श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “मुलताई होली”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 185 ☆
☆ लघुकथा 🌻 मुलताई होली 🌻
रंग उत्सव का आनंद, फागुन होली की मस्ती, किसका मन नहीं होता रंगों से खेलने का। लाल, हरा, पीला, नीला, गुलाबी, गुलाल सबका मन मोह रही है।
और हो भी क्यों नहीं, होली की खुशियाँ भी कुछ ऐसी होती है कि हर उम्र का व्यक्ति बड़ा – छोटा सबको रंग लगाना अच्छा लगता हैं।
अरे कांता…… सुनो तुम जल्दी-जल्दी काम निपटा लो। आज 12:00 बजे हमारे सभी परिचित होली खेलने आएंगे। रंग, फाग उड़ेगा, ढोल – नगाड़े बजेंगे, मिठाइयां बटेगी और स्वादिष्ट भोजन सभी को खिलाया जाएगा।
जी मेम साहब…. कांता ने चहक कर आवाज लगाई।
अपना काम कर रही थी। झाड़ू – पोछा लगाते- लगाते देखी कि बाहर बालकनी में कई बोरी मुल्तानी मिट्टी जिससे होली खेली जाती है, रखी हैं। जिसमें से भीनी-भीनी खुशबू भी आ रही है।
गांव में थोड़ा सा गुलाल, रंग और फिर कीचड़, पानी से होली खेलते देख, वह शहर आने के बाद मिट्टी से होली का रंग लगाते देख रही थी।
पिछले साल भी वह इस होली का आनंद उठाई थी। परंतु आज इतने बोरियों को इकट्ठा देख उसके अपने छोटे से घर जहाँ की मिट्टी की दीवार जगह से उखड़ी थी, याद आ गया… अचानक काम करते-करते वह रुक गई।
हिम्मत नहीं हो रही थी कि मेमसाहब से बोल दे….. कि वह दो बोरियां मुझे भी दे दीजिएगा। ताकि मैं अपने घर ले जाकर दीवारों को मुलताई मिट्टी पोत-लीप लूंगी।
हमारी तो होली के साथ-साथ दीवाली भी हो जाएगी और घर भी अपने आप महकने लगेगा। फिर बुदबुदाते हुए जाने लगी और मन में ही बात कर रही थीं… यह सब बड़े आदमियों के चोचलें हैं। इन्हें क्या पता कि हम गरीबों की देहरी इन मिट्टी से नया रंग रूप ले खिल उठती है।
जाने दो मैं फिर कभी मांग लूंगी। कांता के हाव-भाव और गहरी बात को सुन मेमसाहब सोच में पड़ गई।
बातें मन को एक नया विचार दे रही थी। सभी मेहमानों का आना-जाना शुरू हो गया। जब सभी लोग आ गए कोई रंग कोई गुलाल कोई मिट्टी लेकर आए थे। जोर-जोर से ढोल नगाड़े और डीजे की आवाज के बीच अचानक मेमसाहब की आवाज गूंज उठी…. आज की होली हम सिर्फ अबीर, गुलाल और रंग से खेलेंगे।
जो भी मिट्टी रखी है उसे सभी पास के गांव में ले चलेंगे। वहाँ पर होली खेलकर आएंगे। हँसते हुए सब ने कहा… अच्छा है मिट्टी से होली खेल कर आ जाएंगे गांव वाले जो ठहरें।
सभी की सहमति लगभग तय हो गई इन सब बातों से अनजान कांताबाई अपने काम में लगी।
किसी दूसरे ने कहा देखो कांता मेमसाहब कह रही हैं… सब तुम्हारे गांव जा रहे हैं।
खुशी का ठिकाना नहीं रहा वह सोचकर झूम उठी कि मैं सभी को थोड़ा सा अच्छा वाला गुलाल, रंग लगाकर मिट्टी की बोरी को दीवाल रंगने के लिए रख लूंगी।
मेरे घर की दीवाल भी मुलताई मिट्टी से होली खेल महक उठेगी । जोश से भरा उसका हाथ जल्दी-जल्दी काम में चलने लगा। मेमसाहब को आज होली के मुलताई रंग की अत्यंत प्रसन्नता हो रही थीं। सच तो यह है कि हम बेवजह किसी भी चीज की उपयोगिता को बिना सोचे समझे उसे नष्ट कर देते हैं। सोचने वाली बात है आप भी जरा सोचिएगा। 🙏🙏🙏
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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈