सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 16 – संस्मरण # 10 – गुलमोहर का पेड़ ?

आज भयंकर गर्मी पड़ रही थी। मैं चाय की प्याली लेकर सुबह -सुबह ही बालकनी का दरवाज़ा खोलकर,  बालकनी की छोटी दीवार से सटकर खड़ा हो गया।

अपनी भागती -दौड़ती ज़िंदगी में बहुत कम समय मिलता है कि मैं फुर्सत से कभी बालकनी में भी आऊँ। यहाँ गमलों में लगे हरे- भरे पौधे इस गर्मी में आँखों को सुकून दे रहे थे।

अचानक सुदूर एक विशाल गुलमोहर का वृक्ष दिखा। रक्तरंजित पुष्पों से सुसज्जित! वृक्ष आज संपूर्ण शृंगार के साथ अपने यौवन का प्रदर्शन कर रहा था।

न जाने क्यों मेरे हृदय में एक टीस-सी उठने लगी। अपने बचपन की कुछ घटनाएँ अधूरे चलचित्र की तरह मेरी आँखों के सामने उभरने लगीं।

मैं अभी छह-सात वर्ष का ही था। अपने घर की खिड़की पर लोहे की सलाखों को पकड़कर फेंस के उस पार के गुलमोहर के वृक्ष को मैं अक्सर निहारा करता था। प्रतिदिन उसे देखते -देखते मेरा उससे एक अटूट संबंध – सा स्थापित हो गया था। उसका विभिन्न रूप मुझे बहुत भाता रहा। कभी हरे पत्तों से भरी  हुई टहनियाँ, तो कभी लाल फूलों से भरी तो कभी नग्न टहनियों पर लटकती उसकी भूरी चपटी फलियाँ मुझे आकर्षित करतीं।

बाबा कॉटन मिल में कार्यरत थे। छोटा -सा सुखी परिवार था हमारा, दादा-दादी,बाबा -माँ और मैं। फिर हड़तालों की वजह से कॉटन मिल बंद होने लगे।बाबा बेरोज़गार हो गए।माँ दहेज़ में मिले पैतृक निशानी कभी कंगन बेचती तो कभी अपना हार। इस तरह एक वर्ष बीत गया। कारखाने से भी कोई धनराशि न मिली। फिर बाबा को सात समुंदर पार विदेश में कहीं काम मिल गया। माँ ने अपना प्रिय चंद्रहार बेचकर बाबा को विदेश जाने के लिए रुपयों की व्यवस्था कर दी। बाबा मशीनों के जानकार थे। काम मिलते ही वे चले गए।

प्रति वर्ष जब गुलमोहर के वृक्ष पर फूल खिलते तो बाबा घर आते। माह भर रहते खूब जी भरकर खिलौने लाते,विदेशी वस्तुएँ लाते और एक बार घर में फिर रौनक छा जाती।

गुलमोहर के वृक्ष पर ज्योंही एक फूल खिला हुआ दिखाई दे जाता मैं दौड़कर माँ को सुखद संवाद देता।उसके गले में अपनी बाहें डालकर कहता ” बाबा के आने का मौसम है।” माँ हँस देती।

हर पंद्रह दिनों में बाबा की चिट्ठी आती।उस लिफ़ाफ़े में  दादा-दादी के लिए भी अलग खत होते।माँ बाबा की चिट्ठी पढ़ती तो अपने आँचल के कोने  से अपना मुँह छिपाकर मंद -मंद मुस्कराती। मेरे बारे में लिखी बातें वह मुझे अपनी गोद में बिठाकर कई बार पढ़कर सुनाती।शायद उस बहाने वह अपने हिस्से का भी खत बाँच लेती।

काठ की बड़ी सी डिबिया में माँ अपने खत रखा करती थीं। दो खतों के बीच की अवधि में न जाने माँ उन  खतों को  कितनी बार पढ़ लिया करती थीं। हर बार चेहरे पर मुस्कान फैली दिखाई देती। अब बाबा की पदोन्नति हुई तो शायद वे व्यस्त रहने लगे,न केवल खतों का आना कम हुआ बल्कि बाबा भी अब दो वर्ष बाद घर लौटे। इस बीच दादाजी का स्वर्गवास हो गया। दादी अपने गाँव लौट गईं।

इधर देश भी उन्नति कर रहा था। सत्तर का दशक था।जिनके पास धनाभाव न था उनके घर टेलीफोन लगने लगे थे। हमारे घर पर भी  काला यंत्र लग गया। अब बाबा फोन ही किया करते।खतों का आदान -प्रदान बंद हो गया।

अब जब कभी बाबा का फोन आता तो माँ कम बोलती दिखाई देती और उधर से बाबा बोलते रहते। माँ अक्सर फोन पर बातें करते समय आँचल के कोने से नयनों के कोर पोंछती हुई दिखाई देती । मैं तो अभी छोटा ही था उन आँसुओं को समझ न पाता पर दौड़कर उनके  पास पहुँच जाता ,अपनी छोटी -छोटी उँगलियों से उनके आँसू पोंछता और वे मुझे अपने अंक में भर लेतीं।

समय कहाँ रुकता है। मैं भी तो बड़ा हो चला था।अब कभी -कभी मैं भी बाबा से फोन पर बातें कर लेता था। पर यह भी सच है कि मेरे पास कहने को कुछ खास न होता था सिवाय इसके कि बाबा कब आओगे? और उत्तर मिलता ,देखो शायद इस गर्मी में।

उस साल ज्योंही मैंने गुलमोहर के फूलों को खिलते देखा तो मैं दौड़कर माँ के पास आया और यह सुखद समाचार दिया कि बाबा के आने का मौसम है। उस दिन माँ ने करुणा भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा और कहा , “तेरे बाबा अब घर नहीं लौटेंगे, मैं तुझे अब इस भुलावे में न रखूँगी। तेरे बाबा ने विदेश में अपनी अलग गृहस्थी बसा ली। “

उस दिन मैंने माँ को अपने सीने से लगा लिया था और माँ घंटों मुझसे लिपटकर रोती रहीं।उस दिन  समझ में आ रहा था कि माँ फोन पर बातें करती हुई आँखें क्यों पोंछा करती थीं।उस दिन उसके भीतर की दबी वेदना ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ी थी।

मैं जैसे अचानक ही बड़ा हो गया था। माँ का दर्द मुझे भीतर तक गीला कर गया जैसे भारी वर्षा के बाद ज़मीन की कई परतें गीली हो जातीं हैं वैसे ही मेरे हृदय का ज़र्रा – जर्रा लंबे अंतराल तक भीगा रहा।

एक दिन मैं फेंस के उस पार गया और गुलमोहर के तने से लिपटकर खूब रोया। फिर न जाने मुझे क्या सूझा मैंने उसके तने से कई टहनियाँ कुल्हाड़ी मारकर छाँट दी मानो अपने भीतर का क्रोध उस पर ही व्यक्त कर रहा था। बेकसूर गुलमोहर का वृक्ष कुरूप, क्षत -विक्षत दिखाई देने लगा।मैंने उसके तने पर भी कई चोटें की। अचानक उस पर खिला एक फूल मेरी हथेली  पर आ गिरा। फूल सूखा – सा था।ठीक बाबा और माँ के बीच के टूटे,सूखे रिश्तों की तरह । फूल भी अपने वृक्ष से अलहदा हो रहा था।

मैंने वृक्ष  से अपना सारा नाता तोड़ दिया।तोड़ दिया अपना सारा नाता अपने बाबा से जिसने मेरी स्नेहमयी,त्यागमयी प्रतीक्षारत माँ को केवल दर्द उपहार में दिए थे। अपना बाकी जीवन फिर कभी माँ को हँसते हुए नहीं देखा।उसके उदास चेहरे ने मेरे जीवन के कई अध्याय लिख डाले।

सोचता हूँ कि दुनियावाले सात जन्म साथ निभाने की कसमें  क्यों खाते हैं जब कि एक जन्म भी साथ निर्वाह  करना कठिन होता है!!

© सुश्री ऋता सिंह

13/12/1993

फोन नं 9822188517, ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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