श्री राजेन्द्र चन्द्रकांत राय

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय जी द्वारा लिखित – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप”)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १८ ☆

☆ “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

वह 1972 का कोई दिन था. मैं शहर से अपने घर आधारताल की तरफ लौट रहा था, कि मेरे एक पुराने मित्र मार्तण्ड व्यास मिल गए थे. वे उन दिनों कविता में हाथ आजमा रहे थे और मैंने भी कागज़ काले करने की दिशा में कदम बढ़ा रखे थे. हमारी दोस्ती का पुल यही था.

हमने बल्देवबाग तिराहे की एक दूकान पर चाय पी और वे पान खाने के लिए पान के टपरे के सामने पान लगवाने लगे. वे ज़र्दा के शौक़ीन थे, और उसे चिंतन -चूर्ण कहते थे. वे हथेली पर चूना और तम्बाकू को रगड़ -रगड़ कर उन्हें एकसार कर रहे थे और  इसी के साथ गप्पें लगाने का काम भी कर रहे थे.

उसी समय एक प्रौढ़ सज्जन अपने साथ दो और लोगों को लिए हुए उसी टपरे पर आ पहुंचे. उनका व्यक्तित्व और पहिरावा मुझे सम्मोहन में खींच ले गया. गौर वर्ण, प्रशस्त ललाट, काले लम्बे केश जो गर्दन के पीछे जाकर पुनः शीर्ष पर लौटने की मंसा में कुछ मुड़ चले थे. खादी का श्वेत कुरता -पाजामा, उस पर खादी की ही हल्की पीलाभ जैकेट. वाणी में खनक. साफ़ उच्चारण. गंभीर भाव. चेहरे से झरता तरल स्नेह.

मैं बात इधर कर रहा था और मन उधर को लपका जा रहा था. आँखें और कान उसी दिशा में भगदड़ सी मचाए हुए थे.

मैंने मित्र से कहा, वे कोई कवि लगते हैं…!

मित्र ने उनके केशों को लक्ष्य करके जवाब दिया – बालकवि होंगे…!

मन उनकी तरफ जा चुका था, पर तन संकोच में पड़ा रहा. उसके पाँव न बढ़े. हमने अपनी सायकलें सम्हालीं और वहाँ से निकल पड़े.

कुछ दिनों बाद ‘नई दुनिया ‘ अख़बार  के दफ्तर जाना हुआ, जो उसी बल्देवबाग तिराहे पर था. मैंने उन्हें वहाँ दोबारा देखा. एक समाचार देना था, तो उन्हीं से पूछा किसे देना चाहिए. उन्होंने दीवार पर लगे लकड़ी के एक डब्बे की ओर इशारा कर कहा उधर डाल दो. समाचार को डब्बे के हवाले कर मैं फिर उनकी मेज पर गया. उसके सामने वाली बेन्च पर बैठते हुए पूछा – क्या आपसे कुछ बात  कर सकता हूँ…?

— हाँ, ज़रूर.

मैंने पहले अपना परिचय दिया, बताया कि लिखता हूँ. उन दिनों के चर्चित कवियों और कथाकारों की रचनाओं के सम्बन्ध में उन्हें बताया. धूमिल, मुक्तिबोध, अज्ञेय, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर जैसे नामों को सुनकर उन्होंने कलम बन्द करते हुए कहा – चलो चाय पीते हैं.

हम दोनों बातें करते हुए चाय के उसी टपरे पर जा पहुंचे. अब उन्होंने बोलना शुरू किया. मिठास के साथ. खनक से भरी. आँखें भी बोलने लगीं. पलकों ने फड़कना आरम्भ कर दिया. मैं उनकी मुहब्बत में पड़ता चला गया. लगा हमारा दीर्घकाल से परिचय है. मैं उन्हें जानने के पहले से जनता हूँ. मैं उनसे मिलने के पहले मिल चुका हूँ. वे नाम से ही नहीं, ह्रदय से भी सुमित्र हैं, दिल इसकी ताईद कर चुका था. वे मित्रता का सगुण स्वरुप ही लगते थे.

एक चाय ने अकूत चाह के दरवाज़े खोल दिए. मुलाक़ातें होने लगीं. कोतवाली के बगल में चुन्नीलाल के बाड़े में भी उनसे मिलने, जाना होने लगा. बैठकें लगने लगीं. लिखा हुआ सुनना -सुनाना होने लगा.

वे राजकुमार सुमित्र थे. काया से राजकुमार और आत्मा से सुमित्र. उनके मुरीदों की संख्या अपार है. सब उम्रों के लोग उनके प्रभामंडल में हैं. उन्होंने जबलपुर में सांस्कृतिक वातावरण बनाने में अपने को खपा दिया. एक क्षितिज तैयार किया. उसमें असंख्य तारे टांकते रहे. उनकी रोशनी भी वही बने.

वे बोधि वृक्ष थे. उनके सानिध्य से मन की विचलन मुरझाने लगती थी. रचनात्मकता का आगार थे वे. नए लिखने वालों की पाठशाला थे. अपनी उपस्थिति से आयोजनों को गरिमामय बना देते थे. उनका होना आश्वस्ति थी, न  होना वंचना.

वे चले गए. पर उनका जाना, चले जाना नहीं है. वे हममें कहीं शेष हैं. शेष बने रहेंगे. हम उन्हें सदा महसूस करते रहेंगे. जब कोई कठोर आघात करेगा, वे याद आएँगे. जब भी दोस्ताने की परिभाषा में खलल डाला जाएगा, तब भी वे मन में कौंध जाएंगे. जब भी निर्मल प्रेम के प्रतीक खोजे जाएंगे, तो प्रतिफल में वही मिलेंगे. उदारता के व्यंजनार्थ में वे पाए जाएंगे. आम्र -पल्ल्लवों की छाया में उन्हीं की शीतलता घुली होगी. वसन्त में शामिल रहेगा उनका दुलार और होली के रंगों में सबसे गहरा रंग भी वही होंगे.

लेखक – श्री राजेन्द्र चन्द्रकांत राय

साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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