श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “कोरी साड़ी ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 183 ☆
☆ लघुकथा 🌹 कोरी साड़ी 🌹
शहर, गाँव, महानगर सभी जगह चर्चा थी, तो बस सिर्फ महिला दिवस की। छोटी बड़ी कई संस्था, कई ग्रुप और हर विभाग में कार्यशील महिलाओं के लिए जैसे सभी ने बना रखा था महिला दिवस।
हो भी क्यों न महिला नारी – –
म – से ममता
ह – से हृदय
ल – से लगती
ना – से नारी
री- से रिश्ते
ममता हृदय से लगती सभी नाते रिश्ते वह कहलाती नारी या महिला मातृशक्ति।
ठीक ही है बिना नारी के सृष्टि की कल्पना करना भी एक बेकार की चीज होगी। शहर में घर-घर बाईयों का काम करके अपना जीवन, घर परिवार चलाना आम बात है। जीवन का सब भार संभाले रहती है, चाहे उसका पति कितना भी नशे का आदी क्यों न हो, निकम्मा क्यों न हो या कुछ भी पैसा कमा कर नहीं दे रहा हो।
परंतु महिलाएं इसी में खुश रहकर बच्चों का पालन पोषण करती है और शायद संसार में सबसे सुखी दिखाई देती है।
बंगले में काम करते – करते अचानक माया को आवाज सुनाई दिया – माया मुझे एक जरूरी फंक्शन में जाना है जल्दी-जल्दी काम निपटा लो।
वहाँ क्या होगा मेम साहब? माया ने पूछा। मेमसाहब पलट कर बोली पूरे साल में एक दिन हम महिलाओं को सम्मानित किया जाता है। गिफ्ट और शील्ड, सम्मान पत्र मिलते हैं।
अच्छा जी… कह कर माया अपने काम में लग गई। परंतु तुरंत ही पलट कर माया को देखते हुए मेमसाहब.. हंसने लगी वाह क्या बात है? आज तो तुम बिल्कुल नई कोरी साड़ी पहन कर आई हो।
माया ने हाथ की झाड़ू एक ओर सरकाकर कोरी साड़ी पर हाथ फेरते बोली.. मुझे भी मेरे मरद ने आज यह कोरी साड़ी दिया। सच कहूँ मेमसाहब मुझे तो पता ही नहीं।
यहाँ आने पर पता चला कि मेरा मरद मुझे कितना प्यार करता है। एकदम दुकान से चकाचक कोरी साड़ी लाकर दिया है। सच मेरी तो बहुत इज्जत करता है।
माया के चेहरे के रंग को देखकर उसके मेमसाहब के चेहरे का रंग उड़ गया। वह जाकर आईने के पास खड़ी हो गई। उसके बदन पर जो साड़ी थी। आज उसे वह कई जगह से दागदार दिखाई दे रही थी।
क्योंकि आज सुबह ही उसके पति ने चाय की भरी प्याली उसके शरीर पर फेंकते हुए कहा था… ले आना जाकर अपना महिला सशक्तिकरण का सम्मान। चाहे घर कैसा भी हो।
पीछे से माया की आवाज आ रही थी…सुना मेमसाहब वह मेरा मरद मेरे लिए सम्मान पत्र नहीं लाया, परंतु आज सिनेमा की दो टिकट लाया है।
हम आज सिनेमा देखने जाएंगे। अच्छा मैं जल्दी-जल्दी काम निपटा लेती हूँ। बाकी का काम कल कर लेगी। मेरी कोरी साड़ी मेरे मोहल्ले वाले भी देखेंगे। मैं तो चुपचाप पहन कर आ गई थी। अब जाकर बताऊंगी कि आज महिला दिवस है।
मेमसाहब सोच में पड़ गई.. कैसा और कौन सा सम्मान मिलना चाहिए।
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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈