डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – ‘गृहप्रवेश’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 235 ☆
☆ व्यंग्य – समाज-सेवा पखवाड़ा ☆
जब ट्रक उछलता-कूदता गाँव में घुसा तब उसमें खड़े कुर्ता-धोती और टोपी धारी ताली बजा बजा कर रामधुन गा रहे थे। गाँव के बच्चे गाने की धुन सुनकर तमाशा देखने के लिए बाहर निकल आये और विचित्र मुद्राओं में ताली पीटने वालों को कौतूहल से देखने लगे। इतने में सरपंच दुलीचन्द के घर के सामने ड्राइवर ने ब्रेक लगाया, और ताली बजाने वाले भरभरा कर एक दूसरे के ऊपर गिर पड़े।
उनमें से एक किचकिचाकर बोला, ‘हमने त्यागी जी से कहा था कि रामधुन मुँह से गा लेंगे, ताली मत बजवाओ, लेकिन उन्हें तो पूरा ढोंग किये बिना चैन नहीं पड़ता।’
ड्राइवर के बगल वाली खिड़की खोलकर त्यागी जी कूद कर बाहर आ गये। अब तक आवाज़ सुनकर दुलीचन्द भी बाहर आ गये थे। त्यागी जी ने दुलीचन्द को देखकर दोनों हाथ जोड़कर सिर से ऊपर तक उठा लिये, बोले, ‘नमस्ते दुलीचन्द जी।’
त्यागी जी और उनकी टोली को देखकर दुलीचन्द का मुँह उतर गया। अभिवादन का उत्तर देने के बाद उन्होंने पूछा, ‘कैसे पधारे?’
त्यागी जी ने हर्ष से उत्तर दिया, ‘आपके गाँव में समाजसेवा पखवाड़ा मनाना है।’
दुलीचन्द चिन्तित मुद्रा में बोले, ‘हमारे गाँव की सेवा तो आप कई बार कर चुके। अब किसी दूसरे गाँव की सेवा कर लेते।’
त्यागी जी बोले, ‘आपका गाँव हमारा जाना पहचाना है। आपसे हमारा हृदय मिल गया।अब दूसरे गाँव में कहाँ जाएँ?’
दुलीचन्द ने पूछा, ‘पहले से खबर नहीं दी?’
त्यागी जी ने बत्तीसी दिखायी, बोले, ‘खबर कहाँ से देते? सरकार की ग्रांट इस बार बड़ी देर से मिली। हम तो समझे कि इस साल समाज सेवा नहीं कर पाएँगे।’
दुलीचन्द ने लंबी साँस छोड़ी, बोले, ‘ठीक है, तो फिर हमारी सेवा कर लो।’
त्यागी जी ने पूछा, ‘रुकने का प्रबंध?’
दुलीचन्द ने जवाब दिया, ‘अपने पास तो स्कूल ही है। वहीं इन्तजाम कर देते हैं।’
दुलीचन्द ने स्कूल का एक बड़ा कमरा समाजसेवकों को दे दिया। सब बिस्तर बिछा बिछा कर फैल गये।
त्यागी जी ने देखा राष्ट्रबंधु जी खिड़की से चिपके बाहर देख रहे थे। त्यागी जी ने आवाज़ देकर उन्हें बुलाया। राष्ट्रबंधु अपने पान से लाल दाँत चमकाते हुए आये। त्यागी जी ने बिस्तर के कोने की तरफ इशारा किया, कहा, ‘बैठो।’ राष्ट्रबंधु बैठ गये।
त्यागी जी हल्के स्वर में बोले, ‘देखो, तुमको तुम्हारी जिद पर ले तो आये हैं, लेकिन यहाँ अपने पर काबू रखकर रहना। तुम्हारी जो लड़कियों के पीछे पगलाने की आदत है उसे यहाँ दिखाओगे तो तुम्हारी तबियत ठीक हो जाएगी और आगे से फिर हम तुम्हें समाज सेवा के लिए नहीं ले जाएँगे।’
राष्ट्रबंधु ने त्यागी जी के चरन पकड़ लिये। बोले, ‘कैसी बातें कर रहे हो दद्दा! हम समझते नहीं क्या? एक शिकायत भी सुन लो तो कान पकड़ के दो ठो लगाना हमारे। हम इतने पागल नहीं हैं।’
त्यागी जी आश्वस्त हो गये। थोड़ी देर में दुलीचन्द आ गये। बैठकर बातें होने लगीं।
त्यागी जी बोले, ‘दुलीचन्द जी, हमारा प्रोग्राम बनवा दो तो कल से काम शुरू करें।’
दुलीचन्द ने पूछा, ‘क्या समाज सेवा करनी है?’
त्यागी जी हँसे, बोले, ‘आप तो ऐसे पूछ रहे हैं जैसे हम पहली बार आये हों। सब पुराने कार्यक्रम हैं। दिन को नालियाँ वालियाँ खोद देंगे या सड़क बना देंगे, किसी मन्दिर का जीर्णोद्धार कर देंगे, शाम को प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम हो जाएगा।’
दुलीचन्द बोले, ‘प्रौढ़ शिक्षा तो मुश्किल है। लोग दिन भर खेतों में रहते हैं, शाम को पढ़ने कौन आएगा?’
त्यागी जी दुलीचन्द का हाथ पकड़ कर बोले, ‘ऐसी बात मत करो दुलीचन्द जी। आप चाहो तो सब हो सकता है। चार छः लोग भी जुटा दोगे तो अपना काम बन जाएगा।’
दूसरे दिन सवेरे चार बजे से स्कूल से रामधुन की आवाज़ आने लगी। समाजसेवक सवेरे से रामधुन गा रहे थे। त्यागी जी ने सबको उठाकर बरामदे में बैठा लिया था। वे सब उबासियाँ लेते ‘रघुपति राघव राजा राम’ गा रहे थे। कुछ अब भी नींद में भरे, दीवार से टिके, आँखें बन्द किये रामधुन के शब्दों पर मुँह चला रहे थे। राष्ट्रबंधु अभी तक बिस्तर में ही थे। वे वहीं से लेटे-लेटे रामधुन गाने लगे। त्यागी जी ने दरवाजे में झाँककर कहा, ‘तुम क्या कर रहे हो?’
‘रामधुन गा रहा हूँ दद्दा!’
‘तुम उठकर बाहर आते हो कि हम आकर एक हाथ लगाएँ?’
राष्ट्रबंधु सिर खुजाते हुए उठे, बोले, ‘आ रहे हैं मेरे बाप।’
सवेरे आठ बजे समाजसेवक फावड़े ले लेकर गाँव की नालियाँ खोदने निकल पड़े। राष्ट्रबंधु जिस घर के सामने फावड़ा चला रहे थे वहाँ एक युवक बैठा था। वह गुस्से में बोला, ‘भैया, आप हमारे घर को माफ करो। आप आधी दूर तक नाली खोद कर चले जाओगे, फिर हमारे दरवाजे पर पानी ठिला रह जाएगा तो हमें परेशानी हो जाएगी।’
राष्ट्रबंधु बोले, ‘तो हम समाज सेवा न करें क्या?’
युवक बोला, ‘खूब करो। लेकिन समाज सेवा करने को हमारा ही घर बचा है क्या? गाँव में इतने घर हैं, कहीं और करो।’
राष्ट्रबंधु नाराज हो गये, बोले, ‘एक तो सेवा कर रहे हैं, ऊपर से ऐंठ दिखा रहे हो। समाज सेवा पखवाड़ा ना होता तो अभी बताता तुम्हें।’
बातचीत सुनकर दूसरे समाजसेवक वहाँ आ गये। उन्होंने राष्ट्रबंधु को समझाया। राष्ट्रबंधु गुस्से में थे, बोले, ‘बड़ी ऐंठ दिखाता है। मुझे गुस्सा चढ़ेगा तो तीन दिन तक इसी के दरवाजे पर समाज सेवा करता रहूँगा। देखें क्या कर लेता है।’
थोड़ी दूर पर सत्संगी जी अपने घुटनों पर फावड़ा टिकाये त्यागी जी को अपनी हथेलियाँ दिखा रहे थे। ‘देख लो बड़े भैया, घट्टे पड़ गये।’
त्यागी जी बोले, ‘फिकर मत करो। घर पहुँचोगे तो फिर मुलायम हो जाएँगे। अभी से रोओगे तो पंद्रह दिन में तो तुम पसर जाओगे।’
सत्संगी जी दाँत निकाल कर कुर्ते की बाँह से माथे का पसीना पोंछने लगे।
दोपहर तक सब लस्त हो गये। त्यागी जी ने भोजन की छुट्टी दी तो सब कमरे में जाकर चित्त पड़ गये। सत्संगी जी बोले, ‘प्रान निकल गये। हाथ उठाया नहीं जाता, खाना कौन खाएगा?’
राष्ट्रबंधु लंबी साँस छोड़कर बोले, ‘त्यागी जी भी तो खोपड़ी पर चढ़े रहते हैं, जैसे ट्रेन निकली जा रही हो। आदमी थोड़ा सुस्ता सुस्ता के काम करे तो इत्ता नहीं अखरे।’
जैसे तैसे काँखते कराहते भोजन हुआ, फिर सब अपने-अपने हाथ के घट्टे देखते सो गये।
शाम को जनसंपर्क और गाँव के लोगों से वार्तालाप हुआ। उसके बाद प्रौढ़ शिक्षा की तैयारी हुई। दुलीचन्द बोले, ‘प्रौढ़ शिक्षा के लिए किसे लायें? सब तो काम में लगे हैं। वही दो चार बूढ़े टेढ़े मिलेंगे।’
त्यागी जी बोले, ‘बस चार छः बूढ़े टेढ़े दे दो।’ फिर कुछ याद करके बोले, ‘अरे वे पिछली बार वाली दोनों बुढ़ियाँ तो होंगीं?’
दुलीचन्द बोले, ‘रामप्यारी और रामकली? हाँ, वे तो हैं।’
त्यागी जी उत्साह से बोले, ‘उनको जरूर बुलवा लेना। बेचारी बड़ी श्रद्धा से पढ़ती हैं।’
थोड़ी देर में आठ बूढ़े मर्द- औरतें आ गये। त्यागी जी ने खुद पढ़ाया, पूछा, ‘रामप्यारी, पहले का पढ़ाया कुछ याद है?’
रामप्यारी बोली, ‘सब बिसर गया महाराज। घर में पढ़ती तो बाल बच्चे हँसते रहते।’
‘चलो कोई बात नहीं, हम फिर पढ़ा देते हैं। पढ़ोगी न?’
‘काए न पढ़ेंगे महाराज। हमें कामइ का है। जैसे घर में बैठे हैं ऐसइ घंटा भर हियाँ बैठे रहेंगे।’
त्यागी जी पढ़ाते रहे और बूढ़े बुढ़िया श्रद्धा भाव से सिर हिलाते रहे।
त्यागी जी ने सब साथियों को वहीं बैठा लिया था। थोड़ी देर में उन्होंने देखा रामसेवक जी वहाँ से खिसकने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने पूछा, ‘कहाँ चले?’
रामसेवक जी बोले, ‘थोड़ा टहल आएँ।’
त्यागी जी बोले, ‘कहीं टहलने वहलने नहीं जाना। यहीं बैठो।’
रामसेवक जी मुँह फुला कर बैठ गये।
दूसरे दिन सवेरे सवेरे राष्ट्रबंधु को स्कूल के सामने वही युवक दिख गया जिसके दरवाजे पर उन्होंने समाज सेवा की थी। वे त्यागी जी से बोले, ‘इसकी तबियत जरूर ठीक करनी है। इसे देखकर हमारा खून खौल जाता है।’
त्यागी जी डपट कर बोले, ‘तुम यहाँ गड़बड़ करोगे तो हम अभी तुम्हें यहाँ से भगा देंगे।’
राष्ट्रबंधु दाँत भींच कर रह गये।
इसी तरह कूल्हते- काँखते पंद्रह दिन बीत गये। राष्ट्रबंधु कमरे की दीवार पर रोज एक लकीर खींच देते थे और सोते वक्त सत्संगी जी से पूछते थे, ‘हांँ तो दादा, अब कितने दिन बाकी रह गये? ये पंद्रह दिन तो ससुरे पहाड़ हो गये।’
पंद्रहवें दिन त्यागी जी ने जोरदार उत्सव किया। क्षेत्र के विधायक आमंत्रित किए गये। शहर से फोटोग्राफर और समाचार- पत्रों के संवाददाता आये। हाथों में फावड़े लिये पूरी टोली के फोटो खिंचे, भाषण हुए। विधायक महोदय ने त्यागी जी और उनके साथियों के सेवाभाव की भूरि भूरि प्रशंसा की।
समारोह समाप्त होने के बाद ट्रक आ गया। सब सामान लद जाने के बाद समाजसेवक उस पर चढ़ गये। त्यागी जी ने दुलीचन्द को धन्यवाद दिया। गाँववालों की इकट्ठी भीड़ में अपने दुश्मन युवक को देखकर राष्ट्रबंधु ट्रक पर से बोले, ‘बेटा, अभी तो समाजसेवा पखवाड़ा है, इसलिए हम कुछ नहीं बोले। कभी हमारे शहर आना तो हम बताएँगे।’ रामसेवक जी ने उनका मुँह दाब लिया।
ट्रक चल पड़ा और समाजसेवक तालियाँ बजा बजाकर रामधुन गाने लगे। गाँव से बाहर आकर सत्संगी जी बोले, ‘अब बहुत हो गया। बन्द करो रामधुन। कहीं ड्राइवर ने ब्रेक मार दिया तो सबके दाँत टूट जाएँगे।’
और फिर सब आराम से ट्रक के फर्श पर पसरकर बैठ गये।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈