डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुभव और निर्णय। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 219 ☆

अनुभव और निर्णय... ☆

अगर आप सही अनुभव नहीं करते, तो निश्चित् है कि आप ग़लत निर्णय लेंगे–हेज़लिट की यह उक्ति अपने भीतर गहन अर्थ समेटे है। अनुभव व निर्णय का अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि विषम परिस्थितियों में हमारा अनुभव अच्छा नहीं है, तो हम उसे शाश्वत् सत्य स्वीकार उसी के अनुकूल निर्णय लेते रहेंगे। उस स्थिति में हमारे हृदय में एक ही भाव होता है कि हम आँखिन देखी पर विश्वास रखते हैं और यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है–सो! यह ग़लत कैसे हो सकता है? निर्णय लेते हुए न हम चिन्तन-मनन करना चाहते हैं; ना ही पुनरावलोकन, क्योंकि हम आत्मानुभव को नहीं नकार सकते हैं?

मानव मस्तिष्क ठीक एक पैराशूट की भांति है, जब तक खुला रहता है, कार्यशील रहता है–लार्ड डेवन का यह कथन मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालता है और उसके अधिकाधिक प्रयोग करने का संदेश देता है। कबीरदास जी भी ‘दान देत धन न घटै, कह गये भक्त कबीर’ संदेश प्रेषित करते हैं कि दान देते ने से धन घटता नहीं और विद्या रूपी धन बाँटने से सदैव बढ़ता है। महात्मा बुद्ध भी जो हम देते हैं; उसका कई गुणा लौटकर हमारे पास आता है–संदेश प्रेषित करते हैं। भगवान महाबीर भी त्याग करने का संदेश देते हैं और प्रकृति का भी यही चिरंतन व शाश्वत् सत्य है।

मनुष्य तभी तक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वगुण-सम्पन्न व सर्वपूज्य बना रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता–ब्रह्मपुराण का भाव, कबीर की वाणी में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है ‘मांगन मरण एक समान।’ मानव को उसके सम्मुख हाथ पसारने चाहिए, जो सृष्टि-नियंता व जगपालक है और दान देते हुए उसकी नज़रें सदैव झुकी रहनी चाहिए, क्योंकि देने वाला तो कोई और…वह तो केवल मात्र माध्यम है। संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह नश्वर मानव देह भी पंचतत्वों से निर्मित है और अंतकाल उसे उनमें विलीन हो जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ उक्त भाव को व्यक्त करती हैं…’यह किराये का मकान है/ जाने कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘प्रभु नाम तू जप ले रे बंदे!/ वही तेरे साथ जाएगा’ यही है जीवन का शाश्वत् सत्य।

मानव अहंनिष्ठता के कारण निर्णय लेने से पूर्व औचित्य- अनौचित्य व लाभ-हानि पर सोच-विचार नहीं करता और उसके पश्चात् उसे पत्थर की लकीर मान बैठता है, जबकि  उसके विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होता है। अंततः यह उसके जीवन की त्रासदी बन जाती है। अक्सर निर्णय हमारी मन:स्थिति से प्रभावित होते है, क्योंकि प्रसन्नता में हमें ओस की बूंदें मोतियों सम भासती हैं और अवसाद में आँसुओं सम प्रतिभासित होती हैं। सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ सो! चेहरे पर हमारे मनोभाव प्रकट होते हैं। इसलिए ‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गीत की पंक्तियाँ आज भी सार्थक हैं।

दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है, क्योंकि हम स्वयं को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझते हैं। परिणामत: हम सत्यान्वेषण नहीं कर पाते। ‘बहुत कमियाँ निकालते हैं/ हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात/ ज़रा आईने से भी कर लें।’ परंतु मानव अपने अंतर्मन में झाँकना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह आश्वस्त होता है कि वह गुणों की खान है और कोई ग़लती कर ही नहीं सकता। परंतु अपने ही अपने बनकर अपनों को प्रताड़ित करते हैं। इतना ही नहीं, ‘ज़िन्दगी कहाँ रुलाती है/ रुलाते तो वे लोग हैं/ जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी समझ बैठते हैं’ और हमारे सबसे प्रिय लोग ही सर्वाधिक कष्ट देते हैं। ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। आनंद तो हमारे मन में है। यदि वह मन में नहीं है, तो दुनिया में कहीं नहीं है, क्योंकि दूसरों से अपेक्षा करने से तो उलझनें प्राप्त होती हैं। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ही न किसी से ग़िला कीजिए’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ उलझनों को शीघ्र सुलझाने व शिक़ायत न करने की सीख देती हैं।

उत्तम काम के दो सूत्र हैं…जो मुझे आता है कर लूंगा/ जो मुझे नहीं आता सीख लूंगा। यह है स्वीकार्यता भाव, जो सत्य है और यथार्थ है उसे स्वीकार लेना। जो व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकार लेता है, उसके जीवन पथ में कोई अवरोध नहीं आता और वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। ‘दो पल की है ज़िन्दगी/ इसे जीने के दो उसूल बनाओ/ महको तो फूलों की तरह/ बिखरो तो सुगंध की तरह ‘ मानव को सिद्धांतवादी होने के साथ-साथ हर स्थिति में खुशी से जीना बेहतर विकल्प व सर्वोत्तम उपाय  है।

बहुत क़रीब से अंजान बनके निकला है/ जो कभी दूर से पहचान लिया करता था–गुलज़ार का यह कथन जीवन की त्रासदी को इंगित करता है। इस संसार म़े हर व्यक्ति स्वार्थी है और उसकी फ़ितरत को समझना अत्यंत कठिन है। ज़िन्दगी समझ में आ गयी तो अकेले में मेला/ न समझ में आयी तो भीड़ में अकेला…यही जीवन का शाश्वत्  सत्य व सार है। हम अपनी मनस्थिति के अनुकूल ही व्यथित होते हैं और यथासमय भरपूर सुक़ून पाते हैं।

तराशिए ख़ुद को इस क़दर जहान में/ पाने वालों को नाज़ व खोने वाले को अफ़सोस रहे। वजूद ऐसा बनाएं कि कोई तुम्हें छोड़ तो सके, पर भुला न सके। परंतु यह तभी संभव है, जब आप इस तथ्य से अवगत हों कि रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। हमें त्याग व समर्पण भाव से इनका निर्वहन करना चाहिए। सो! श्रेष्ठ वही है, जिसमें दृढ़ता हो; ज़िद्द नहीं, दया हो; कमज़ोरी नहीं, ज्ञान हो; अहंकार नहीं। जिसमें इन गुणों का समुच्चय होता है, सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलती है, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। प्राय: जिनमें समझ होती है, वे अहंनिष्ठता के कारण दूसरों को हेय समझते हैं और उनके अस्तित्व को नकार देते हैं। उन्हें किसी का साथ ग़वारा नहीं होता और एक अंतराल के पश्चात् वे स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। न कोई उनके साथ रहना पसंद करता है और न ही किसी को उनकी दरक़ार होती है।

वैसे दो तरह से चीज़ें नज़र आती हैं, एक दूर से; दूसरा ग़ुरूर से। ग़ुरूर से दूरियां बढ़ती जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं–प्रथम दूसरों के अनुभव से सीखते हैं, द्वितीय अपने अनुभव से और तृतीय अपने ग़ुरूर के कारण सीखते ही नहीं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। बुद्धिमान लोगो में जन्मजात प्रतिभा होती है, कुछ लोग शास्त्राध्ययन से तथा अन्य अभ्यास अर्थात् अपने अनुभव से सीखते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ कबीरदास जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि हमारा अनुभव ही हमारा निर्णय होता है। इनका चोली-दामन का साथ है और ये अन्योन्याश्रित है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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