सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – खूँटी।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 12 – संस्मरण # 6 – खूँटी
पुराने ज़माने में दीवारों पर या दरवाज़े के पीछे खूँटियाँ लगी होती थीं। इन खूटियों पर कचहरी के कोट, दादाजी की लाठी, चाचाजी का हैट, ताऊजी की छेत्री टँगी रहती थी।
समय के साथ – साथ आधुनिक काल में ये खूटियाँ गायब हो गईं पर जिंदगी तो न जाने समय -समय पर कितने ही प्रकार की खूँटियों से बँधी ही होती है। ये खूँटियाँ न दिखती हैं न कभी हमारा उनकी ओर ध्यान ही जाता है। मगर हम उससे बँधे अवश्य रहते हैं। हर उम्र में ये सुखद अनुभूति दे जाती हैं।
स्त्री हो या पुरुष सभी को अपने जीवन में इन मायाजाल की खूँटियों से बँधना ही पड़ता है।
शैशव में अपनी मर्ज़ी के सब मालिक होते हैं। ज़िद करते ही इर्द-गिर्द उपस्थित सभी लोग व्यस्त से हो जाते हैं। यह जीवन का वह दौर होता है जब शिशु अपनी हर बात रोकर मनवा लेता है। वह घर के सभी सदस्यों के लिए मनोरंजन का केंद्र होता है। लाड़ -प्यार घर के हर कोने से उँडेलकर उसे दिया जाता है।
जब तक बालक -बालिका बन जाते हैं तो रोना कम हो जाता है और अपनी बात मनवाने का तरीका भी बदल लेते हैं। वे अब रूठने की कला सीख जाते हैं। वे अब भी घर के सदस्यों के लिए आकर्षण का केंद्र होते हैं।
किशोरावस्था के आते -आते किशोर -किशोरियों का घर में कम और बाहर अधिक समय व्यतीत होने लगता है। मित्रों और सखियों का एक समूह जुट जाता है। समय व्यतीत करने के लिए मित्र पर्याप्त होते हैं। उनके चर्चे के विषय, हँसी- ठिठोली सब कुछ अलग ही होती हैं। गपशप मारने के लिए सड़क का कट्टा या टपरी सबसे उत्तम स्थान बन जाता है। किसी को किसी के घर जाने की आवश्यकता ही नहीं होती।
हमारे ज़माने में हम साइकिल हाथ में थामे घंटों किसी पुलिया के पास एकत्रित हो जाते थे। आज दृश्य थोड़ा बदला है। किशोर अब मोटर साइकिल रोककर गपशप करते रहते हैं।
किशोरावस्था में घर मात्र भोजन और शयन का स्थान रह जाता है। माँ के साथ दिनचर्या पर थोड़ी बहुत बातचीत हो भी जाए पर कुछ घरों में पिता की व्यस्तता में अपनी संतानों से नियमित बैठकर बातचीत भी कई बार संभव हो ही नहीं पाती है। पिता कॉलेज और ट्यूशन फीस जुटाने का कुछ हद तक ज़रिया मात्र रह जाता है। परिवार है तो घर है, घर है तो संबंध हैं और यही संबंध अदृश्य खूँटी से बँधा रिश्ता होता है। भले ही थोड़ा शिथिल – सा पड़ा होता हुआ दिखाई देता है पर फिर भी सभी बँधे रहते हैं।
अपने मित्रों के सौहार्द में रहनेवाला शायद इस बात का अहसास नहीं कर पाता पर मन के भीतर एक भूख सी अवश्य रह जाती है जिसका अहसास जीवन के चालीसवें पड़ाव तक आते -आते महसूस होने लगता है कि उसे पिता के साथ विशेष समय व्यतीत करने का अवसर न मिला। यह जो थोड़ी दूरी बन जाती है उसे पाटना कई बार कठिन भी हो जाता है। पिता भी बच्चों से बनी दूरी को साठ के आते -आते अनुभव करने लगते हैं। हरेक का अपना व्यक्तित्व, विचारधारा और दृष्टिकोण अनुभव के आधार पर अलग ही होते हैं।
अब समय रफ्तार से दौड़ता है। घर के किशोर युवक बन जाते हैं। अधिकतर निर्णय न जाने कब से वे ही लेने लगते हैं। पिता के कुछ कहने पर यह कहकर चुप करा देते हैं कि
“आप नहीं समझेंगे पापा, आपका समय अलग था। ” यह एक वाक्य समझदार पिता के लिए पर्याप्त होता है और वे कलह, विवाद आदि से बचने के लिए अपने समय में सिमटने लगते हैं।
माता -पिता संतानों के जीवन में हस्तक्षेप करना बंद कर देते हैं और अपने आनंद और वात्सल्य की क्षुधा को तृप्त करने वे नाती-पोते के साथ समय व्यतीत करते हैं।
यह संबंधों की नई खूँटी अवकाश प्राप्त माता -पिता के लिए अलग अनुभव होता है। वे अपने नाती-पोते के साथ एक सुखद सबंध कायम कर जीवन में एक अद्भुत आनंद के भागीदार होते हैं। इस खूँटी में कलह, विवाद मतभेद के लिए कोई स्थान नहीं होता है। उनकी अनंत जिज्ञासाएँ और प्रश्न जीवन के अंतिम पड़ाव में वृद्धजनों को अलौकिक सुख दे जाते हैं।
जीवन के अंत में यही खूँटी सबसे सशक्त और आनंददायी होती है। जीवन परिपूर्ण प्रतीत होने लगता है।
© सुश्री ऋता सिंह
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