डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘पर्दा‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 142 ☆
☆ लघुकथा – पर्दा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
‘पापा! आज भाई ने फिर से फोन पर बहुत अपशब्द बोले।‘
‘बेटी! उसकी बात एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दिया करो।‘
‘पर आप दोनों से भी हर वक्त इतने अपमानजनक ढंग से बात करता है,अनाप- शनाप बोलता रहता है आपके लिए।‘
‘इकलौता बेटा है हमारा, हमसे बात नहीं करेगा क्या? थोड़ा कड़वा बोलता है पर ? पिता मुस्कुराकर – ‘अपने भाई साहब की बातों को प्रवचन की तरह सुना करो, जो नहीं चाहिए, उसे छोड़ दो। ‘
‘हमसे सहन नहीं होता है अब यह सब, फोन नहीं उठाऊँगी उसका, बात ही नहीं करनी है हमें उससे। ‘
‘ऐसा नहीं कहते बेटी! एक ही तो भाई है तुम्हारा।‘
‘और मेरा क्या? मैं भी तो इकलौती बहन हूँ उसकी ?
‘भाई के मान – सम्मान का ध्यान रखो बेटी!‘
‘मेरा मान-सम्मान?’
‘तुम अपना कर्तव्य करो, बस—-’
© डॉ. ऋचा शर्मा
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