श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 247 ☆ दो ध्रुवों के बीच ?

इसी सप्ताह की घटना है। मैं दोपहिया वाहन से घर लौट रहा था। बाज़ार से दूर स्थित बैंक के पास एक वृद्ध सज्जन खड़े दिखाई दिए। जाने क्यों लगा कि लिफ्ट चाहते हैं पर कह नहीं पा रहे हैं। कुछ आगे जाकर मैं रुका और पूछा कि उन्हें कहाँ जाना है? उन्होंने बताया कि  लम्बे समय से ऑटोरिक्शा की प्रतीक्षा कर रहे हैं पर कोई रिक्शा आया ही नहीं। फिर जानना चाहा कि क्या मैं उन्हें उनके गंतव्य तक छोड़ सकता हूँ? मैंने उन्हें बिठाया और उनके गंतव्य पर छोड़ दिया।

वे धीरे से उतरे। बोले,”रिक्शा की प्रतीक्षा में खड़ा-खड़ा मैं बहत थक गया था। आपने बड़ी सेवा की।” फिर एकाएक उन्होंने मेरे पैर छू लिए।

इस अप्रत्याशित व्यवहार से मैं संकोच से गड़ गया। कुछ कह पाता, उससे पूर्व अप्रत्याशित का कल्पनातीत अगला संस्करण भी सामने आ गया। उन्होंने जेब से रुपये दस का नोट निकाला और फिर बोले,” इतना ही दे सकता हूँ। कृपया इस बूढ़े के पैसे से एक कप चाय पी लीजिएगा।” अपमान और क्रोध से माथा भन्ना उठा। मैंने उन्हें हाथ जोड़े। नोट हाथ में लिए वे खड़े रहे और मैं वहाँ से एक तरह से रफूचक्कर हो गया।

गाड़ी की बढ़ी हुई गति के साथ विचारों को भी हवा मिली। अपने अपमान के भाव से आरम्भ हुआ विचार, वृद्ध के स्वाभिमान तक जा पहुँचा।

निष्कर्ष निकला कि वे स्वाभिमानी व्यक्ति थे। अनेक लोग ऐसे होते हैं जो किसीका एक नए पैसे का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष ऋण अपने ऊपर नहीं चाहते। बैंक से उनके गंतव्य तक संभवत: शेयर रिक्शा दस रूपये ही लेता होगा। फलत:  उन्होंने मुझे दस रुपये देने का प्रयास किया था।

अनुभव हुआ कि ध्रुवीय अंतर है आदमी और आदमी के बीच। एक ओर किसीका किसी भी तरह का ऋण अपने माथे पर ना रखनेवाला यह निर्धन है तो दूसरी ओर वित्तीय संस्थानों के हज़ारों करोड़ डकार जाने वाले कथित धनिक।

अनुभव कहता है कि संस्कार से विचार उद्भूत होता है। विचार, कृति का जनक होता है। कृति, व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करती है।

ऋग्वेद का उद्घोष है-

‘‘अग्निना रयिमश्नवत पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्।’’

संदेश स्पष्ट है कि हम धन अवश्य कमाएँ पर नीति-रीति से ही कमाएँ। अनीति से फटाफट धन की चाह, लोभ उत्पन्न करती है। लोभ अतृप्ति ढोने को अभिशप्त है।

अपनी कविता ‘पुजारी’ स्मरण हो आई-

मैं और वह

दोनों काग़ज़ के पुजारी,

मैं फटे-पुराने,

मैले-कुचले,

जैसे भी मिलते

काग़ज बीनता, संवारता,

करीने से रखता,

वह इंद्रधनुषों के पीछे भागता,

रंग-बिरंगे काग़ज़ों के ढेर सजाता,

दोनों ने अपनी-अपनी थाती

विधाता के आगे धर दी,

विधाता ने

उसके माथे पर अतृप्त अमीरी

और मेरे भाल पर

 समृद्ध संतुष्टि लिख दी..!

संत ज्ञानेश्वर महाराज पसायदान में कहते हैं,

जो जे वांछील तो ते लाहो ।

हरेक अपना वांछित पा सकता है।  तृप्ति या अतृप्ति, तोष या असंतोष, अनन्य मानव जीवन में अपना वांछित स्वयं तय करो।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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