सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 11 – संस्मरण # 5 – ऋण और ऋणी ?

नारायण अल्प शिक्षित था। गाँव में कोई खास काम ना मिलने के कारण और अपनी खेती बाड़ी भी ना होने के कारण उसने अपनी बेटियों को लेकर शहर आ जाना ही उचित समझा। शहर में भी कोई बहुत बड़ा रोज़गार तो नहीं मिला था, हाँ एक छोटे से दफ़्तर में चपरासी का ही काम करता था जिससे राज़ी रोटी चल जाती थी।

समय के साथ- साथ थोड़ा बहुत धन भी उसने जुटा लिए थे। आखिर बड़े परिवार को पालने और बेटियों को पढ़ाने -लिखाने के लिए एक ऑटो रिक्शा खरीदी।ऑटो रिक्शा के कारण अच्छी ख़ासी जीविका की व्यवस्था हो गई। स्थायी आय पाने के लिए उसने अपनी रिक्शा में दोनों तरफ़ दरवाज़े लगा लिए और स्कूल के बच्चों को लाने – छोड़ने का काम करने लगा। उन दिनों अपने शहर का संभवतः वह पहला व्यक्ति था जिसकी रिक्शा में सुरक्षा हेतु दरवाज़े थे।

मृदुभाषी और सज्जन व्यक्ति होने के कारण अभिभावक भी उसका सम्मान करते थे और जब कभी आवश्यकता महसूस होती तो यहाँ -वहाँ जाने के लिए उसे ही बुला लेते थे।यह उसके लिए ऊपरी आय भी हो जाती थी।

नारायण की बच्चियाँ स्कूल में पढ़ने लगीं जीवन अपनी गति से चलने लगा। नारायण ईमानदार, कठोर परिश्रमी और सत्यवादी था जिस कारण आस-पड़ोस के लोग उससे स्नेह करते थे और सम्मान भी।

लड़कियाँ पढ़-लिख गईं। समय और उम्र के अनुसार अपनी ससुराल चली गईं।जो जमा पूँजी थी, पत्नी के जेवर थे सबकुछ देकर बच्चियों की शादी की।

कहते हैं न मुसीबत कभी बताकर नहीं आती! बस यही कहावत नारायण के विषय में उचित सिद्ध हुई। इधर हाथ खाली हुए और उधर कोरोना काल आ धमका।

सब कुछ ठप्प पड़ गया।स्कूल बंद हो गए, सड़कें सूनी हो गईं।लोगों ने घर से निकलना बंद कर दिया।रिक्शा अपनी जगह चुपचाप खड़ी रही।

समय बीतता गया, छह माह बीत गए न स्कूल खुले न रोज़गार ही प्रारंभ हुआ ! नारायण और उनकी पत्नी के लिए रोटी के लाले पड़ गए। जैसे -तैसे प्याज़, अचार से रोटी खाकर कुछ समय काट लिए।

एक दिन किसी कारणवश एक अभिभावक ने नारायण से कहा कि उन्हें कहीं जाना है तो वह आ जाए। नारायण समय पर पहुँचा और उनसे निवेदन किया कि रिक्शा में वे पेट्रोल डलवा दें। बातों ही बातों में अभिभावक को उसकी दरिद्रता की छवि दिखाई दी।

घर लौटकर उसे दो मिनिट रुकने के लिए कहा और बिना कुछ कहे वे अपनी बिल्डिंग के ऊपर चले गए। लौटकर आए तो नारायण के हाथ में एक चेक थमा दिया बोले- जब तक सब कुछ सामान्य न हो इससे तुम्हारा गुज़ारा संभवतः चल जाएगा। लाख मना करने पर भी

वे न मानें तो नारायण उनके हाथों को माथे से लगाकर चूमते हुए आँखों से बहते कृतज्ञता व्यक्त करते हुए वहाँ से उसने विदा ली।

साल बीत गया।स्कूल अब भी न खुले थे पर हाँ रिक्शा सड़क पर निकल तो आई थी। दो वक्त की रोटी जुटाने लायक व्यवस्था हो रही थी।

नारायण की पत्नी मितभाषी और धर्म-परायण महिला थीं। जब और जितना बोलती थी वह बातें मार्गदर्शन के लिए योग्य होती थीं।

एक दिन वह अपने पति से बोली –

आहो, साहेब के पैसे लौटा दीजिए।

– कैसे ?

– रिक्शा बेच दीजिए …..

– और हम दोनों खाएँगे क्या?

– मैं लोगों के घर भोजन पकाने का काम कर लूँगी और आप भी कहीं किसी दुकान में काम देख लेना ….

– पागल हो गई हो क्या? इस उम्र में तुम बाहर जाकर काम करोगी ?

– क्या आपको इस ऋण को चुकाने के लिए एक और जन्म लेने की इच्छा है? उऋण होकर मरेंगे हम तो मन को शांति मिलेगी न!

नारायण कुछ न बोला, वह पत्नी की बातों की गहराई को समझ रहा था।

नारायण भले ही अल्प शिक्षित हो पर वह इस पचास साल की उम्र में अनुभवी तो था ही।

उसने रिक्शा बेच दी और रकम लेकर साहेब के घर पहुँचा।

– अरे, नारायण आओ आओ, कैसे हो ? बहुत दिनों के बाद आए।बैठो, बैठो!

– साहेब …..ये..उधार चुकाने आया था साहिब।आपकी बड़ी कृपा रही मुझ गरीब पर, पर अब और ऋण का बोझ नहीं ढो सकता।

– पर मैंने तो तुम्हें कभी पैसों के लिए तगादा नहीं दिया! फिर स्कूल भी शुरू नहीं हुए, कहाँ से आए पैसे?

– नारायण ने सिर झुकाकर, धीमी आवाज़ में बोला -साहेब, मैंने रिक्शा बेच दी।साल बीत गया मैं ब्याज तक न दे सका, मुद्दल की क्या कहूँ!

– ठीक है, आ जाते पैसे पर रिक्शा क्यों बेची? रोज़गार का ज़रिया क्या होगा? खाओगे क्या….

– नहीं साहेब, कहीं भी मज़दूरी कर लूँगा पर मैं ऋणी होकर मरना नहीं चाहता। इस जन्म में गरीबी झेल ली, एक और जन्म ऋण चुकाने के बोझ से जन्म नहीं लेना चाहता।इस जन्म का हिसाब इसी जन्म में चुकता हो जाए तो ईश्वर की बड़ी कृपा होगी।।

रुपयों का लिफ़ाफ़ा मेज़ पर रखकर, हाथ जोड़कर नारायण दरवाज़े से धीरे -धीरे बाहर चला गया।

नारायण जहाँ खड़ा था वहाँ की रज साहेब ने अपने माथे से लगा ली बोले- नारायण, तुम केवल नाम के ही नारायण नहीं तुम तो कर्म के भी नारायण हो! तुम आदर्श हो! ईश्वर तुम जैसे लोगों से इस संसार को भर दें तो सारी दुनिया ही बदल जाएगी।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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