डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम एवं हृदयस्पर्शी कहानी – ‘मलबे के मालिक‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 244 ☆
☆ कहानी – मलबे के मालिक ☆
बलराम दादा अब निस्तेज हो गये हैं। दुआरे पर कुर्सी डाले ढीले-ढाले बैठे रहते हैं। चाल-ढाल में पहले जैसी तेज़ी और फुर्ती नहीं रही। चेहरे पर झुर्रियों का मकड़जाल बन गया है। आँखों में भी पहले जैसी चमक नहीं रही। मोटे फ्रेम वाला बेढंगा चश्मा उनकी सूरत को और अटपटा बना देता है।
घर में भी अब पहले जैसी रौनक नहीं रही। आठ दस साल पहले तक यह घर आदमियों के आवागमन और उनकी आवाज़ों से गुलज़ार रहता था। बलराम दादा के पास भी गाँव के दो-चार लोगों की बैठक जमी रहती थी। अब ज़्यादातर वक्त घर में सन्नाटा रहता था। कभी किसी के आने से यह सन्नाटा टूटता है, लेकिन फिर जल्दी ही मौन दुबारा पसर जाता है।
बलराम दादा के पिता ने काफी ज़मीन- ज़ायदाद बनायी थी। वे राजा की सेवा में थे और उन दिनों ज़मीन का कोई मोल नहीं था। बलराम के पिता दूरदर्शी थे, उन्होंने राजा साहब की मेहरबानी और अपनी कोशिशों से काफी ज़मीन हासिल कर ली। दुर्भाग्य से उनकी असमय मृत्यु हो गयी और परिवार की ज़िम्मेदारी छब्बीस साल के बलराम के ऊपर आ गयी।
पिता ने अपने जीते ही बच्चों में ज़मीन का बँटवारा कर दिया था, इसलिए आगे कोई मनमुटाव की संभावना नहीं थी। बच्चों की पढ़ाई के लिए पास के शहर में किराये का मकान ले लिया था जिसमें बलराम के तीन भाई और एक बहन रहते थे। बहन बलराम से छोटी थी। देखभाल के लिए एक सेवक सपत्नीक रख दिया था। बलराम की पढ़ाई में रुचि बारहवीं के बाद खत्म हो गई थी और वे घर पर ही रह कर खेती के कामों में पिता का हाथ बँटाने लगे थे। उनका विवाह भी हो गया था।
पिता की मृत्यु के बाद बलराम चकरघिन्नी हो गये थे। सबेरे से मोटर-साइकिल पर निकलते तो लौटने का कोई ठिकाना न होता। समय से ज़मीनों की जुताई-बुवाई, ज़रूरत पड़ने पर अपने ट्रैक्टर के अलावा और ट्रैक्टरों और दूसरे उपकरणों का इन्तज़ाम, मज़दूरों की व्यवस्था, लोन की किश्तें जमा करने की फिक्र, इन्द्र देवता के समय से कृपालु न होने की चिन्ता— सारे वक्त यही उधेड़बुन लगी रहती। बिजली का कोई ठिकाना न था। आठ-आठ दस-दस घंटे गायब रहती। अचानक रात को दो या तीन बजे आ जाती तो तुरन्त उठकर पंप चलाने के लिए भागना पड़ता। गाँव से हिलना-डुलना भी मुश्किल था। कभी एक-दो दिन के लिए कहीं जाते तो चित्त यहीं धरा रहता। मज़दूरों की बड़ी समस्या थी। अब मज़दूरों को आसपास चल रहे निर्माण कार्यों में अच्छी मज़दूरी मिल जाती है, इसलिए अब वे गाँव में कम मज़दूरी पर काम करने को राज़ी नहीं होते।
समय गुज़रने के साथ बलराम के भाई पढ़-लिख कर काम-धंधे से लग गये। दो की अपने शहर में ही नौकरी लग गयी, जब कि छोटा राजनीति में अपनी पैठ बनाने में लग गया। उसमें शुरू से ही राजनीतिज्ञों के गुण थे। जल्दी ही वह अपने भाइयों के लिए संकटमोचक बन गया क्योंकि आजकल राजनीति से बेहतर कोई कवच नहीं है। तीनों भाइयों और बहन की शादियाँ भी हो गयीं और तीनों भाई शहर में मकान बनाकर स्थापित हो गये। बलराम अब भी अपना चैन हराम करके सबके हिस्से की ज़मीन सँभालने में लगे थे।
बलराम ने भाइयों के लिए बड़े आँगन में अलग-अलग कमरे बना दिये थे। कमरे तो भाइयों के थे, लेकिन उनकी चाबी बलराम की पत्नी के पास रहती थी। घर के मेहमान साझा होते थे। वे किसी के भी कमरे में ठहर जाते थे। गर्मियों में तीनों भाई अपने बच्चों को गाँव भेज देते। तब घर में भयंकर हल्ला-गुल्ला मचता। सब तरफ बच्चों की फौजें दौड़ती फिरतीं। बलराम की पत्नी की व्यस्तता बढ़ जाती। दिन भर बच्चों की फरमाइशें। कहीं चोट न खा जाएँ इसकी फिक्र। शहर के बच्चे गाँव की खुली जगह और चढ़ कर खेलने लायक पेड़ों को देखकर मगन हो जाते। गाँव वाले बलराम के घर में मचती चीख-पुकार को कौतूहल से देखते। बलराम कुर्सी पर बैठे, अपने कुटुंब की बढ़ती बेल को देखकर पुलकित होते रहते।
लेकिन भाइयों और उनकी पत्नियों के बीच कुछ खिचड़ी पकने लगी थी। अभी तक भाई अपनी ज़रूरत के हिसाब से गल्ला गाँव से ले जाते थे, लेकिन अब अपनी ज़मीन अपने कब्जे में लेने और मिल्कियत का सुख लेने की इच्छा बलवती हो रही थी। उनकी पत्नियाँ भी कमर में चाबियों का झब्बा खोंसने के लिए आतुर हो रही थीं। उन्हें यह शिकायत थी कि जेठ जी हर साल खेती की आमदनी का हिसाब क्यों नहीं देते। क्या इतनी बड़ी खेती में कुछ और नहीं बचता होगा?
बलराम इससे बेख़बर थे। वे अपने को परिवार का मुखिया मानते थे और उन्हें इस बात का बड़ा गर्व था कि सब भाई एक हैं और सब उनके आज्ञाकारी हैं। भाइयों को देने के बाद गल्ले से ही खेती के सारे खर्च पूरे होते थे और कई बार बलराम को ऋण लेने की स्थिति आ जाती थी। वे भाइयों से कुछ माँगते नहीं थे, लेकिन भाइयों की नियमित कमाई होने के चलते उनसे मदद की उम्मीद ज़रूर करते थे। लेकिन भाई जब भी मिलते, शहर के बड़े खर्चों का रोना शुरू कर देते, और बलराम को उनसे कुछ कहने की हिम्मत न होती।
भाइयों के अपनी ज़िन्दगी में व्यवस्थित होने के बाद बलराम उम्मीद करते थे कि भाई उनके दो बेटों को अपने पास रखकर उनके पढ़ने- लिखने की व्यवस्था करें, लेकिन उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई। उन्होंने कई बार भाइयों को अपनी कठिनाइयों का संकेत दिया था, लेकिन वे उनके इशारों को अनदेखा करते रहे थे। सभी के पास कोई न कोई बहाना था। हर बार आश्वासन मिलता था कि कुछ दिन और रुक जाएँ, फिर रख लेंगे। लाचार, बलराम ने एक बेटे को उसके मामा के पास भेज दिया था, दूसरे ने शहर में अपने एक दोस्त के साथ रहने की व्यवस्था कर ली।
अब भाइयों का सब्र टूट रहा था। उन्होंने आपस में सलाह करके गांँव के त्रिवेनी पंडित को राज़ी किया कि वे बलराम को समझाएँ कि भाइयों को उनकी ज़मीन सौंप दें। त्रिवेनी पंडित बलराम के पास पहुँचे। बोले, ‘भैया, अब ये इतनी जिम्मेदारियाँ क्यों लादे हो? भाई सयाने हो गये हैं, उनकी जमीन उन्हें सौंप कर हलके हो जाओ। फालतू का बोझ लिये फिर रहे हो।’
सुनकर बलराम की भौंहें चढ़ गयीं। तल्ख स्वर में बोले, ‘बड़ी अच्छी नसीहत दे रहे हो। जब हमें तकलीफ नहीं है तो आपको क्या तकलीफ हो रही है? भाइयों ने तो आज तक कुछ कहा नहीं, आपके दिमाग में यह बात कैसे आयी?’
त्रिवेनी सिटपिटा कर बोले, ‘हम तो आप के भले की बात कर रहे हैं। आपको बुरा लगा हो तो छोड़िए।’
बलराम बोले, ‘हम सब समझते हैं। हम सब भाई मिलकर रह रहे हैं, इसलिए आपकी छाती पर साँप लोटता है। आप चाहते हैं कि हमारे घर में भी और घरों जैसा बाँट- बखरा हो जाए।’
त्रिवेनी पंडित हड़बड़ाकर कर उठ गये। चलते चलते बोले, ‘माफ करो भैया, हमें क्या लेना देना।’
त्रिवेनी पंडित का मिशन विफल होने के बाद भाइयों और उनकी पत्नियों ने समझ लिया कि अब लिहाज तोड़े बिना काम नहीं चलेगा। अगली बार भाई और उनकी पत्नियाँ योजना बना कर आये। वे एक कमरे में इकट्ठे हो जाते और बड़ी भाभी को सुना सुना कर टिप्पणियाँ करते। छोटा भाई और उसकी पत्नी सबसे ज़्यादा मुखर थे। कहा जाता, ‘अरे भाई, मालिक बनने का बड़ा शौक है। दूसरे की जमीन दबाकर राज कर रहे हैं। जमीन हमारी है लेकिन कुछ बोल नहीं सकते। कोई सलाह देता है तो उस पर लाल-पीले होते हैं। त्रिश्ना खतम नहीं होती न।’
भाभी के कान में अमृत-वचन पड़े तो उन्होंने बात बलराम तक पहुँचा दी। बलराम आसमान से ज़मीन पर आ गये। समझ गये कि वे अभी तक खुशफहमी में थे। उन्हें पहले ही समझ लेना चाहिए था।
उन्होंने भाइयों को बुलाकर उनकी ज़मीनों के कागज़ात सौंप दिये। भाइयों ने थोड़ा ऊपरी संकोच दिखाया— ‘क्या जल्दी है? आप देख तो रहे हैं। हमें कोई दिक्कत नहीं है’, फिर हाथ बढ़ाकर कागज़ ले लिये। बड़ी भाभी ने उनके कमरों की चाबियाँ भी उन्हें सौंप दीं। भाइयों की पत्नियाँ अब स्वामित्व के एहसास से मगन थीं। घर की चीज़ों के मायने अब सब के लिए बदल गये थे। सब कुछ वही था, लेकिन कहीं कुछ था जो दरक गया था। जो कमरे कल तक अपने थे, अब पराये लगने लगे थे।
भाई अपने अपने कमरों का कब्ज़ा पाकर खुश थे। इनकी देखभाल करेंगे। रिटायरमेंट के बाद यहीं लौटेंगे। जन्मभूमि से अच्छी कौन सी जगह हो सकती है? ज़मीनों की जुताई-बुवाई की जद्दोजहद शुरू हो गयी। लेकिन शहर के लोग जल्दी ही समझ गये कि यह काम उनके बस का नहीं है। चौबीस घंटे की ड्यूटी थी। ज़रा सी ग़फलत हुई और फसल गयी। एक साल की खींचतान के बाद जमीनें बटाई पर उठा दी गयीं। लेकिन उसमें भी आशंका बनी रहती थी। भरोसे का बटाईदार मिलना मुश्किल था।
भाइयों ने बलराम के सामने प्रस्ताव रखा कि वे ही उनकी ज़मीनें बटाई पर ले लें। उन्हें सुझाया कि उन्हें कुछ और आमदनी हो जाएगी और भाई निश्चिंत रहेंगें। लेकिन बलराम अब भ्रमों से मुक्त हो गये थे। बोले, ‘नहीं भैया, अब हम से नहीं होगा। मेरे पास जितनी जमीन है उसी से फुरसत मिलना मुश्किल है। पिताजी की विरासत मानकर अब तक किसी तरह सँभाल लिया। अब मुझे माफ करो।’
घर में बने अपने कमरों में शुरू में भाइयों ने खूब दिलचस्पी दिखायी। बीच-बीच में आना, ज़रूरी मरम्मत कराना। फिर धीरे-धीरे आने का अन्तराल बढ़ने लगा। कमरों की उपेक्षा होने लगी। कमरे खपरैल वाले थे। धीरे-धीरे वे बैठने लगे। ऊपर से बारिश का पानी आकर कमरों को बरबाद करने लगा। भाइयों को अब उन कमरों में पैसा लगाना पैसे की बरबादी लगने लगी थी। जब रहना ही नहीं है तो पैसा क्यों लगाना? वही पैसा शहर के मकान में लगे तो कुछ ‘रिटर्न’ मिलेगा।
मनभेद होने के बाद भाइयों के परिवारों का आना कम हो गया। आते भी, तो पहले जैसा प्यार और उत्साह न रहता। बच्चों का व्यवहार भी पहले जैसा नहीं रहा। बड़ों के व्यवहार का उनके ऊपर असर हो रहा था। भाइयों के कमरों के बाहर एक एक बल्ब लगा था जिसका स्विच भीतर था। पहले बड़ी भाभी इन्हें जला दिया करती थीं। अब चाबी न होने के कारण वह हिस्सा रात भर प्रेत- निवास बना रहता था। पहले भाइयों के ससुराल से जो रिश्तेदार आते थे वे एक-दो दिन बलराम के पास ज़रूर टिकते थे, अब वे अपनी बहन बेटी से मिलकर शहर से ही लौट जाते थे।
कुछ दिन में कमरे ज़मीन पर पसरने लगे और देखते ही देखते वे मलबे के ढेर में तब्दील हो गये। बलराम उन्हें ध्वस्त होते देखते थे, लेकिन वे कुछ कर नहीं सकते थे। जब कमरे मलबे के ढेर बन गये तो मलबे को समेटकर एक तरफ कर दिया गया। अब वह खाली जगह सिर्फ टूटे संबंधों का स्मारक बन कर रह गयी।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈