सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 8 – संस्मरण#2
दिल्ली में पूसा कॉलोनी में अपने बचपन का कुछ हिस्सा हमने बिताया था। सब परिचित थे। कई परिवारों के साथ रोज़ाना उठना – बैठना था। सभी आई.ए.आर. आई. में कर्मरत थे। अधिकतर रिसर्च साइंटिस्ट थे।
वे बाबा -माँ के दोस्त हमारे काका काकी या जेठू -जेठी थे। बँगला भाषा में जेठू पिता के बड़े भाई और जेठिमा उनकी पत्नी कहलाती हैं।
उनके बड़े बच्चे हमारे दादा और दीदी हुआ करते थे।
सबके घर आँगन एक दूसरे से सटे हुए थे। सरकारी एक मंज़िला मकान थे। एक विशाल मैदान के तीनों तरफ सारे मकान अर्ध गोलाई में बने हुए थे। सामने मुख्य सड़क और कॉलोनी को अलग करती हुई पीले फूलों की झाड़ी वाली हेज लगी हुई थी। बीच की खुली जगह बच्चों के खेलने का मैदान था।
गर्मी के मौसम में घर के पीछे वाले बगीचे में बैठते तो पड़ोस की दीदी सिर में तेल लगाकर देतीं। आँगन में बैठकर माँ – मासियाँ, काकी चाची जेठियाँ उड़द दाल पीसकर बड़ियाँ बनातीं। शीतकाल में स्वेटर बुनतीं। पुरानी सूती साड़ियों की थिगली या पैबंध लगाकर गुदड़ियाँ सिलतीं।
कॉलोनी के सारे दादा मोहल्ले के पेड़ों पर लगे कच्चे आम काटकर नमक के साथ हम बच्चों को खिलाते, दीदी पके काम काटकर सब बच्चों में फाँकिया बाँटतीं। फालसा का, जामुन का, लीची का सब मिलकर स्वाद लेते।
ठंड के दिनों में दृश्य वही रहता पर वस्तुएँ बदल जातीं। संतरे छीलकर फाँकियाँ सबमें बाँटी जातीं। कच्चे -पके अमरूद मिलते। रेवड़ियाँ, भूनी मूँगफलियाँ, भुर्रे गजख का स्वाद मिलता। हरे चने जिसे बूट कहते हैं, उसे सब बच्चे मिलकर छील-छीलकर खाते। पके बेर मिलते।
जीवन सरल और सरस था। स्व की भावना पूर्ण रूप से लुप्त थी। जिसके घर में जो आता वह अपने पड़ोस के बच्चों के साथ बाँटकर ही खाता। कभी नापकर न किसी के घर सब्ज़ियाँ बनाई जाती थीं न गिनकर रोटियाँ। किसके बच्चे दिन के समय खेलते हुए किसके घर खाकर सो जाते इसका पता ही न रहता।
ठंड के दिनों में मुहल्ले की घास पर लाल रंग के खूबसूरत मखमली कीड़े दिखाई देते थे। इन्हें इंद्रवधू, बीरबहूटी या बूढ़ी माई के नाम से भी जाना जाता है। हम बच्चे उन कीड़ों को हाथ से पकड़कर दियासलाई की डिबिया में बंद करके रखते थे। कभी किसी ने टोका नहीं, रोका नहीं और हम हत्यारे बनकर उन निर्दोष निरीह कीड़ों को डिबिया में पकड़कर बंद कर देते। उनके शरीर का ऊपरी हिस्सा लाल मखमली होता और हमें उन्हें छूने में आनंद आता। कई डिब्बे जमा हो जाते और प्राणवायु के अभाव में वे कब मर जाते हमें पता ही न चलता। हम उन्हें घर के पिछवाड़े गड्ढा खोदकर एक साथ गाड़ देते। पता नहीं क्यों उस वक्त संवेदनाएँ इतनी तीव्र क्यों नहीं थी।
आज हमारा जीवन उसी दियासलाई के बक्से में बंद प्राणवायु के अभाव में घुटते मखमली कीड़ों की तरह ही है। हम सुंदर सजीले घर में रहते हैं। पर हमारे घर अब पड़ोसी नहीं आते।
हम गिनकर फुलके पकाते हैं अब किसी के बच्चे हमारे घर भोजन खाकर सोने नहीं आते।
हर मौसम में कई फल घर लाते हैं पर किसी के साथ साझा कर खाने की वृत्ति समाप्त हो गई।
रेवड़ियाँ, गजख, गुड़धनी, अचार, पापड़ बड़ियाँ सब ऊँचे दाम देकर ऑनलाइन मँगवाते हैं। अब किसीके साथ बाँटने का मन धन और कीमत के साथ जुड़ गया।
आजकल लोगों के पास सब कुछ है बड़े घर, नौकर चाकर, गाड़ी सुख -सुविधाएँ बस लुप्त हो गया अगर कुछ तो वह है साझा करने की वृत्ति। अब सब कुछ स्व में सिमटकर रह गया।
बच्चों के लिए कई बार माता-पिता भी पराए हो जाते हैं। मैं और मेरे बच्चों के बाहर की दुनिया से अब खास कोई परिचय नहीं न सरोकार है।
आज की पीढ़ी इकलौती संतान वाली पीढ़ी है फिर उन्हें किसीके साथ बाँटकर खाने या देने की वृत्ति कहाँ से आएगी!
हर समय मित्रों का वह जो आना- जाना था सो कम हुआ फिर धीरे -धीरे बंद हुआ। मोबाइल फोन ने हमारी गतिविधियों को इममोबाइल कर दिया। संतानें घर से दूर हो गईं। एक शहर में रहकर भी उनका आना – जाना न के बराबर ही है।
और हमारी पीढ़ी ? वह तो मखमली कीड़ों को पकड़ने और प्राणवायु के अभाव में मारने की सज़ा भुगत रही है। ब्रह्माण्ड से परे कुछ नहीं है। समय लौटकर आता है। सबक सिखाता है और करनी का फल देता है। हम केवल सुखद स्मृतियों को, अपने अतीत को निरंतर वर्तमान बनाकर जीवित रहने का प्रयास करते चल रहे हैं। ईश्वर की असीम कृपा ही समझे कि हमारे पास स्मृतियों की सुखद संपदा है वरना जीवन का यह अंतिम पड़ाव कितना कष्टप्रद हो उठता।
© सुश्री ऋता सिंह
20/12/23, 2.30am
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