डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी कहानी – एक कमज़ोर आदमी की कहानी। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 240 ☆

☆ कहानी – एक कमज़ोर आदमी की कहानी

उमाकान्त निश्चिंतता ओढ़े हुए ट्रेन के डिब्बे में सवार हो गये, लेकिन बेटे के चेहरे पर  उद्विग्नता साफ दिखती थी। पिता की अटैची उनकी सीट के ऊपर सामान रखने वाली जगह में जमा कर रविकान्त बोला, ‘पापा आप सुनते नहीं हैं। मैं एक दिन की छुट्टी लेकर चला चलता। कौन सी मुसीबत आने वाली थी?’

उमाकान्त हँसकर बोले, ‘यहाँ से बैठकर सीधे हबीबगंज में उतर जाना है। कौन कहीं गाड़ी बदलना है या जर्नी ब्रेक करना है। मेरे साथ जाते और तुरन्त लौटते। व्यर्थ की भागदौड़। मैं आराम से चला जाऊँगा। वहाँ तो कोई न कोई लेने आएगा। पहुँचते ही फोन करूँगा।’

रविकान्त चुप हो गया।

उमाकान्त व्यवस्थित हो कर बैठ गये। यह इंटर-सिटी गाड़ी थी, यानी सिर्फ बैठने की व्यवस्था। दूरी भी तो ज़्यादा नहीं थी, लगभग साढ़े छः घंटे की। उन्हें खिड़की के पास वाली सीट मिल गयी थी। बगल में एक सज्जन थे और उनकी प्यारी सी आठ दस साल की बच्ची। बातचीत से मालूम हुआ उन्हें भी हबीबगंज जाना था।

उमाकान्त अब बहुत कम शहर से बाहर निकलते थे। दो साल पहले पत्नी की मृत्यु के बाद वे पूरी तरह हिल गये थे। मृत्यु का एकदम निर्मम रूप सामने आ गया था। उमाकान्त को लगा जैसे ज़िन्दगी का खेल खेलते खेलते वे अचानक दर्शक-दीर्घा में आ गये हों। ज़िन्दगी की गतिविधियों से जी उचट गया था। बस रस्म- अदायगी रह गयी थी।

अब अकेले रहने या कहीं अकेले जाने पर उन्हें अवसाद और व्यर्थता-बोध घेरने लगता था। अकेले सफर करने पर अचानक भय और बेचैनी का अनुभव होता। उन्हें लगता उन्हें कुछ हो जाएगा और उनके परिवार वालों को पता भी नहीं लगेगा। वे बेचैनी में किसी परिचित चेहरे को ढूँढ़ने लगते जिसकी मदद से वे अपने भय से उबर सकें।

उमाकान्त सुशिक्षित व्यक्ति थे। वे जानते थे कि ये सब भावनाएं आधारहीन हैं, लेकिन उनके उभरने पर उनका कोई वश नहीं चलता था। वे अपने मन में चलती ऊहापोह के दृष्टा मात्र बन कर रह जाते थे। अचानक नकारात्मक विचारों का रेला आता और वे मन पर नियंत्रण खोकर बदहवास होने लगते।

फिलहाल उनके सफर की वजह यह थी कि भोपाल में, उनके सहकर्मी रहे मेहता जी की नातिन की शादी थी और मेहता जी ने अनेक बार फोन करके उन्हें बता दिया था कि उनकी चरन- धूल पड़े बिना कार्यक्रम अधूरा माना जाएगा। मेहता जी उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे और ‘दादा’ कह कर संबोधित करते थे। उमाकान्त मेहता जी को समझाने में असफल रहे थे कि अब वे अपनी चरन-धूल घर की चौहद्दी में गिराना ही पसन्द करते हैं, सफर अब उनके लिए छोटी-मोटी त्रासदी होता है।

ट्रेन चल पड़ी और रविकान्त दूर तक चिन्तित आँखों से उनकी तरफ देखता रहा। उमाकान्त अब अपने को सँभालने में लग गये। वे उस भय और अवसाद को काबू में रखना चाहते थे जो अकेले में उन्हें घेरता था। वह कब अचानक मन के किसी कोने से उठकर उन्हें जकड़ने लगेगा, यह जानना उनके लिए संभव नहीं था। ऐसे मौकों पर वे कोशिश में रहते थे कि आसपास के लोगों पर उनकी कमज़ोरी ज़ाहिर न हो।

उनकी बगल में बैठी बालिका अपने पिता से बातें करने में मशगूल थी। बहुत चंचल और बातूनी लगती थी। वह लगातार पिता से कुछ सवाल किये जा रही थी। पिता शान्त स्वभाव के दिखते थे। वे धीमी आवाज़ में उसके सवालों के जवाब दे रहे थे। ज़ाहिर था कि बेटी पिता की लाड़ली थी।

अचानक लड़की उमाकान्त से बोली, ‘दादा जी, मैं खिड़की वाली सीट पर आ जाऊँ? मुझे वहाँ अच्छा लगेगा।’

उमाकान्त तुरन्त राज़ी हो गये। अब लड़की के पिता बीच में थे और वे कोने में। उमाकान्त बेटियों को बहुत प्यार करते थे, विशेषकर चौदह-पन्द्रह साल तक की। अल्हड़, बेफिक्र और बिन्दास। उनकी कॉलोनी में जब इसी उम्र की लड़कियाँ शाम को साइकिलें लेकर हँसते, बातें करते चक्कर लगातीं तब उन्हें लगता जैसे चिड़ियों का चहचहाता झुंड कॉलोनी में उड़ान भर रहा हो। सोयी हुई कॉलोनी जैसे जाग जाती।

लड़की के हाथ में मोबाइल था, जो शायद पिता का था। बीच बीच में वह सिर झुका कर उस पर उँगलियाँ फेरने लगती।

चार घंटे बाद गाड़ी इटारसी स्टेशन पर रुकी। लड़की के पिता उठे, बोले, ‘पानी लेकर आता हूँ। गरम हो गया है।’

लड़की बोली, ‘मेरे लिए चिप्स और चॉकलेट आइसक्रीम का कोन लाना।’

पिता ‘देखता हूंँ’ कह कर उतर गये। थोड़ी दूर तक दिखायी पड़े, फिर भीड़ में ओझल हो गये। लड़की मोबाइल से खेल रही थी।

थोड़ी देर बाद अचानक गाड़ी चल पड़ी। लड़की के पिता अभी लौटे नहीं थे। लड़की का ध्यान उधर गया। वह खिड़की में मुँह डालकर ‘पापा, पापा’ चिल्लाने लगी। गाड़ी ने गति पकड़ ली लेकिन लड़की के पिता नहीं लौटे। लड़की ने उमाकान्त की तरफ चेहरा घुमाया। उसका चेहरा भय से विकृत और आँखों में आँसू थे। वह फिर चिल्लायी, ‘पापा’।

उमाकान्त के मन में सुगबुगाता अपना भय और अवसाद कहीं दुबक गया। वे लड़की की हालत देखकर परेशान हो गये। उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘रो मत। किसी दूसरे डिब्बे में चढ़ गये होंगे। अभी आ जाएँगे। ऐसा हो जाता है।’

काफी देर हो गयी, लेकिन लड़की के पिता का कहीं पता नहीं था। लड़की लगातार रोये जा रही थी। अचानक लड़की के मोबाइल पर फोन आया। पिता बोल रहे थे। वे उसके लिए आइसक्रीम ढूँढ़ते  प्लेटफार्म पर छूट गये थे। वैसे भी उनमें वह फुर्ती नहीं दिखती थी जो ऐसे मौकों पर ज़रूरी हो जाती है।

पिता ने बेटी को बताया कि उन्होंने भोपाल फोन कर दिया था, उसकी माँ समय से स्टेशन पहुँच जाएगी। घबराने की कोई बात नहीं है।

उमाकान्त ने लड़की के हाथ से फोन ले लिया। पिता से कहा कि वे बिल्कुल चिन्ता न करें। वे भोपाल तक उनकी बेटी की देखभाल करेंगे। अलबत्ता उसे लेने के लिए कोई स्टेशन ज़रूर पहुँच जाए।

पिता से बात खत्म होते ही माँ का फोन आ गया। वे खासी घबरायी थीं। बेटी की कुशलक्षेम पूछने के बाद वे उसे बार-बार ढाढ़स बँधाती रहीं। साथ ही यह आश्वासन भी कि वे स्टेशन ज़रूर पहुँच जाएँगीं। लड़की ने उन्हें भी बताया कि बगल वाली सीट के दादा जी उसकी देखभाल कर रहे हैं।

थोड़ी देर में डिब्बे का टी.टी. ई. भी लड़की का हालचाल लेने आ गया। उसके पास इटारसी से स्टेशन मास्टर का फोन आया था कि हबीबगंज तक लड़की की देखभाल करता रहे और उसे वहाँ परिवार वालों को सौंप दे।

लड़की अब काफी शान्त हो गयी थी। उसका भय लगभग खत्म हो गया था। उमाकान्त को भी अभी तक अपने भय को जगह देने की फुरसत नहीं मिली थी।

वे अब लड़की को बहलाने में लग गये। उन्होंने उसे बताया कि कैसे जब वे कई साल पहले वैष्णो देवी गये थे तब जम्मू में उस वक्त ट्रेन चल दी थी जब वे बुक-स्टॉल पर पत्रिकाएँ देख रहे थे। तब उन्होंने दौड़ कर ट्रेन पकड़ी थी, और उस वक्त उनके हाथ में जो झटका लगा उसका दर्द कई दिन तक रहा। उन्होंने पूरे अभिनय के साथ लड़की को यह कहानी सुनायी। उसे बताया कि अब भी उस घटना को याद करके वे सिहर उठते हैं। लड़की उनकी बातों को रुचि लेकर सुनती रही।

उमाकान्त के पास बिस्कुट थे। इसरार करके उन्होंने लड़की को खिलाये। फिर उसे व्यस्त रखने के लिए उसके परिवार के बारे में पूछते रहे। उसके दो भाइयों, स्कूल, क्लास, सहेलियों, पसन्द-नापसन्द के बारे में तफसील से जानकारी ली। उनकी पूरी कोशिश रही कि लड़की को अपने अकेलेपन का एहसास न हो।

राम राम करते गाड़ी हबीबगंज पहुँच गयी। रात के करीब साढ़े दस बज गये थे। गाड़ी यहीं खत्म होती थी। लड़की व्यग्रता से खिड़की से बाहर झाँकने लगी। तभी भीड़ के बीच से एक महिला दौड़ती हुई आती दिखायी पड़ी। वह चिन्ता से बदहवास थी। खिड़की के पास आकर ‘गीता,गीता’ पुकारने लगी। लड़की भी खड़ी होकर ‘मम्मी, मम्मी’ पुकार रही थी। माँ ने उसे देख लिया था।

उमाकान्त ने लड़की का हाथ पकड़ा और उसे दरवाज़े तक पहुँचा दिया। पीछे पीछे टी.टी.ई. भी आया। वह माँ-बेटी को दफ्तर में ले जाकर इत्मीनान करेगा कि लड़की सही हाथों में सौंप दी गयी।

माँ बेटी को छाती से चिपका कर आँसू बहा रही थी। लड़की ने उमाकान्त का परिचय माँ से कराया और माँ ने हाथ जोड़कर उन्हें धन्यवाद दिया। उमाकान्त को लेने मेहता जी का बेटा आ गया था। ट्रेन से उतरते उतरते उमाकान्त उस भय और अवसाद को ढूँढ़ने लगे जो इस घटना-चक्र के बीच कहीं गुम हो गया था।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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