सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता”।  यह इस लेखमाला की  अंतिम कड़ी है । इस साप्ताहिक स्तम्भ श्रृंखला के लिए हम सुश्री अनुभा जी के हार्दिक आभारी हैं। )  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 41 ☆

☆ मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता

खदान से प्राप्त होने वाला हीरा तभी उपयोगी और मूल्यवान बनता है जब कुशल कारीगर उसे उचित आकार में तराश कर आकर्षक बना देते हैं। तभी ऐसा हीरा राजमुकुट, राजसिंहासन या अलंकार की शोभा बढ़ाने के लिये स्वीकार किया जाता है। यही नियम हर क्षेत्र में लागू होता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी शिक्षा के द्वारा निखारा जाता है और उसे समाज के लिये उपयोगी गुण प्रदान किये जाते है। शिक्षा का यही महत्व है। इसी लिये हर देश में शासन ने शिक्षा व्यवस्था की है।क्रमशः प्राथमिक, माध्यमिक एवं महाविद्यालयीन संस्थाये नागरिको को देश की आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रकार की विद्यायें सिखाने का कार्य कर रही हैं। हमारे देश में भी इसी दृष्टि से ‘‘सर्व शिक्षा अभियान” चलाया गया है जिसमें 6 से 14 वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बच्चे को सुशिक्षित करने की व्यवस्था की गई है। शिक्षा का अर्थ सिखाने से है और विद्या का अर्थ विषय या तकनीक का ज्ञान देने से है।  इस तरह शिक्षा के दो प्रकार कहे जा सकते है। एक प्रारंभिक शिक्षा जिसमें अक्षर ज्ञान- पढना लिखना तथा प्रारंभिक गणित का ज्ञान होना होता है  और दूसरा किसी विशेष विषय की शिक्षा जिसके द्वारा उच्च तकनीकी ज्ञान की किसी एक शाखा मे विशेषज्ञ तैयार किये जाते हैं। ज्ञान की अनेको शाखाये है, सभी के जानकार व्यक्तियो की समाज को आवश्यकता होती है जिससे देश की आवश्यकताओ को पूरी करने वाले नागरिक तैयार हो सकें और उनकी सहायता व सेवाओ से देश प्रगति कर सके। ये सुशिक्षित लोग अपनी गुणवत्ता के साथ ही ऐसे भी होने चाहिये, जिनका आचरण अच्छा हो जिनमें अनुशासनप्रियता हो,  कर्मठता हो, समाज सेवा की भावना हो, नियमितता हो ,सहयोग की भावना हो, सहिष्णुता हो तथा सब के प्रति आदर का भाव हो। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसीलिये हमने देश के राजचिन्ह मे ‘‘सत्यमेव जयते” का आदर्श वाक्य अपनाया है। 1789 में अठारहवी सदी की फ्रांस की राज्य तथा वैचारिक क्रांति ने विश्व को एक नयी शासन व्यवस्था दी जिसे अंग्रेजी में डेमोक्रेसी अर्थात प्रजातंत्र के नाम से जाना जाता है। हमने भी देश की आजादी के बाद इसी जनतंत्र को अपने भारत के समुचित और सही विकास के लिये अपनाया है। जनसंख्या की दृष्टि से हम विश्व के सबसे बडे लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं। हमारी आबादी लगभग 125 करोड है और हमारे जनतांत्रिक आदर्शो को विश्व के विभिन्न देश आदर्श के रूप में देखते हैं।

जनतंत्र के प्रमुख सिद्धांत हैं  (1) स्वतंत्रता (2) समानता (3) बंधुता तथा (4) न्याय। इन्हीं चार स्तंभो पर जनंतत्र की इमारत खडी है। प्रत्येक सिद्धांत के बडे गहरे अर्थ हैं और उसके बडे दूरगामी प्रभाव होते हैं। हमारे राष्ट्रीय संविधान में इनकी विस्तार से चर्चा और निर्देश हैं। आजादी से अब तक देश में निरंतर इसी शासन व्यवस्था को , जिसमें प्रत्येक वयस्क नागरिक को मतदान के द्वारा अपना जनप्रतिनिधि चुनकर शासन में भेजने का महत्वपूर्ण मूल्यवान अधिकार है , का पालन किया जाता है। विश्व के अन्य देश बडे आश्चर्य  व उत्सुकता से हमारे देश में इस व्यवस्था का पालन किया जाना देख रहे हैं। इस जनतांत्रिक व्यवस्था में हमारी सफलता के उपरांत भी हम देखते हैं कि कुछ कमियां है। इन कमियों के कारण देशवासियों के पारस्परिक व्यवहार तथा बर्ताव में शुचिता की कमी देखी व सुनी जाती है जो सरकार के सामने कई कठिनाईयां खडी करती है।

जनतंत्र में प्रमुख पहला सिद्धांत स्वतंत्रता का है। प्रत्येक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है , व्यवहार की स्वतंत्रता है परंतु यह स्वतंत्रता स्वच्छंदता नहीं हो सकती जिससे अन्य नागरिको को जरा भी हानि हो।प्रत्येक नागरिक को वही समान अधिकार प्राप्त हैं  अतः टकराव नहीं होना चाहिये इसका पूरा ख्याल हर नागरिक के मन में निरंतर बना रहना चाहिये। यही बात समानता , बंधुता और न्याय के सिंद्धांतो के लिये भी समझदारी , ईमानदारी और पूरी निष्ठा से व्यवहार के हर क्षेत्र में आवश्यक है। परंतु क्या ऐसा हो रहा है?  सिद्धांत तो बडे अच्छे हैं परंतु उन्हें व्यवहार में अपनाये जाने में कमी दिखती है। नारा तो है “सत्यमेव जयते” परंतु व्यवहार में देखा जाता है और कहा जाता है “चाहे जो मजबूरी हो मांग हमारी पूरी हो”। ऐसे में देश का विकास और प्रगति कैसे संभव है? हर क्षेत्र में रूकावटें हैं। आये दिन स्वार्थ पूर्ति के लिये नये नये संगठन बनकर सामने आते है। प्रदर्शन,  बंद, धरने और शक्ति प्रदर्शन के लिये जुलूस निकाले जाते हैं। क्रोध और विरोध दिखाकर  देश की लाखो की संपत्ति जो वास्तव में जनता के धन से ही उपलब्ध कराई गई होती है, नष्ट कर दी जाती है।आंदोलन व प्रजातांत्रिक अधिकार के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति में आग लगा दी जाती है। अनेकों के सिर फूटते हैं और अनेको वर्षो में धन और श्रम से किये गये निर्माणो को देखते देखते नष्ट कर बहुतों को शारीरिक और मानसिक संकट में डाल दिया जाता है। कुछ ऐसी  ही अराजकता चुनावो के समय अनेक मतदान केन्द्रो में भी देखी जाती है। कभी तो निर्दोष व्यक्तियों की जान तक ले ली जाती है। यदि यह सब जनतंत्र में हो रहा है तो यह विचार करना जरूरी है कि क्यों ? सिद्धांतो को कितना अपनाया गया है और यह राजनीति कैसी है।

हमारा देश तो प्राचीन धर्मप्राण देश है। अनेको धर्मो का उद्गम स्थान है। विश्वगुरू कहा जाने वाला देश है फिर हमारा आचरण इतना धर्मविरूद्ध क्यों हो गया ? जब इस तथ्य पर चिंतन करते है तो नीचे लिखे कुछ विचार समने आते है:-

  1. विगत दो शताब्दियों में विज्ञान  ने (भौतिक विज्ञान ने) बहुत उन्नति की है। नये नये अविष्कार किये गये। जन साधारण को जीवन की नई नई सुविधायें प्राप्त हुई। इससे लोगो मे तार्किक प्रवृत्ति का विकास हुआ। कल कारखानो , आवागमन के संसाधनों , संचार की सुविधाओं से दूर देशों का संपर्क सघन हुआ है। इससे परस्पर संपर्क भी बढे , निर्भरता व व्यापार बढा। आर्थिक निर्भरता विश्वव्यापी हुई । लोगों ने अपने विचारो में परिर्वतन देखा पर चारित्रिक गिरावट आई।
  2. भारत में धार्मिक बंधनो में ढील आई। आत्मविश्वास के साथ अंह के भाव भी बढे। धार्मिक रीति रिवाजो पारिवारिक परंपराओ, मान्यताओ में शिथिलता ने चारित्रिक मूल्यो का हृास किया।
  3. राजनैतिक पैंतरेबाजी, स्वार्थ और धनलोलुपता ने घपलों घोटालों को जन्म दिया। आचार विचारों में भारी परिवर्तन हुये।
  4. निर्भीकता और उद्दंडता से अनुशासन नष्ट हुआ। अपने सिवाय औरो के लिये सम्मान और आदरपूर्ण व्यवहार में कमी आई।
  5. निरर्थक दिखावे, झूठे प्रदर्शन और आडम्बरों को बढावा मिला धन का अनुचित उपयोग बढा, औरों की उपेक्षा हुई। दिखावे के चलन ने सारे पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन को प्रदूषित किया। धार्मिक भावना का हृास होने से चारित्रिक शुचिता नहीं रही। व्यवहार में ईमानदारी कम हुई। गबन घोटाले बढे। सादा जीवन उच्च विचार की परंपरा नष्ट हो गई।

यह स्थिति केवल हमारे देश  में ही नहीं समूचे विश्व में ही  हुई है। आंतकवाद सब जगह फैल गया है। मानवता त्रस्त है। इन सबका कारण नासमझी है।  धर्म की गलत व्याख्या है।   स्वार्थ, लालच, क्रोध, असहिष्णुता ने अदूरदर्शिता का प्रसार किया है तथा अनाचार व आतंक को जन्म दिया है। आचार विचार और सुसंस्कारो को समाप्त किया है। सारे परिवेश को दूषित किया है। जनता में  पढाई लिखाई का तो प्रसार हुआ है परंतु लोगों के मन का वास्तविक संस्कार नहीं हो पाया है। मन ही मनुष्य के सारे क्रियाकलापो का संचालक है। जैसा मन होता है वैसे ही कर्म होते है अतः सही वातावरण के निर्माण हेतु मन का सुसंस्कार कर शुभ विचार की उत्पत्ति किया जाना आवश्यक है। शिक्षा से व्यक्ति को सुखी समृद्ध और समाज के लिये मूल्यवान बनाया जा सकता है। अतः प्रारंभ सद्शिक्षा से ही करना होगा। शिक्षा से मनुष्य का शारीरिक ,  मानसिक ,  बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास करने के लिये समुचित पाठ्यक्रम अपनाया जाना चाहिये। मन के सुधार के लिये नीति प्रीति की रीति सीखने समझने के अवसर प्रदान किये जाने चाहिये। बचपन के संस्कार जो बच्चा घर ,परिवार ,परिवेश,  धार्मिक संस्थानो में देख सुन व व्यवहार का अनुकरण कर सीखता है , जीवन भर साथ रहते हैं। माता, पिता, शिक्षकों तथा समाज में बडों के आचरण का अनुकरण कर छात्र जल्दी सीखते है। अतः  शालाओ और सामाजिक परिवेश में नैतिक मूल्यों का वातावरण विकसित किया जाना  चाहिये। अर्थकेन्द्रित आज के संसार में सदाचार केन्द्रित शिक्षा के द्वारा ही परिवर्तन की  आशा की जा सकती है .  भविष्य को बेहतर बनाने के लिये मूल्यपरक शिक्षा के द्वारा समाज को सदाचार की ओर उन्मुख किया जाये। संपूर्ण शिक्षा पाठयक्रम और संस्थानो के कार्यक्रमो में नैतिक शिक्षा की गहन आवश्यकता है। क्योंकि शिक्षा का रंग ही व्यक्ति के जीवन को सच्चे गहरे रंग से रंग देता है। पहले संयुक्त परिवारो में दादी नानी व बड़े बूढ़े  कहानियों व चर्चाओ से बालमन को जो नैतिक संस्कार देते थे आज के युग में एकल परिवारो के चलते केवल शिक्षण संस्थाओ को ही यह जिम्मेदारी पूरी करनी है।

अतः वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में मूल्यपरक शिक्षा अतिआवश्यक है, जिससे हर शिक्षा पाने वाले विद्यार्थी  को विभिन्न विषयों के ज्ञान के साथ साथ अपनी सामाजिक जिम्मेदारियो का सही सही बोध हो सके।   एक नागरिक के रूप में उसके अधिकार ही नहीं कर्तव्यों का भी दायित्व वह समझ सके ।  बुद्धि के साथ साथ छात्र का हृदय भी विकसित हो,  उसे खुद के साथ अपने पडोसियों के प्रति भी संवेदना हो। समाज में सद्भाव,सहयोग, समन्वय और सहिष्णुता विकसित हो सके।

© अनुभा श्रीवास्तव

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