डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य रचना – ”मेरे मकान के ख़रीदार‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 247 ☆
☆ व्यंग्य – मेरे मकान के ख़रीदार ☆
रमनीक भाई कॉलोनी में चार छः मकान आगे रहते हैं। सबेरे टहलने निकलते हैं। घर के गेट पर मैं दिख गया तो वहीं ठमक जाते हैं। इधर उधर की बातें होने लगती हैं। रमनीक भाई बातों के शौकीन हैं। बातों का सिलसिला शुरू होता है तो सारी दुनिया की कैफियत ले ली जाती है। उनके पास हर समस्या का हल मौजूद है, बशर्ते उनकी राय कोई ले। रूस-यूक्रेन और इसराइल- ग़ज़ा की समस्या का फौरी हल उनके पास है, लेकिन नेतन्याहू और पुतिन उनकी तरफ रुख़ तो करें।
एक दिन रमनीक भाई चेहरे पर कुछ परेशानी ओढ़े मेरे घर आ गये। बैठकर बोले, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूँ, बाउजी? आप शहर छोड़ कर जा रहे हैं?’
मैंने जवाब दिया, ‘विचार चल रहा है, रमनीक भाई। यहांँ हम मियाँ बीवी कब तक रहेंगे? इस उम्र में कुछ उल्टा सीधा हो गया तो किसकी मदद लेंगे? बड़ा बेटा पीछे पड़ा है कि यहाँ की प्रॉपर्टी बेच कर उसके पास पुणे शिफ्ट हो जाऊँ।’
रमनीक भाई दुखी स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करते हैं, बाउजी! मदद के लिए हम तो हैं। आप कभी आधी रात को आवाज देकर देखो। दौड़ते हुए आएँगे। कॉलोनी छोड़ने की बात मत सोचो, बाउजी। आप जैसे लोगों से रौनक है।’
मैंने उन्हें समझाया कि अभी कुछ फाइनल नहीं है। जैसा होगा उन्हें बताएँगे। वे दुखी चेहरे के साथ विदा हुए।
दो दिन बाद वे फिर आ धमके। बैठकर बोले, ‘ मैं यह सोच रहा था, बाउजी, कि जब आपको मकान बेचना ही है तो हमें दे दें। हमारे साले साहब इसी कॉलोनी में मकान खरीदना चाहते हैं। नजदीकी हो जाएगी। भले आदमी को देने से आपको भी तसल्ली होगी।’
मैंने फिर उन्हें टाला, कहा, ‘फाइनल होने पर बताऊँगा।’
फिर वे रोज़ गेट खटखटाने लगे। रोज़ पूछते, ‘फिर क्या सोचा, बाउजी? साले साहब रोज फोन करते हैं।’
एक दिन कहने लगे, ‘वो रौनकलाल को मत दीजिएगा। सुना है कि वो आपके मकान में इंटरेस्टेड है। बहुत काइयाँ है। दलाली करता है। आपसे खरीद कर मुनाफे पर बेच देगा।’
मैंने उन्हें आश्वस्त किया।
दो दिन बाद एक सज्जन बीवी और दो बच्चों के साथ आ गये। बोले, ‘मैं रमनीक जी का साला हूँ। उन्होंने आपके मकान के बारे में बताया था। आपको तकलीफ न हो तो ज़रा मकान देख लूँ।’
मेरा माथा चढ़ गया। रमनीक भाई के लिहाज में मना भी नहीं कर सकता था। उन्हें मकान दिखाया। वे देख देख कर टिप्पणी करते जाते थे कि कौन सी जगह कौन से इस्तेमाल के लिए ठीक रहेगी। बच्चों में झगड़ा होने लगा कि वे कौन से कमरे पर कब्ज़ा जमाएँगे।
अगले दिन फिर रमनीक भाई आ गये। मैंने उनसे निवेदन किया कि अभी कुछ फाइनल नहीं है, परेशान न हों। यह भी कहा कि पत्नी को इस घर से बहुत लगाव है, इसलिए निर्णय लेने में समय लगेगा। सुनकर वे प्रवचन देने लगे, बोले, ‘बाउजी, बेटा बुला रहा है तो उसकी बात मान लेना चाहिए। आप ठीक कहते हो कि यहाँ कुछ उल्टा सीधा हो गया तो कौन सँभालेगा। वैसे, बाउजी, मकान से क्या लगाव रखना? ना घर मेरा, ना घर तेरा, चिड़िया रैन बसेरा। ईंट पत्थर से क्या दिल लगाना।’
दो दिन बाद वे फिर गेट पर मिले तो मैंने उनसे कहा कि अभी मकान की बात न करें, अभी हमारा इरादा उसे बेचने का नहीं है। सुनकर वे उखड़ गये, नाराज होकर बोले, ‘ये तो ठीक बात नहीं है, बाउजी। मैंने साले साहब को भरोसा दिया था कि मकान मिल जाएगा। यह दुखी करने वाली बात है। आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।’
उस दिन के बाद रमनीक भाई मेरे गेट से तो बदस्तूर गुज़रते रहे, लेकिन उन्होंने मेरी तरफ नज़र डालना बन्द कर दिया। मुँह फेरे निकल जाते। मतलब यह कि मकान के चक्कर में हम सलाम-दुआ से भी जाते रहे।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈