डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – गृहप्रवेश। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 234 ☆

☆ कथा-कहानी –  गृहप्रवेश

गौड़ साहब बैंक से वी.आर.एस. लेकर घर बैठ गये। धन काफी प्राप्त हुआ, लेकिन  असमय ही बेकार हो गये। अभी हाथ- पाँव दुरुस्त हैं, इसलिए दो चार महीने के आराम के बाद खाली वक्त अखरने लगा। पहले सोचा था कि फुरसत मिलने पर घूम-घाम कर रिश्तेदारों से मेल- मुलाकात करेंगे, मूर्छित पड़े रिश्तों को हिला-डुला कर फिर जगाएँगे, लेकिन जल्दी ही भ्रम दूर हो गया। सब के पास उन जैसी फुरसत नहीं। घंटे दो- घंटे के प्रेम-मिलन के बाद धीरे-धीरे सन्नाटा घुसपैठ करने लगता है। दो-तीन दिन के बाद सवालिया निगाहें उठने लगती हैं कि (शरद जोशी के शब्दों में) ‘अतिथि तुम कब जाओगे?’

गौड़ साहब तड़के उठकर खूब घूमते हैं। घूमते घूमते पार्क में बैठ जाते हैं तो जब तक मन न ऊबे बैठे रहते हैं। कोई जल्दी नहीं रहती। घर जल्दी लौटकर ‘खटपट’ करके दूसरों की नींद डिस्टर्ब करने से क्या फायदा? पार्क में कुछ और रिटायर्ड मिल जाते हैं तो गप-गोष्ठी भी हो जाती है। लौटते में कई घरों से ढेर सारे फूल तोड़ लाते हैं और फिर नहा-धोकर घंटों पूजा करते हैं।

कुछ दिन तक मन ऊबने पर बैंक में पुराने साथियों के पास जा बैठते थे। उनके जैसे और भी स्वेच्छा से सेवानिवृत्त आ जाते थे। कुछ दिनों में ही ये सब फुरसत-पीड़ित लोग बैंक के प्रशासन की आँखों में खटकने लगे। दीवारों पर पट्टियाँ लग गयीं कि ‘कर्मचारियों के पास फालतू न बैठें।’ कर्मचारियों को भी हिदायत मिल गयी कि आसपास खाली कुर्सियाँ न रखें, न ही फालतू लोगों को ‘लिफ्ट’ दें। इस प्रकार गौड़ साहब का वक्त काटने का यह रास्ता बन्द हुआ।

वैसे गौड़ साहब परिवार की तरफ से निश्चिंत हैं। तीन बेटे और एक बेटी है। दो बेटे काम से लग गये हैं। बड़े बेटे और बेटी की शादी हो गयी है। छोटा बेटा एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा है। उसकी पढ़ाई मँहगी है और इससे गौड़ साहब को सेवानिवृत्ति से प्राप्त राशि में कुछ घुन लगा है। लेकिन उन्हें भरोसा है कि लड़का जल्दी काम से लगकर उन्हें पूरी तरह चिन्तामुक्त करेगा। फिलहाल वे मँझले बेटे की शादी की तैयारी में व्यस्त हैं।

मँझले बेटे की शादी से तीन चार महीने पहले गौड़ साहब मकान में ऊपर दो कमरे और एक हॉल बनाने में लग गये क्योंकि अभी तक मकान एक मंज़िल का ही था और उसमें जगह पर्याप्त नहीं है। बड़े बेटे का परिवार भी उनके साथ ही है। गौड़ साहब ने पहले ऊपर नहीं बनाया क्योंकि वे व्यर्थ में ईंट-पत्थरों में सिर मारना पसन्द नहीं करते। उन्हें किराये पर उठाने की दृष्टि से निर्माण कराना भी पसन्द नहीं। कहते हैं, ‘किरायेदार से जब तक पटी, पटी। जब नहीं पटती तब एक ही घर में उसके साथ रहना सज़ा हो जाती है। जिस आदमी का चेहरा देखने से ब्लड- प्रेशर बढ़ता है उसके चौबीस घंटे दर्शन करने पड़ते हैं। राम राम!’ वे कानों को हाथ लगाते हैं।

निर्माण में गौड़ साहब का ही पैसा लग रहा है। बेटों को पता है उनके पास रकम है। उन्हें बेटों से माँगने में संकोच लगता है। अपनी मर्जी से उन्होंने कोई पेमेंट कर दिया तो ठीक, वर्ना गौड़ साहब अपने बैंक का रुख करते हैं। जब ढाई तीन लाख निकल गये तो उन्होंने धीरे से मँझले बेटे बृजेन्द्र से ज़िक्र किया,कहा, ‘बेटा, सब पैसा खर्च हो जाएगा तो बुढ़ापे में तकलीफ होगी। कभी बीमारी ने पकड़ा तो मुश्किल हो जाएगी। आजकल प्राइवेट अस्पतालों में तीन-चार दिन भी भर्ती रहना पड़े तो बीस पच्चीस हज़ार का बिल बन जाता है। यही हाल रहा तो आदमी बीमार पड़ने से डरेगा।’

बृजेन्द्र ने जवाब दिया, ‘दिक्कत हो तो आप लोन ले लो, बाबूजी। हम चुकाने में मदद करेंगे। हमारे पास इकट्ठे होते तो दे देते। चिन्ता करने की जरूरत नहीं है।’

लेकिन उसके आश्वासन से गौड़ साहब की चिन्ता कैसे दूर हो? जो हो, उन्होंने शादी के पहले काम करीब करीब पूरा कर लिया है। थोड़ा बहुत फिटिंग-विटिंग का काम रह गया है सो होता रहेगा। नयी बहू को अलग कमरा मिल जाएगा।

निर्माण कार्य के चलते ज़्यादातर वक्त गौड़ साहब कमर पर हाथ धरे, ऊपर मुँह उठाये, काम का निरीक्षण करते दिख जाते हैं। धूप में भी निरीक्षण करना पड़ता है। मिस्त्री-मज़दूर का क्या भरोसा? उधर से निकलने वाले उनकी उस मुद्रा से परिचित हो गये हैं। अब अपनी जगह न दिखें तो आश्चर्य होता है।

शादी हो गयी और बहू घर आ गयी। बहू के पिता यानी गौड़ साहब के नये समधी बड़े सरकारी पद पर हैं। अच्छा रुतबा है। उनसे रिश्ता होने पर गौड़ साहब का मर्तबा भी बढ़ा है। पावरफुल होने के बावजूद समधी साहब लड़की के बाप की सभी औपचारिकताओं का निर्वाह करते हैं।

पास का पैसा निकल जाने से गौड़ साहब कुछ श्रीहीन हुए हैं। कंधे कुछ झुक गये हैं और चाल भी सुस्त पड़ गयी है। कहते हैं जब लक्ष्मी आती है तो छाती पर लात मारती है जिससे आदमी की छाती चौड़ी हो जाती है, और जब जाती है तो पीठ पर लात मारती है जिससे कंधे सिकुड़ जाते हैं।

एक दिन उनके भतीजे ने उन्हें और परेशानी में डाल दिया। घर में एक तरफ ले जाकर बोला, ‘चाचा जी, आप यहाँ दिन रात एक करके बृजेन्द्र भैया के लिए कमरे बनवा रहे हैं, लेकिन उन्होंने तो आलोक नगर में डुप्लेक्स बुक करवा लिया है।’

सुनकर गौड़ साहब को खासा झटका लगा। बोले, ‘कैसी बातें करता है तू? बृजेन्द्र भला ऐसा क्यों करने लगा? उसी के लिए तो मैंने तपती दोपहरी में खड़े होकर कमरे बनवाये हैं।’

भतीजा बोला, ‘मेरा एक दोस्त स्टेट बैंक में काम करता है, उसी ने बताया। स्टेट बैंक में लोन के लिए एप्लाई किया है। उनके ससुर भी साथ गये थे।’

गौड़ साहब का माथा घूमने लगा। यह क्या गड़बड़झाला है? बेटा भला ऐसा क्यों करेगा? ऐसा होता तो उनसे बताने में क्या दिक्कत थी? उन्होंने फालतू अपना पैसा मकान में फँसाया।

शाम को बृजेन्द्र घर आया तो उन्होंने बिना सूचना का सूत्र बताये उससे पूछा। सवाल सुनकर उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। हकलाते हुए बोला, ‘कैसा मकान? मैं भला मकान क्यों खरीदने लगा? मुझे क्या ज़रूरत? आपसे किसने बताया?’

फिर बोला, ‘मैं समझ गया। दरअसल मेरे ससुर साहब अपने बड़े बेटे समीर के लिए वहाँ डुप्लेक्स खरीद रहे हैं। मैं भी उनके साथ बैंक गया था। इसीलिए किसी को गलतफहमी हो गयी। आप भी, बाबूजी, कैसी कैसी बातों पर विश्वास कर लेते हैं!’

बात आयी गयी हो गयी, लेकिन कुछ था जो गौड़ साहब के मन को लगातार कुरेदता रहा। बृजेन्द्र के ससुराल पक्ष के लोग आते रहे, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं बताया।

फिर एक दिन बृजेन्द्र उनके पास सिकुड़ता-सकुचता आ गया। हाथ में एक कार्ड। उनके पाँव छूकर, कार्ड बढ़ाकर बोला, ‘बाबू जी, आपका आशीर्वाद चाहिए।’

गौड़ साहब ने कार्ड निकाला। देखा, मज़मून के बाद ‘विनीत’ के नीचे उन्हीं का नाम छपा था। बृजेन्द्र गौड़ के आलोक नगर स्थित नये मकान में प्रवेश का कार्ड था। बृजेन्द्र कार्ड देकर सिर झुकाये खड़ा था। पिता ने प्रश्नवाचक नज़रों से उसकी तरफ देखा तो बोला, ‘आपको बता नहीं पाया, बाबूजी। डर था आपको कहीं बुरा न लगे। ऑफिस के कुछ लोग ले रहे थे तो सोचा मैं भी लेकर डाल दूँ। प्रॉपर्टी है, कुछ फायदा ही होगा।’

गौड़ साहब कुछ नहीं बोल सके।  उस दिन से उनका सब हिसाब-किताब गड़बड़ हो गया। बोलना-बताना कम हो गया। ज़्यादातर वक्त मौन ही रहते। भोजन करते तो दो रोटी के बाद ही हाथ उठा देते— ‘बस, भूख नहीं है।’

गृहप्रवेश वाले दिन के पहले से ही बृजेन्द्र खूब व्यस्त हो गया। प्रवेश वाले दिन दौड़ते- भागते पिता के पास आकर बोला, ‘बाबूजी, मैं गाड़ी भेज दूँगा। आप लोग आ जाइएगा।’

नये भवन में गहमागहमी थी। बृजेन्द्र के ससुराल पक्ष के सभी लोग उपस्थित थे। बहू, अधिकार-बोध से गर्वित, अतिथियों का स्वागत करने और उन्हें घर दिखाने में लगी थी। पिता के पहुँचते ही बृजेन्द्र उनसे बोला, ‘बाबूजी, पूजा पर आप ही बैठेंगे। आप घर के बड़े हैं।’

गौड़ साहब यंत्रवत पुरोहित के निर्देशानुसार पूजा संपन्न कराके एक तरफ बैठ गये। लोग उनसे मिलकर बात कर रहे थे लेकिन उनका मन बुझ गया था,जैसे भीतर कुछ टूट गया हो। भोजन करके वे पत्नी के साथ वापस घर आ गये। घर में उतर कर ऊपर नये बने हिस्से पर नज़र डाली तो लगा वह हिस्सा उनके सिर पर सवार हो गया है।

आठ-दस दिन गुज़रे, फिर एक दिन एक ट्रक दरवाजे़ पर आ लगा। बृजेन्द्र का साला लेकर आया था। ऊपर से सामान उतरने लगा। दोपहर तक सामान लादकर ट्रक रवाना हो गया। शाम को बृजेन्द्र की ससुराल से कार आ गयी। बृजेन्द्र और बहू छोटा-मोटा सामान लेकर नीचे आ गये। बृजेन्द्र पिता-माता के पाँव छूकर बोला, ‘बाबूजी हम जा रहे हैं। मकान को ज्यादा दिन खाली छोड़ना ठीक नहीं। जमाना खराब है। आप आइएगा। कुछ दिन हमारे साथ भी रहिएगा। वह घर भी आपका ही है।’ बहू ने भी पाँव छूते हुए कहा, ‘बाबूजी, आप लोग जरूर आइएगा।’ फिर वे कार में बैठकर सर्र से निकल गये।

उनके जाने के बाद बड़ी देर तक गौड़ साहब और उनकी पत्नी गुमसुम बैठे रहे। अन्ततः पत्नी पति से बोलीं, ‘अब सोच सोच कर तबियत खराब मत करो। बच्चे तो एक दिन अपना बसेरा बनाते ही हैं।’

गौड़ साहब लंबी साँस लेकर बोले, ‘ठीक कहती हो। गलती हमारी ही है जो हम बहुत सी गलतफहमियाँ पाल लेते हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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