(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक आलेख – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब ।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 278 ☆
आलेख – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब
अच्छे से अच्छे गीतकार के शब्द तब तक बेमानी होते हैं जब तक उन्हें कोई संगीतकार मर्म स्पर्शी संगीत नही दे देता और जब तक कोई गायक उन्हें अपने गायन से श्रोता के कानो से होते हुये उसके हृदय में नही उतार देता. फिल्म बैजू बावरा का एक भजन है मन तड़पत हरि दर्शन को आज, इस अमर गीत के संगीतकार नौशाद और गीतकार शकील बदायूंनी हैं, इस गीत के गायक मो रफी हैं.रफी साहब की बोलचाल की भाषा पंजाबी और उर्दू थी, अतः इस भजन के तत्सम शब्दो का सही उच्चारण वे सही सही नही कर पा रहे थे. नौशाद साहब ने बनारस से संस्कृत के एक विद्वान को बुलाया, ताकि उच्चारण शुद्ध हो. रफी साहब ने समर्पित होकर पूरी तन्मयता से हर शब्द को अपने जेहन में उतर जाने तक रियाज किया और अंततोगत्वा यह भजन ऐसा तैयार हुआ कि आज भी मंदिरों में उसके सुर गूंजते हैं, और सीधे लोगो के हृदय को स्पंदित कर देते हैं.
मोहम्मद रफ़ी जी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को हुआ था. उन्होने अपनी गायकी की बारीकियो से हिन्दी सिनेमा के श्रेष्ठतम पार्श्व गायकों में अपना स्थान युगो युगो के लिये सुरक्षित कर लिया. एल पी, एस पी, कैसेट, सीडी, डी वी डी से पेन ड्राईव का डीजिटल सफर बदलता रहेगा पर रफी हर युग में अपनी आवाज के कारण अमर रहेंगे. उनके समकालीन गायकों के बीच रफी साहब आवाज की मधुरता से विशिष्ट पहचान बना सके. उन्हें शहंशाह-ए-तरन्नुम भी कहा जाने लगा. 1940 के दशक में रफी मात्र अठारह बीस बरस के थे, पर तब से ही वे व्यवसायिक गायक के रूप में पहचान बनाने लगे थे, 1980 में 31 जुलाई को वे हमें छोड़ गये पर इन लगभग ४० वर्षो की गायकी के सफर में उन्होने 26,000 से अधिक गाने गाए. जिनमें मुख्यतः हिन्दी फिल्मी गानों के अतिरिक्त ग़ज़ल, मेरे मन में हैं राम मेरे तन में हैं राम, सुख के सब साथी दुख में न कोई, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, बड़ी देर भई नंदलाला जैसे भजन,सूफी,सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी..जैसे देशभक्ति गीत, नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है, जैसे बाल गीत, क़व्वाली तथा अन्य भाषाओं में गाए गाने भी शामिल हैं. उन्होने गुरु दत्त, दिलीप कुमार, देव आनंद, भारत भूषण, जॉनी वॉकर, जॉय मुखर्जी, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र तथा ऋषि कपूर के अलावे स्वयं गायक अभिनेता किशोर कुमार के लिये भी फिल्मी पर्दे पर अपनी रोमांचक आवाज दी.
कभी कभी किस तरह छोटी सी घटना जीवन में बड़ा मोड़ ले आती है यह मोहम्मद रफ़ी के पहले स्टेज प्रोग्राम से समझ आता है. उनका जन्म अमृतसर, के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुआ था। उनके बचपन में ही उनका परिवार लाहौर से अमृतसर आ गया. जब रफी मात्र सात साल के थे तो वे अपने बड़े भाई की नाई की दुकान में बैठा करते थे. उधर से रोज गुजरने वाला एक फकीर मधुर स्वर में गाता हुआ निकलता था. नन्हे रफी उस फकीर का पीछा किया करते और उसके जैसा ही गाने का प्रयत्न करते.शायद वह अनाम फकीर ही उनका प्रथम संगीत गुरू था. उनकी गायकी की नकल के स्वर भी लोगों को पसन्द आते. लोग नन्हें से रफी के गाने की प्रसंशा करने लगे. रफी के बड़े भाई मोहम्मद हमीद ने संगीत के प्रति उनकी रुचि को देख उन्हें उस्ताद अब्दुल वाहिद खान के पास संगीत शिक्षा लेने को भेजा और इस तरह रफी को विधिवत संगीत की कुछ तालीम मिली. एक बार ऑल इंडिया रेडियो लाहौर में उस समय के प्रख्यात गायक व अभिनेता कुन्दन लाल सहगल कार्यक्रम देने आए थे, श्रोताओ में रफ़ी और उनके बड़े भाई भी थे. अचानक बिजली गुल हो गई, जिससे श्रोता बेचैन होने लगे,रफ़ी के बड़े भाई ने आयोजकों से निवेदन किया की भीड़ को शांत करने के लिए मोहम्मद रफ़ी को गाने का मौका दिया जाय, उनको अनुमति मिल गई और बिना बिजली बिना माईक 13 वर्ष की आयु में मोहम्मद रफ़ी का यह पहला सार्वजनिक गायन था. उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार श्याम सुन्दर भी वहां उपस्थित थे उन्होने जब नन्हें रफी को सुना तो उन्होने रफी की आवाज के हुनर को पहचाना, और उन्होने मोहम्मद रफ़ी को गाने का न्यौता दिया. इस तरह मोहम्मद रफ़ी का प्रथम गीत एक पंजाबी फ़िल्म गुल बलोच के लिए रिकार्ड हुआ था जिसे उन्होने श्याम सुंदर के निर्देशन में 1944 में गाया था. मुम्बई तब भी फिल्म नगरी थी, देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, ऐसे समय में युवा रफी ने फिल्मो में पार्श्व गायन को व्यवसाय के रूप में अपनाने का फैसला लिया और 1946 में वे बम्बई आ गये. जाति के आधार पर पाकिस्तान बनने के बाद भी उन्होने भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ही चुना. उन्होने जाने कितने हृदय स्पर्शी भजनो को स्वर देकर यह बता दिया कि भावना, स्वर और संगीत धर्म की सीमाओ से परे नैसर्गिक वृत्तियां हैं.
संगीतकार नौशाद जी ने “पहले आप” नाम की फ़िल्म में उन्हें गाने का अवसर दिया. और उनका फिल्मो में गायन का सफर चल निकला. नौशाद द्वारा संगीत बद्ध गीत तेरा खिलौना टूटा, फ़िल्म अनमोल घड़ी, 1946 से रफ़ी को हिन्दी फिल्म जगत में प्रसिद्धि मिली. इसके बाद शहीद, मेला तथा दुलारी फिल्मो में भी रफ़ी ने गाने गाए जो पसंद किये गये. 1951 में जब नौशाद फ़िल्म बैजू बावरा के लिए गाने बना रहे थे तो उन्होने तलत महमूद के स्वर में रिकार्डिंग करने की सोचा पर कहा जाता है कि नौशाद जी ने एक बार तलत महमूद को धूम्रपान करते देखकर अपना मन बदल लिया और रफ़ी से ही गाने को कहा. बैजू बावरा के गानों ने रफ़ी को मुख्यधारा गायक के रूप में स्थापित कर दिया. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी को अपने निर्देशन में लगातार कई गीत गाने को दिए. शंकर-जयकिशन की जोड़ी को भी उनकी आवाज पसंद आयी और उन्होंने भी रफ़ी से गाने गवाना आरंभ कर दिया। शंकर जयकिशन उस समय राज कपूर के पसंदीदा संगीतकार थे, पर राज कपूर अपने लिए सिर्फ मुकेश की आवाज पसन्द करते थे किन्तु शंकर जयकिशन की सिफारिश पर रफी साहब की आवाज पर भी राजकपूर ने अभिनय किया. शंकर जयकिशन की जोड़ी ने उनके कम्पोज किये गये लगभग सभी गानो के पुरुष स्वर के लिये रफ़ी साहब को ही मौका दिया. अपनी आवाज के बल पर रफ़ी साहब संगीतकार सचिन देव बर्मन, ओ पी नैय्यर,रवि, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, सलिल चौधरी इत्यादि संगीतकारों की पहली पसंद बन गए.
31 जुलाई 1980 को जब अचानक हृदयगति रुक जाने के कारण उनका देहान्त हुआ तो उनके गीतो से जागने और सोने वाले उनके प्रसंशको के लिये इस सत्य को स्वीकार करना बेहद दुष्कर था. उनकी असाधारण संगीत साधना के लिये उन्हें भारत सरकार से पद्मश्री सहित, अनेक बार फिल्मफेयर अवार्ड आदि अनेकानेक सम्मान समय समय पर मिले. इन सम्मानो को प्रदान कर स्वयं सम्मान देने वाले ही उनसे सम्मानित हुये क्योकि रफी साहब का वास्तविक सम्मान तो यह ही है कि उनके इस दुनिया से बिदा हो जाने के वर्षो बाद भी हम उन्हें भुला नही सकते. वे धार्मिक नही मानवीय मूल्यो के प्रतीक थे.वे सहज सरल और अपने कार्य के प्रति समर्पित अनुकरणीय व्यक्तित्व थे. वे संगीत के पुजारी मात्र नही उसके प्रतिष्ठाता थे.
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© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार
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