श्री यशोवर्धन पाठक

 

☆ कहाँ गए वे लोग # 3 ☆

डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री यशोवर्धन पाठक

(24.10.38- 27.02.24)

यादों में सुमित्र जी

आज जब मैं अपने अजातशत्रु अग्रज सुमित्र जी को शब्दों के माध्यम से अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूं तो मेरे मानस पटल पर  मेरी पांच दशक की साहित्यिक यात्रा की वे सारी मधुर स्मृतियां जीवंत हो उठीं हैं जो मेरे स्मृति कोष में अमूल्य धरोहर बन गई हैं। इस सुदीर्घ यात्रा में वे  हमेशा मेरा संबल बने रहे। संरक्षक, दिशा दर्शक और मार्ग दर्शक के ‌रूप में मुझे हमेशा अपने सिर पर उनका वरदहस्त होने का अहसास होता रहा। उन्होंने मुझे न तो कभी थकने दिया और रुकने दिया, निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहे। मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं नहीं है कि मैं अपनी पांच दशक की साहित्यिक यात्रा में आज जिस मुकाम पर पहुंच सका हूं, सुमित्रजी  के आशीर्वाद के बिना मैं उसकी  कल्पना भी नहीं कर सकता था। मेरे स्मृति कोष की किताब के हर पृष्ठ पर सुमित्रजी के अमिट हस्ताक्षर हैं।

सुमित्रजी मेरे पूज्य पिताजी स्व. पं.भगवती प्रसाद पाठक के बहुत बड़े प्रशंसक थे। पिताजी के साथ शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्रों में पिताजी के योगदान ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था। कालांतर में स्थानीय नवीन दुनिया समाचार पत्र में साहित्य संपादक के रूप में सुमित्रजी ने मेरे अग्रज हर्षवर्धन, सर्वदमन और प्रियदर्शन जी के मार्गदर्शक सहयोगी की भूमिका का निर्वाह किया। इसी अवधि में मेरे जीवन में वह दुर्लभ क्षण आया जब मुझे उन्होंने जीवन भर के लिए अपने मोहपाश में जकड़ लिया। 1977 में अपने अनुजवत् मित्र  राजेश पाठक प्रवीण  के साथ मिलकर जब मैंने ‘उदित लेखक संघ’ संस्था की नींव रखी तो सुमित्रजी जी ही मुख्य परामर्शदाता और मार्गदर्शक थे। इस संस्था का प्रथम आयोजन स्थानीय जानकीरमण महाविद्यालय के सभागार में हुआ था जिसमें विशिष्ट अतिथि के रूप में हम लोगों ने स्व हरिकृष्ण त्रिपाठी और सुमित्रजी को आमंत्रित किया था। उस अविस्मरणीय  ऐतिहासिक आयोजन से ही राजेश पाठक प्रवीण ने कार्यक्रम संचालन के क्षेत्र में अपना पहला कदम रखा और आज एक कुशल संचालक के रूप में उनकी ख्याति इस महादेश की सीमाओं को भी पार कर चुकी है। राजेश पाठक का कुशल मंच संचालन आज हर साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजन की सफलता की गारंटी बन चुका है। मेरे समान ही राजेश पाठक प्रवीण भी यह मानते हैं कि आज वे जिस मुकाम पर हैं वहां तक पहुंचने में सुमित्रजी का प्रोत्साहन और मार्गदर्शन हमेशा उनका संबल बना है।

सुमित्रजी तपस्वी, मनस्वी, यशस्वी साहित्यकार थे। उन्होंने चालीस से अधिक कालजयी कृतियों का सृजन किया। उन्हें उनकी सुदीर्घ साहित्य साधना के लिए देश विदेश में अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से विभूषित किया गया। संस्कारधानी के बहुसंख्य साहित्यकारों की कृतियों के लिए आशीर्वचन और भूमिकाएं लिखकर सुमित्रजी ने उन्हें गौरवान्वित किया। किसी भी पुस्तक के लिए सुमित्रजी की कलम से लिखी गई भूमिका उस पुस्तक पर सुमित्रजी की मुहर मानी जाती थी। सुमित्रजी की मुहर मतलब उस पुस्तक की सफलता की गारंटी। लगभग दो दशक पूर्व प्रकाशित मेरे प्रथम व्यंग्य संग्रह ‘ जांच पड़ताल ‘ की सफलता भी सुमित्रजी की मुहर ने पहले ही सुनिश्चित कर दी थी। सुमित्रजी लंबे समय तक हिंदी पत्रकारिता से जुड़े रहे। संस्कारधानी से प्रकाशित सांध्य दैनिक जयलोक के संपादक के रूप में सुमित्रजी ने हिंदी पत्रकारिता को नयी दिशा प्रदान की। जबलपुर जिला पत्रकार संघ में भी उन्होंने महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का  हुए कुशलता पूर्वक निर्वहन किया। वास्तविक अर्थों में सुमित्रजी अपने आप में एक संपूर्ण संस्था थे जिसके अंदर संवेदनशील कवि, विद्वान लेखक, सजग पत्रकार, शिक्षाविद, प्रखर वक्ता आदि सब एक साथ समाए हुए थे।

सुमित्रजी  सैकड़ों साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं के संरक्षण और मार्गदर्शक और नयी पीढ़ी के साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्रोत  थे। संस्कारधानी में कला साहित्य की अनूठी संस्था पाथेय कला अकादमी के संस्थापक थे। सुमित्रजी साहित्य जगत का वट वृक्ष थे जिसकी शाखाएं दूर दूर तक फैली हुई थीं। उनका अपना एक युग था। सुमित्रजी के देहावसान ने उस युग का अवसान कर दिया है। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि सुमित्रजी साहित्य जगत में एक ऐसा शून्य छोड़कर  गए हैं  जिसे  सुमित्रजी ही पुनर्जन्म लेकर भर सकते हैं।

© श्री यशोवर्धन पाठक

संपर्क – डॉ. मिली गुहा हॉस्पिटल के पीछे, गुप्तेश्वर, जबलपुर, फोन – 0761-2341338, 9407059752

संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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