श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “रूखसत वक्त अश्क़ दर पर ठिठके रहे…” ।)
ग़ज़ल # 126 – “रूखसत वक्त अश्क़ दर पर ठिठके रहे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
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अहबाब ज़ेरे ख़ाक सुला कर चले गये,
महबूब अश्क़ में नहला कर चले गये।
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रुख़सत फ़रमान कब तक अनदेखा करें,
ख़ाक तुम राख में मिला कर चले गये।
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सालों हमारा रहा बसेरा जिस शजर पर,
बहुत दूर उससे कब्र सज़ा कर चले गये।
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नहला कर रुख़सत करते हमदम मुझको,
ताबूत में जन्नत दिखा कर चले गये।
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आख़िर बार बिस्तर पर लिटा कर मुझको,
मेरी चिता में आग लगा कर चले गये।
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रूखसत वक्त अश्क़ दर पर ठिठके रहे,
सूराह फ़ातिहा पढ़ हाथ उठा कर गये।
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इस तरह खेल बेवफ़ाई का ‘आतिश’ हुआ,
इधर नज़र बचा उधर लड़ा कर चले गये।
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© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈