,
प्यार बन जाऊँ,
प्रीत जग जाऊँ ।
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र