श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “बैंक: दंतकथा : 1“।)
☆ कथा-कहानी # 92 – बैंक: दंतकथा : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
बैंक की परिपाटी कि “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना जो हमारी विरासत है, हमारी आदत बन चुकी थी और है भी, और शायद बैंक के संस्कारों के रूप में हमने भावी पीढ़ी को सौंपा भी है. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं. इसी परिप्रेक्ष्य में उपयुक्त शीर्षक के साथ इस कथा का सृजन करने का प्रयास है. पात्र और प्रसंग काल्पनिक होते हुये भी सत्य के करीब लग सकते हैं, इसका खतरा तो रहेगा. उम्मीद है इसे भी अन्य रचनाओं की तरह प्रेम और स्नेह मिलेगा.
अविनाश बैंक के आंचलिक कार्यालय में उपप्रबंधक के पद पर सुशोभित थे और अभी अभी अपने सहायक महाप्रबंधक से, उनके चैंबर में डांट खाकर बाहर आ चुके थे. उनका यह अटल विश्वास था कि चैंबर की घटनाएं चैंबर के अंदर ही रहती हैं और उनकी गूंज से बाहरवाले अंजान रहते हैं. जो इस गुप्त राज का पर्दाफाश करता है, वो बाहर निकलने वाले पात्र का चेहरा होता है अत: अविनाश की आंचलिक कार्यालय की दीर्घकालीन पदस्थापनाओं ने उनके अंदर यह सिद्धि स्थापित कर दी थी कि उनके चेहरे की रौनक और हल्की मुस्कान बरकरार रहती चाहे वो चैंबर के अंदर हों या बाहर. पर आज उनकी बॉडी लैंग्वेज ने उनका साथ देने से साफ साफ मना कर दिया.
ऐसा माना जाता है कि दुश्मन से ज्यादा दुखी बेवफा दोस्त करता है. जी हां, डांटने वाले और डांट खाने वाले किसी ज़माने में एक ही शाखा में सहायक के रूप में पदस्थ थे, अगल बगल में काउंटरों के संचालक थे और हम उम्र, हमपेशा, और रूमपार्टनर हुआ करते थे. अंतर सिर्फ उनकी संस्कृति, मातृभाषा, काया, रंग और अंग्रेज़ी में वाक्पटुता का होता था. अविनाश भांगड़ा की संस्कृति को प्रमोट करते थे तो कार्तिकेय भरतनाट्यम संस्कृति के हिमायती थे. किसी को कुलचे पराठे लुभाते थे तो किसी को इडली के साथ सांभर की खुशबू अपनी ओर खींचती थी. दोनों की आंखों में पानी आता तो था पर अलग अलग स्वाद की याद आने से. ये उनका दुर्भाग्य था कि उनकी पहली पदस्थापना के उस कस्बे से कुछ बड़ी सी जगह में न कुलचा पराठा मिलता था न ही इडली सांभर. अविनाश के नाम में पंजाबियत का सौंधापन नहीं था बल्कि उत्तरप्रदेश के बनारस या काशी की नगरी की पावनता थी जो बनारस निवासी उनकी माताजी के कारण थी. अब ये तो पता नहीं पर संतान के लक्षणों से अंदाज तो लगाया जा सकता ही था कि अविनाश, पेरेंटल प्रेमविवाह के परिणाम थे.
प्रथम पदस्थापना पर जैसा कि होता है, अविनाश और कार्तिकेय भी अविवाहित थे और दोनों की पाककला का प्रशिक्षण, बैंकिंग सीखने से कदम से कदम मिलाकर चल रहा था. दोनों मित्र दाल चांवल बनाना सीख चुके थे और अविनाश की दाल फ्राई करने की कला न केवल भोजन को स्वादिष्ट बनाती थी, वरन उन्हें कार्तिकेय पर सुप्रीमेसी स्थापित करने का अवसर भी प्रदान करती थी. बदले में स्वादिष्ट और चटपटे अचार की प्रबंधन व्यवस्था कार्तिकेय करते थे.
कथा चलती रहेगी, जमाना विद्युतीय और सौर ऊर्जा का है पर आपकी प्रतिक्रिया भी लेखक को ऊर्जावान बना सकती है.
© अरुण श्रीवास्तव
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