श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘प्रेमालाप ‘। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकेंगे. )
☆ प्रेमालाप ☆
प्रेम तू मुझे दोपहर की तपिश देना
भोर का चला जब तू अपने चरम पर होगा
पलटकर नई यात्रा पर आतुर होगा
इनके मध्य का तू क्षण देना
प्रेम तू मुझे अपनी दोपहर देना
प्रेम तू खिलना पुष्प की तरह मेरे भीतर
बीज, पौध, कली के सफ़र से
जब तू प्रफुल्ल हो पुष्प बनेगा
तब खिलकर बिखरने के मध्य का क्षण देना
प्रेम तू अपना सम्पूर्ण देना
प्रेम तू तरंगित होना सस्वर मुझमें
सप्तसुरों से कई राग छेड़ना
बस सा से सा के बीच आलाप में
तू पंचम का स्वर बने रहना
प्रेम तू पावस – पूरित – पुकार देना
प्रेम, अबकी जब पूस की रात में
हल्कू संग जबरा ठंड में कातर
घुटना छाती से चिपकाये डटे होंगे
तब मैं दोपहर की तपिश बन
पंचम स्वर से जाडा साधुगी
खड़ी फसल का गीत गाऊँगी
समर्पित हो जाऊँगी
प्रेम, तब भी तू होना मेरे संग
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र