सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 13 – संस्मरण # 7 – गटरू
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी हम सपरिवार वैष्णो माता का दर्शन करने के लिए पुणे से जम्मू के लिए रवाना हुए।
दीवाली का मौसम था बच्चों की परीक्षा समाप्त हो चुकी थी और तीन सप्ताह की छुट् टियाँ थीं। इस बार यह तय हुआ था कि माता वैष्णो का दर्शन कर हम दीवाली वहीं पर मनाएँगे और उसके बाद लौटते समय दिल्ली में उतर कर आगरा, हरिद्वार, ऋषिकेश आदि जगह बच्चों को दिखाएँगे। बच्चों के मन में भी बहुत उत्साह था कि हम पंद्रह दिन के लिए बाहर जा रहे थे।
दीपावली से पहले घर की उन्होंने बड़े उत्साह से साफ़- सफ़ाई की। अपनी -अपनी अलमारियों की, पुस्तकों के मेज़ों की सबकी सफ़ाई हुई और दीवाली से तीन दिन पहले हम लोग जम्मू के लिए रवाना हुए।
इससे पहले पुणे से जाने के लिए दिल्ली में गाड़ी बदलने की आवश्यकता होती थी। पर अब कुछ वर्षों से तो दो रात की यात्रा करके जम्मू तवी झेलम एक्सप्रेस द्वारा सीधे जम्मू पहुँचने की सुविधा थी। बच्चे साथ में थे इसलिए आवश्यकता से अधिक भोजन सामग्री साथ लेकर चले थे। दो रातें तो अच्छी तरह से हँस- खेलकर बीत गई पर तीसरे दिन सुबह हमें जम्मू पहुँचना था उस दिन ट्रेन 8 घंटे विलंब से चलने लगी। बच्चे अब ऊब चुके थे और थक भी चुके थे। हमें जम्मू प्लेटफार्म पर पहुँचते-पहुँचते शाम के 6:30 बज गए जबकि यह ट्रेन सुबह के 10:30 बजे जम्मू पहुँचती है। जम्मू शहर से 40 किलोमीटर की दूरी पर कटरा नामक एक छोटा – सा शहर है इसी शहर तक पहुँचने पर यात्री माता वैष्णोजी का दर्शन करने के लिए ऊपर पहाड़ पर जा सकते हैं।
हम सब गाड़ी से प्लेटफॉर्म पर उतरे तो प्लेटफॉर्म पर तिल धरने को जगह न थी। मानो बड़ी संख्या में यात्री दर्शन करने के लिए आए हुए थे। हमारी ट्रेन से तो अधिकतर लोग दिल्ली, जालंधर और पठानकोट में ही उतर गए क्योंकि दीवाली के शुभ अवसर पर उत्तर भारत के अधिकांश लोग अपने घर- परिवार के साथ ही इस उत्सव को मनाना पसंद करते हैं। इसलिए गाड़ी खाली ही थी। दो चार यात्री हमारे ही जैसे थे जो माता का दर्शन करने के लिए प्लेटफार्म पर उतरे। कुछ लोकल थे, त्योहार मनाने घर जा रहे थे।
ठंडी का मौसम था और साथ ही पहाड़ी इलाका, इसलिए हम सभी काफ़ी गर्म कपड़े लेकर ही चले थे जिस कारण चार सदस्यों के चार सूटकेस, हरेक का एक हैंडबैग और भोजन का बड़ा बैग अलग से।
कुछ देर तक हम सब प्लेटफॉर्म पर खड़े रहे पर एक भी कुली नज़र न आया। इधर – उधर नज़र दौड़ाते रहे। अचानक एक बीस – बाईस साल का नवयुवक हमारे सामने आकर खड़ा हो गया। वेशभूषा से वह कोई कुली तो नज़र ना आ रहा था क्योंकि उसकी कमीज़ भी उसके शारीरिक ढाँचे से बड़ी थी मानो किसी बड़े मोटे और ऊँचे कदवाले व्यक्ति से माँगकर पहन रखी थी। वह पास आकर बोला, ” माताजी सामान चक ल्या?” अर्थात माता जी क्या मैं सामान उठा लूँ।
उसकी ओर देखने पर ऐसा लगा कि उसने शायद कभी पहले कुली का काम किया ही न था। उसके शरीर पर लाल कुली की कमीज तो थी पर कुलियों के हाथ पर जो बिल्ला होता है, पीतल का बना हुआ, जिस पर उनकी पंजीकरण संख्या लिखी हुई होती है, वह उसके पास नहीं था। पर उस वक्त हमारे पास और कोई उपाय भी नहीं था। सामान तो अधिक थे ही, बच्चे ट्रेन में बैठे – बैठे अब थक चुके थे। रात गहरा रही थी। ठंड के मौसम में अंधेरा भी जल्दी ही छाने लगता है। ठंडी भी बढ़ रही थी। आगे यात्रा अभी बाकी थी।
मैंने उसे सामान उठाने के लिए कहा। सबसे बड़ी – सी जो अटैची थी उसने उसे उठाकर जब अपने सिर पर रखा तो उसका सारा शरीर कुछ पल के लिए डगमगा उठा। यह देखकर ही मेरा संदेह दूर हो गया कि उस नौजवान को कुलीगिरी करने की आदत नहीं थी। पर उस वक्त हमारे पास और कोई दूसरा चारा भी ना था। अब बाकी छोटे-मोटे सामान मैंने उठा लिए कुछ पति महोदय ने उठा लिया और उससे भी छोटे जो सामान थे वे बच्चों के हाथ में थमा दिए। बच्चों से कहा कि वे कुली के साथ ही चलें। एग्ज़िट गेट से वह निकल गया और उसके पीछे- पीछे बच्चे दौड़ते रहे। सामान लेकर चलते हुए हम बीच-बीच में इससे -उससे टकराते रहे। बच्चों ने उससे अपनी नज़र न चूकने दी। और सामान हाथ में लेकर मैं और मेरे पति भी भीड़ में से संभलते हुए बाहर निकले।
बाहर भी यात्रियों की बहुत बड़ी भीड़ थी थोड़ी देर के लिए तो मेरा दिल धड़क उठा यह सोचकर कि यदि प्लेटफार्म पर इतनी बड़ी भीड़ है, स्टेशन के बाहर भी इतनी लंबी – चौड़ी भीड़ है तो माता के मंदिर में न जाने कितनी भीड़ होगी ? और न जाने कितने घंटे दर्शन के लिए खड़ा रहना पड़ेगा! स्टेशन के बाहर सीढ़ियाँ उतरकर बाईं ओर मुड़ते ही टैक्सी स्टैंड है। हम सब सामान लेकर वहाँ पहुँचे। लंबी डगें भरते हुए पति महोदय टैक्सी की खोज में निकले।
सारा सामान नीचे रखा गया और बच्चे उस पर बैठ गए। ठंडी हवा चल रही थी तो बच्चे और भी सिकुड़ गए। मैंने जिज्ञासावश उससे बातचीत शुरू कर दी।
– क्यों बेटा ऊपर बहुत भीड़ है क्या ?
– ना जी न सारे बापस जान लगे जी! क्या है के जी दवाली दा मौसम है लोकी, अपणे कार विच रैणा पसंद करदे हन।
– तो फिर अभी इतनी भीड़ क्यों है यहाँ?
– जी जे लोकी आए सन वो सारे बापस जान रै सन।
-अच्छा तो इस भीड़ में जानेवाले ज्यादा हैं, आनेवाले कम।
-जी हाँ। जी हाँ।
-बच्चे, तुम्हारा नाम क्या है?
-जी गटरू
अच्छा तुमने इससे पहले कुली का काम कभी किया है गटरू?
-जी वैसे नई करदा पर हूण करण लग्या।
-क्यों ?
– जी इक माह बाद साडी पैण दा ब्याह है- –
– अच्छा! कहाँ के रहनेवाले हो गटरू
– जी पठाणकोट दा
बातचीत के सिलसिले से पता चला कि गटरू के पिता को खेत में काम करते हुए साँप ने काटा था। समय पर अस्पताल ना पहुँचाए जाने के कारण उनकी मौत हो गई थी। इस घटना को अब दो वर्ष बीत चुके थे। थोड़ी खेती होती है, उसी से उनका गुज़ारा होता है। अब बहन की शादी में बड़ा खर्च है तो जम्मू रेलवे स्टेशन पर कुछ महीना भर काम करके वह चार पैसे जोड़ लेगा। दशहरे से दीवाली तक माता का दर्शन करने के लिए बड़ी संख्या में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से लोग आते हैं। उस भीड़ को संभालने के लिए वहाँ की जो उपस्थित कुलियों की संख्या है वह कम पड़ती है।
गटरू के गाँव का कोई आदमी जम्मू स्टेशन पर कुली था। उसीके सहारे वह भी यहाँ आकर अपनी तकदीर आज़मा रहा था। पंद्रह -बीस दिनों तक काम करके जो कमा लेगा वही रकम उसकी बहन की शादी में काम आएगा। उसके घर में उसकी बहन के अलावा दो छोटी बहनें और भी थीं। वे अभी स्कूल में पढ़ रही थीं।
गटरू बड़ा उत्साही, चपल, मेहनती लड़का था। उसकी आँखों में भोलेपन की तरलता थी गोरा रंग जो मेहनत – मजदूरी के कारण और कुपोषण के कारण थोड़ा काला – सा पड़ गया था। वह कमजोर भी दिखता था। आँखों के नीचे गड् ढे – से पड़ गए थे। पर फिर भी आँखें बहुत कुछ बोलती थीं।
इतने में कटरा जाने के लिए टैक्सी मिल गई हम लोगों ने तुरंत टैक्सी में छोटा- मोटा सामान रखना प्रारंभ किया। गटरू ने बड़े उत्साह के साथ कुछ सामान टैक्सी के ऊपर के कैरियर में रखकर रस्सी बाँधने में ड्राइवर की सहायता की। उसका हँसमुख वदन और सदैव सहायता करने की तत्परता ने मुझे उसकी मासूमियत की ओर आकर्षित किया। मैं मन ही मन उसके परिश्रम करने की क्षमता की प्रशंसा करती रही।
गटरू के हाथ में मैंने ₹60 रखे उस जमाने में ₹60 बहुत होते थे। हम चल पड़े उसने हमसे नमस्ते कहा। सभी सामान उठाकर वह स्टेशन से नीचे ले आया था और हमारे साथ तब तक खड़ा था जब तक हम रवाना न हुए। उसकी यह जिम्मेदारी वहन करने के भाव को देख मन प्रसन्न हो रहा था।
हम कटरा पहुँचे। देर रात को ही नहा धोकर मंदिर जाने के लिए रात के 10 बजे रवाना हुए बच्चे थके तो थे पर मंदिर जाने का उत्साह उनके मन में जोश भरने में सफल हुआ। माता का मंदिर रात भर खुला रहता है लोग रात भर चलते हुए, उतरते हुए दिखाई देते हैं। अब तो मंदिर जाने के लिए कई व्यवस्थाएँ भी हो गई थीं। घोड़े, पालकी यहाँ तक कि हेलीकॉप्टर और बैटरी वाली गाड़ियाँ भी थीं।
हम लोगों ने अपनी यात्रा शुरू की। मंदिर जाने के लिए जहाँ से यात्रा शुरू करते हैं वहाँ से पहाड़ की चोटी तक जहाँ मुख्य गर्भ गृह स्थित है 14 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है।
जिस स्थान से यात्रा प्रारंभ होती है उसे बाणगंगा कहते हैं। अधकुंवारी, हाथी मत्था होते हुए इस 14 किलोमीटर की यात्रा हमने 6 घंटे में पूरी की। अधकुँवारी में बहुत बड़ी भीड़ होती है क्योंकि एक छोटी सी गुफा के भीतर से सबको बाहर गुजरकर निकलना पड़ता है जिस कारण वहाँ थोड़ा ज्यादा समय लगता है।
माता के मंदिर के ऊपर भी एक और मंदिर है। यह उस राक्षस का मंदिर है जो माता का पीछा करते हुए इस स्थान तक आया था। उसका नाम है भैरवनाथ। भैरवनाथ का मंदिर माता के मंदिर से और ऊपर चढ़कर है। उसका दर्शन करने के लिए भी कई लोग जाते हैं। उस रास्ते की यात्रा बहुत कठिन यात्रा है।
दीपावली की रात हम ऊपर मंदिर में ही रहे दीपावली का त्यौहार था इसलिए मंदिर में भीड़ नहीं थी। हमें बड़ी आसानी से माता का दर्शन मिला। गुफा के भीतर तीन पिंडों के रूप में माता सरस्वती, माता काली और माता वैष्णो के दर्शन हुए। यहाँ किसी देवी की मूर्ति नहीं है। केवल तीन पिंडियाँ हैं। हम सब बड़े खुश थे क्योंकि हमें ज्यादा भीड़ का सामना नहीं करना पड़ा था।
हम लोग दूसरे दिन सुबह जब नीचे उतरने लगे तो हमें रास्ते में गटरू मिला। उसे देखकर हमें आश्चर्य हुआ। दो क्षण रुक कर हमने उससे पूछ ही लिया कि वह माता के मंदिर के रास्ते पर क्या कर रहा था तो उसने बताया कि ट्रेनें खाली आ रही थी इसलिए वह मंदिर में एक-दो दिन लोगों का सामान उठाकर ऊपर ले जाने का काम करने जा रहा था। ऐसे लोगों को वहाँ पिट्ठू कहते हैं। पिट्ठू के रूप में गटरू किसी परिवार के यात्रियों के साथ चल रहा था। उसने उनके सामान उठाए हुए थे और साथ में एक छोटे बच्चे को पीठ पर बाँधे रखा था।
कटरा में ही बस स्टॉप के पास एक साधारण होटल में हमने अपनी बुकिंग कर रखी थी और सामान भी वहीं छोड़ रखा था। नीचे उतरते ही साथ हम सब उसी होटल में लौट गए। गरम गरम पानी से नहाने पर थकावट भी दूर होती है। थोड़ा कुछ खा – पीकर बच्चे और हम सभी सो गए।
दीवाली के तीसरे दिन हम लोग जम्मू के लिए रवाना हुए। हमारी गाड़ी रात को 9:45 बजे थी। हम सब स्टेशन के पास अभी टैक्सी से उतरे ही थे कि गटरू नज़र आया। संयोग की बात थी कि वह भी पहाड़ से नीचे उतर आया था और कुली का काम कर रहा था।
हमें देखते ही वह पास आकर खड़ा हो गया। पास आकर गाड़ी का नाम उसने हमसे पूछा और बोला अभी 2 घंटे हैं गाड़ी को जाने में। वह हमारा सामान टैक्सी से उतारकर प्लेटफार्म नंबर एक पर ले आया। जहाँ हमारा रिजर्व डिब्बे के आने की संभावना थी उसने ठीक उसी के सामने हमारा सारा सामान लाकर रख दिया। मैंने पैसे देने चाहे उसने कहा “पैले आपको सीट पर मैं बिठांगा ओस ते वाद पैहे ले ल्यांगा। “
गटरू का चेहरा, लोगों पर उसका विश्वास और उसके चेहरे पर फैला भोलापन न जाने क्यों हम सब को बहुत अच्छा लगा था।
प्लेटफार्म नंबर एक के और प्लेटफार्म नंबर 2 के बीच तीन और ट्रैकें थीं। बीच में जो तीन ट्रैकें थी वह जम्मू स्टेशन पर न रुकने वाली गाड़ियों के लिए थीं। कई बार माल गाड़ियाँ बिना रुके इन्हीं ट्रैकों पर से द्रुत गति से निकलती हैं। प्लेटफार्म नंबर एक की ट्रैक अभी खाली थी। इसी ट्रैक पर हमारी रेल गाड़ी आने वाली थी।
प्लेटफार्म नंबर दो पर एक ट्रेन के आने की सूचना दी गई और इन दोनों ट्रकों के बीच के ट्रक पर कुछ दूरी पर एक खाली मालगाड़ी खड़ी थी। जब दोबारा प्लेटफॉर्म क्रमांक 2 पर अजमेर जाने वाली गाड़ी की सूचना मिली। गटरू हमारा सामान रखते ही तुरंत प्लेटफार्म से नीचे उतरने को तत्पर हुआ। मैंने पर्स में से निकालकर पैसे उसकी तरफ बढ़ाए तो उसने कहा अभी टाइम है वह ले लेगा।
एक से दूसरे प्लेटफार्म तक जाने के लिए अधिकतर बड़े शहरों के स्टेशनों पर ओवरब्रिज बने हुए होते हैं। पर गटरू को बहुत जल्दी थी और वह जल्द से जल्द दूसरे प्लेटफार्म पर पहुँचना चाहता था। चूँकि वहाँ पर सूचना दे दी गई थी कि वहाँ से अजमेर जाने वाली गाड़ी आ रही थी तो वह अति शीघ्रता में था। वैसे भी कुली काफी सतर्क होते हैं और नियमित रूप से इसी तरह एक से दूसरे ट्रैक पर बिना सामान के आते – जाते रहते हैं ताकि दोनों प्लेटफार्म पर आसानी से वे कुली का काम कर सकें और अधिक धनराशि कमा सकें।
रेलगाड़ियों के आने-जाने के समय सभी कुली काफी सतर्क होते हैं। एक प्लेटफार्म से दूसरे प्लेटफार्म पर बड़ी चपलता से चढ़ भी जाते हैं।
गटरू एक नंबर प्लैटफॉर्म से उतरकर एक खाली ट्रैक पार कर दूसरे ट्रैक पर खड़ा हो गया। उसकी एक टाँग ट्रैक के अभी भीतर थी और दूसरी बाहर। इतने में प्लेटफार्म नंबर दो पर अजमेर जाने वाली गाड़ी आने लगी। वह रुक गया। जो गाड़ी आई थी वह अभी गति से ही चल रही थी।
सामान बेचने वालों की, यात्रियों की चहल-पहल थी। इधर प्लेटफार्म नंबर एक पर खड़े लोग अचानक ज़ोर से चिल्लाने लगे – ए छोकरे हट ओए! सुनाई नहीं दे॔दा? ओए हट न! पर पटरियों पर खड़े गटरू को किसी की भी आवाज सुनाई नहीं दी। हमारा ध्यान जब लोगों की चीख-पुकार की ओर गई तो ध्यान देने पर देखा दो खाली पटरियों के बीच जो एक और पटरी थी जिस पर एक खाली मालगाड़ी काफी समय से खड़ी थी, वह बिना किसी सिग्नल के और आवाज़ के धीरे- धीरे पीछे की ओर शंटिंग करने लगी। गटरू को ही सब हटने को कह रहे थे। जब तक हम सबका ध्यान गया और हमने गटरू को नाम लेकर पुकारना शुरू किया तब तक खाली गाड़ी के पिछले हिस्से से एक धक्का लगने के कारण वह पटरी पर गिर पड़ा। यद् यपि रेलगाड़ी की गति बहुत धीमी थी पर थे तो लोहे के पहिए। उसकी एक टाँग हमारे देखते ही देखते कट गई। वह दूसरी टाँग समेत अपने शरीर को ऊपर से हटाने के प्रयास में अभी था ही कि रेलगाड़ी के दूसरे डिब्बे का पहिया उसके ऊपर से गुज़र गया। थोड़ी दूर जाकर गाड़ी रुक गई। सब तरफ एक भारी चुप्पी छा गई। सारे लोग भीड़ करके उसी जगह पर जमा हो गए जहाँ से वे झुककर पटरी पर पड़े गटरू को देख पा रहे थे। कुछ जवान लड़के जो दुकान चलाते थे वे सब गटरू के पास पहुँच गए। गटरू बेहोश बेजान सा खून में लथपथ पड़ा था।
रेलगाड़ी के ड्राइवर को जब तक समाचार मिला और उसने गाड़ी रोकी तब तक गटरू का धड़ दो टुकड़ों में बँट चुका था।
हमारे बच्चे रोने लगे। मेरे हाथ में उसे देने वाले जो नोट थे वे इस तरह हाथ की मुट्ठी में भींच गए कि मेरे ही नाखून मेरी हथेली में गड़ गए। प्लेटफार्म अचानक श्मशान जैसा शांत हो गया। स्थायी दुकानवाले, चायवाले, पूड़ी तरकारी बेचनेवाले सब स्तंभित थे।
कुछ समय के बाद फिर सब सामान्य हो गया। पुलिस वहाँ पहुँची, एंबुलेंस आई स्ट्रेचर पर गुटरू के शरीर के दो हिस्से, टूटी हुई बेजान टाँगे रखी गईं और अस्पताल ले जाया गया। वह तो बिचारा बेहोश पड़ा था।
सभी लोग इसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। यात्री, अन्य दुकानवाले सभी, पर हमारा परिवार बिल्कुल चुप्पी साधे खड़ा था। बच्चे थोड़ी देर तक ज़ोर से गटरू, गटरू कहकर अपने पापा से और मुझसे चिपकाकर रोने लगे। संभवतः गटरू के साथ हमारा क्या संबंध था यह बात आस- पास खड़े लोग न समझे होंगे। पर बच्चों को इस दुर्घटना ने हिला दिया था।
हम दोनों की आँखें हमारे साथ लिपटे हुए बच्चों के साथ चुपचाप बरसती ही रही।
थोड़ी देर में हमारी भी गाड़ी आई और हमने अपना सामान जगह पर रखा। रात का समय था बच्चे सामान रख कर चुपचाप अपनी सीटों पर काँच की बंद खिड़की के उस पार देखते हुए आँसू बहाते रहे जिस ओर गटरू दुर्घटनाग्रस्त हुआ था। गाड़ी चल पड़ी पर हम एक दूसरे से कुछ ना बोले जब भी बच्चों से मेरी आँखें चार होती तो लगता कि बच्चे मुझसे पूछ रहे थे मम्मा जिंदा रहेगा न गटरू? उसके घर वालों को क्या पता कि बहन की शादी के लिए पैसा कमाने के लिए आया हुआ अनुभवशून्य भाई जो अपनी नींद, भूख, प्यास सब भूलकर सिर्फ एक ही धुन में लगा था आज मौत से लड़ रहा था।
ट्रेन में उपस्थित सभी यात्री देर रात तक इसी विषय पर चर्चा करते रहे। दूसरे दिन सुबह हम दिल्ली पहुँचे। यहाँ से हमारी दूसरी यात्रा शुरू होने वाली थी। बच्चों का हृदय अभी भी पिछली रात की घटना से प्रभावित था। हम दिल्ली स्टेशन पर उतरे। वहीं पर नाश्ता करने बैठे तो बच्चों ने कुछ खाने से इंकार कर दिया। हम समझ रहे थे कि अपने जीवन में इस छोटी सी उम्र में ऐसी घटना देखकर उनका दिल भी दर्द से भर उठा होगा। अब आगे घूमने जाने का उनका पूरा उत्साह ही ठंडा पड़ गया था।
मैं अपने आप से सवाल कर रही थी इस दुनिया में गटरू जैसे कितने ही लोग होंगे जो कम उम्र में छोटा जीवन लेकर आते हैं और अपनी कुछ खासियत के कारण हमेशा दूसरों के दिल में बसे रहते हैं। गटरू इस कहानी के रूप में हमारे हृदय में बसा रहेगा। उसकी मधुर मुस्कान, उसका भोला चेहरा, उसकी बोलती आँखें सदैव हमारे हृदय में बसा रहेगा फिर जीवन तो अपनी जगह है उसका काम है चलते रहना किसी ने ठीक ही कहा है शो मस्ट गो ऑन!
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈