डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य – जागी हुई अन्तरात्मा का उपद्रव। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 233 ☆

☆ व्यंग्य –  जागी हुई अन्तरात्मा का उपद्रव

एक रात लल्लूलाल लिपिक ने सपना देखा कि यमराज उससे कह रहे हैं, ‘बेटा लल्लूलाल, तुमने खूब रिश्वत खायी है, इसलिए नरक में तुम्हारे लिए कमरा रिज़र्व हो गया है।’ उन्होंने लल्लूलाल को नरक के दृश्य भी दिखाये जिन्हें देखकर लल्लूलाल की घिघ्घी बँध गयी। डर के मारे उसकी नींद खुल गयी और वह सारी रात लेटा लेटा रोता रहा, अपने कान पकड़ पकड़ कर ऐंठता रहा।

दूसरे दिन दफ्तर में भी लल्लूलाल काम करने की बजाय अपनी टेबल पर सिर रखकर रोता रहा। उसके सब साथी उसके चारों तरफ एकत्र हो गये।

छोटेलाल ने पूछा, ‘क्या बात है लल्ल्रू? कोई ठेकेदार कुछ देने का वादा करके मुकर गया क्या? ऐसा हो तो बताओ, हम एक मिनट में उसकी खाट खड़ी कर देंगे।’

लल्लूलाल विलाप करके बोला, ‘नहीं भइया, मैंने बहुत पाप किया है, बहुत रिश्वत खायी है। अपना परलोक बिगाड़ लिया। अब मेरी अन्तरात्मा जाग गयी है। मैं अपने पापों को धोना चाहता हूँ।’

मिश्रा बोला, ‘कैसे धोओगे’?

लल्लूलाल ने जवाब दिया, ‘मैं ऊपर अफसरों को लिखकर अपने अपराध स्वीकार करूँगा, अखबारों में छपवाऊँगा। छज्जूमल एण्ड कम्पनी और गिरधारीलाल एण्ड संस से जितना पैसा लिया है सबका हिसाब दूँगा।’

छोटेलाल बोला, ‘बेटा, डिसमिस हो जाओगे। जेल भोगोगे सो अलग।’

लल्लूलाल सिर हिलाकर बोला, ‘चाहे जो हो, अब मुझे परलोक बनाना है।’

मिश्रा बोला, ‘बाल बच्चे भीख मांगेंगे।’

लल्लूलाल हाथ हिला कर बोला, ‘माँगें तो माँगें। मैंने कोई सालों का ठेका ले रखा है?’

यह सुनकर दफ्तर में खलबली मच गयी। बड़ी भागदौड़ शुरू हो गयी। बड़े बाबू अपनी तोंद हिलाते तेज़ी से लल्लूलाल के पास आये, बोले, ‘लल्लू, यह क्या पागलपन है?’

लल्लूलाल ने जवाब दिया, ‘कोई पागलपन नहीं है दद्दा। अब तो बस परलोक की फिकर करना है। बहुत नुकसान कर लिया अपना।’

बड़े बाबू बोले, ‘लेकिन जब तुम छज्जूमल वाले केस को कबूल करोगे तो पूछा जाएगा कि और किस किस ने लिया था।’

लल्लूलाल ने जवाब दिया, ‘पूछेंगे तो बता देंगे।’

बड़े बाबू ने माथे का पसीना पोंछा, बोले, ‘उसमें तो साहब भी फँसेंगे।’

लल्लूलाल बोला, ‘फँसें तो फँसें। हम क्या करें? जो जैसा करेगा वैसा भोगेगा।’

बड़े बाबू बोले, ‘तुम्हें साहब की नाराजगी का डर नहीं है?’

लल्लूलाल बोला, ‘अरे, जब डिसमिसल और जेल का डर नहीं रहा तब साहब की नाराजगी की क्या फिक्र करें।’

बड़े बाबू तोंद हिलाते साहब के कमरे की तरफ भागे। जल्दी ही साहब के केबिन में लल्लूलाल का बुलावा हुआ। साहब ने उसे खूब फटकार लगायी, लेकिन लल्लूलाल सिर्फ रो रो कर सिर हिलाता रहा। साहब ने परेशान होकर बड़े बाबू से कहा कि वे उसे उसके घर छोड़ आएँ और उस पर खड़ी नज़र रखें।

बड़े बाबू, छोटेलाल और दो-तीन अन्य लोग लल्लूलाल को पकड़कर घर ले गये और उसे बिस्तर पर लिटा दिया।

बड़े बाबू ने उसकी बीवी और लड़कों को बुलाकर कहा, ‘देखो, यह पागल तुम लोगों से भीख मँगवाने का इन्तजाम कर रहा है। इसे सँभालो, नहीं तो तुम कहीं के नहीं रहोगे।’

लल्लूलाल के बीवी-बच्चों ने उस पर कड़ी निगरानी शुरू कर दी। साहब के हुक्म से दफ्तर का एक आदमी चौबीस घंटे वहाँ मौजूद रहता। बड़े बाबू बीच-बीच में चक्कर लगा जाते। लल्लूलाल बाथरूम भी जाता तो कोई दरवाजे पर चौकीदारी करता। उसके कमरे से कागज-कलम हटा लिए गये। कोई मिलने आता तो घर का एक आदमी उसकी बगल में बैठा रहता।

लल्लूलाल ने छुट्टी लेने से इनकार कर दिया तो बड़े बाबू ने उससे कह दिया कि छुट्टी लेने की कोई ज़रूरत नहीं है। वे हाजिरी- रजिस्टर लल्लूलाल के घर भेज देते और लल्लूलाल वहीं दस्तखत कर देता।

लल्लूलाल घर में दिन भर भजन- पूजा में लगा रहता था। सवेरे से वह नहा धोकर शरीर पर चन्दन पोत लेता और फिर दोपहर तक भगवान की मूर्ति के सामने बैठा रहता। बाकी समय वह रामायण पढ़ता रहता। घर के लोग उसके इस परिवर्तन से बहुत हैरान थे।

जब लल्लूलाल का चित्त कुछ शान्त हुआ तब साहब के इशारे पर बड़े बाबू ने उसके पास बैठकें करना शुरू किया। उन्होंने उसे बहुत ऊँच-नीच समझाया। कहा, ‘देखो लल्लूलाल, तुमने आगे के लिए रिश्वतखोरी छोड़ दी यह तो अच्छी बात है, लेकिन यह चिट्टियाँ लिखने वाला मामला ठीक नहीं है। इस बात की क्या गारंटी है कि ऊपर पहुँचने पर तुम्हें स्वर्ग मिल ही जाएगा? अगर वहाँ पहुँचने पर तुम्हें पिछले रिकॉर्ड के आधार पर ही नरक भेज दिया गया तब तुम्हारे दोनों लोक बिगड़ जाएँगे।’

लल्लूलाल सोच में पड़ गया।

बड़े बाबू उसे पुचकार कर बोले, ‘लल्लूलाल, तुम तो आजकल काफी पढ़ते हो। यह सब माया है। न कोई किसी से लेता है, न कोई किसी को देता है। सब अपनी प्रकृति से बँधे कर्म करते हैं। तुम बेकार भ्रम में पड़े हो।’

लल्लू लाल और गहरे सोच में पड़ गया, बोला, ‘लेकिन पुराने कर्मों का प्रायश्चित तो करना ही पड़ेगा दद्दा।’

बड़े बाबू बोले, ‘अरे, तो प्रायश्चित करने का यह तरीका थोड़े ही है जो तुम सोच रहे हो। इस तरीके से तो तुम्हारे साथ-साथ दस और लोगों को कष्ट होगा। दूसरों को कष्ट देना धर्म की बात नहीं है।’

लल्लूलाल चिन्तित होकर बोला, ‘तो फिर क्या करें?’

बड़े बाबू उसकी पीठ पर हाथ रख कर बोले, ‘मूरख! हमारे यहाँ तो पाप धोने का सीधा तरीका है। गंगा स्नान कर आओ।’

लल्लूलाल गंगा स्नान के लिए राजी हो गया। फटाफट उसकी तैयारी कर दी गयी। साहब का हुकुम हुआ कि छोटेलाल भी उसके साथ जाए, कहीं लल्लूलाल बीच में ही फिर पटरी से न उतर जाए।

छोटेलाल कुनमुनाया, बोला, ‘अभी से क्या गंगा स्नान करें?’

बड़े बाबू बोले, ‘बेटा, पिछला साफ कर आओ, फिर आगे की फिकर करो। ज्यादा एरियर एकत्र करना ठीक नहीं।’

उसने पूछा, ‘खर्च का इन्तजाम कहाँ से होगा?’

बड़े बाबू ने साहब से पूछा। साहब ने कहा, ‘छज्जूमल के यहांँ से पाँच हजार रुपया उठा लो। कह देना, धरम खाते में डाल देगा।’

और एक दिन लल्ल्रूलाल को उसकी बीवी और छोटेलाल के साथ ट्रेन में बैठा दिया गया। स्टेशन पर साहब भी उसे विदा करने आये। ट्रेन रवाना हो जाने पर उन्होंने लम्बी साँस छोड़ी।

दफ्तर लौटने पर बड़े बाबू जैसे थक कर कुर्सी पर पसर गये। मिश्रा से बोले, ‘भइया, यह अन्तरात्मा जब एक बार सो कर बीच में जाग जाती है तो बहुत गड़बड़ करने लगती है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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