श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “भरतांश”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 189 ☆
🌻 लघुकथा 🙏भरतांश🙏
आज त्रेता युग बीते बरसों हो गए हैं। परंतु राम भरत मिलाप की कथा जहाँ भी होती है। सभी के मन को भाव विभोर कर देता है।
द्वेष, अहंकार, घृणा, जलन, बिना वजह बुराई सब अवगुण आदमी के बहुत जल्दी उजागर होते हैं। परन्तु ममता, करुणा, दया, प्रेम, सहानुभूति, क्षमा, श्रद्धा, आदि सभी गुण मानव उभरने नहीं देता।
रथी और देव का विवाह बड़े ही धूमधाम और पारिवारिक माहौल में संपन्न हुआ। कहते हैं परिवार में सभी सदस्यों को खुश नहीं रखा जा सकता। कहीं ना कहीं चूक हो ही जाती है और यदि नहीं हुआ तो समझो उस विवाह का प्रचार जोर-शोर से नहीं होता।
रथी के भैया राघव ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ा था। अपनी बहन के विवाह की तैयारी में।
विवाह बहुत ही सुंदर और सादगी से संपन्न हुआ, परंतु किसी बात से असंतुष्ट रथी का पति ‘देव’ अपने ससुराल से इस कदर नफरत करने लगा कि उसने रथी का आना – जाना, बात-चीत और यहाँ तक के की राखी के पवित्र बंधन को भेजने से भी मना कर दिया।
समय बिता गया। राघव भी अपने आप में खुद्दार था। घर परिवार के लिए कहीं ना कहीं से रथी की सलामती का पता लगा लेता था, परंतु कभी कोई संबंध नहीं रखा। ताकि उसकी बहन सुखी रह सके ।
आज एक भागवत कथा पारिवारिक माहौल में संपन्न हो रहा था। सभी परिजन सुनने पहुंचे थे।ऊँचे आसन पर विराजमान पंडित आचार्य जी, भगवान ठाकुर जी की मूर्ति और भव्य पंडाल।
कथा चल रही थी… भगवान राम और भरत के मिलन की। कथा को पंडित जी ने ऐसा शमां बांध रखा था कि सभी नर नारी भाव- विभोर हो उनकी कथा श्रवण कर रहे थे।
रथी ने देखा की भैया तो कभी आगे बढ़कर कोई बात नहीं करेंगे और देव उसे कभी करने नहीं देगा। आज उसके मन में अजीब सा सवाल और भरत मिलाप की कथा का अंश हृदय में हिलोरे ले रहा था।
भरत मिलाप की कथा सुनाते पंडित जी स्वयं रो रहे थे और सारा पंडाल आँसुओं से तरबतर था।
इतनी भावपूर्ण कथा सभी शांति पूर्वक बैठे सुन रहे थे। अचानक रथी सामने से उठकर पीछे अपने भैया की ओर “भैयायययययययया” कहते हुए दौड़ पड़ी।
आँसुओं की धार से वह डूबी दौड़कर अपने भैया राघव के गले से जा लिपटी। राघव शुन्य सा ताकता रहा। कुछ बात नहीं कर पाया और कुछ बात बिगड़ न जाए। चुपचाप खड़ा रहा।
आस-पास सभी रिश्तेदारों, परिवार वालों ने रथी के इस काम को अपने-अपने तरीके से बोलना सुनना आरंभ कर दिया। परंतु रथी और राघव समझ रहे थे कि बरसों का प्यार आज भरत- मिलाप की कथा सुनकर उमड़ पड़ा। कितना भी मनुष्य कठोर क्यों न हो उसे भी पिघला देता है।
दूर खड़े देव ने देखा भाई – बहन का प्यार निश्चल। बिना कसूर के वह उसे सजा दे रहा था। कई वर्षों बाद आज उसे राम – भरत मिलाप लगने लगा।
राघव ने दूर से देखा दोनों बाहें फैला दिया। चुपचाप देव आकर उसमें समा गया। बाकी चारों तरफ पुष्प वर्षा हो रही थी। कुछ अपने इसका फायदा लेते रथी देव और राघव पर भी पुष्प वर्षा कर आनंद मना रहे थे।
आज भी मानव के मन में भरत जैसा ही करुणा प्रेम का अंश छुपा है। बस उसे समझने की जरूरत है।
बड़े बूढ़े अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक बात करने लगे। पंडित जी ने भी जयकारा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।
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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈