श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “गौरैया कहती सुनो…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 132 – गौरैया कहती सुनो… ☆
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कांक्रीट के शहर में, नहीं मिले अब छाँव।
गौरैया कहती सुनो, चलो चलें फिर गाँव।।
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रवि है आँख दिखा रहा, बढ़ा रहा है ताप।
ग्रीष्म काल का नवतपा, रहा धरा को नाप।।
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कंठ प्यास से सूखते, तन-मन है बैचेन ।
दूर घरोंदे में छिपे, बाट जोहते नैन।।
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उनने खुद ही कर दिया, काट उन्हें बेजान।
ठूंठों से है आजकल, जंगल की पहचान।।
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सभी घोंसले मिट गए, तनते रोज मकान।
दाना पानी अब नहीं, हम पंक्षी हैरान।।
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पोखर पूर तलाब में, तन गईं अब दुकान।
हम पक्षी दर-दर फिरें, खुला हुआ मैदान।।
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सूरज के उत्ताप से, सूखे नद-तालाब।
आकुल -व्याकुल कूप हैं, हालत हुई खराब।।
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© मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
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