डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – मातमपुर्सी⇒⇒⇒। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 250 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ मातमपुर्सी 

वह चौंका देने वाली खबर जब मुर्तज़ा ने मुझे सुनायी तब मैं तख़्त पर  पसरा, मुन्नी की जांच कराने मेडिकल कॉलेज जाने के लिए छुट्टी लेने की बात सोच रहा था।

घर में घुसते ही उसने बड़े संजीदा स्वर में कहा, ‘सुना तुमने? वर्मा की मौत हो गयी।’

सुनकर मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा, पूछा, ‘क्या?’

उसने बताया कि वर्मा को आठ दस दिन पहले किसी पुराने तार की खराश लग गयी थी, उसी से उसको टेटनस हो गया था। कल रात से उसकी तबियत बिगड़ी और सवेरे पाँच बजे सब ख़त्म हो गया।

सुनते सुनते मेरा ‘शॉक’ घुलने लगा। शीघ्र ही मैं प्रकृतिस्थ हो गया। मन में कहीं सुखद अहसास दौड़ गया कि छुट्टी लेने से बच गया।

मैंने मुर्तज़ा से पूछा कि क्या वह वर्मा के घर पहुँच रहा है। मुर्तज़ा ने बताया कि वह देर से पहुँच पाएगा। अपने बच्चे के सरकारी स्कूल में एडमीशन के लिए उसे एक स्थानीय नेता से सिफारिश के सिलसिले में मिलना था।

मुर्तज़ा के जाने के बाद पत्नी ने पूछा, ‘कहाँ जा रहे हो?’

मैंने नाटकीय गंभीरता से कोट के  बटन बन्द करते-करते कहा, ‘वर्मा खत्म हो गया।’

फिर मैं उसके ‘हाय’ कहकर मुँह पर हाथ रखने और स्तंभित हो जाने का आनन्द लेता रहा।

‘कितने बच्चे हैं उनके?’, उसने पूछा।

‘दो छोटे बच्चे हैं’, मैंने उसी बनावटी गंभीरता से कहा।

उसने ‘च च’ किया।

‘तो अब दाह करके ही लौटोगे क्या?’, उसने पूछा।

मैंने कहा, ‘जल्दी आ जाऊँगा। श्मशान नहीं जाऊँगा। मेडिकल कॉलेज भी तो जाना है।’

बाहर निकला तो शरीर पर सवेरे की धूप का स्पर्श बड़ा सुखद लगा। वर्मा का मकान मेरे घर से ज़्यादा दूर नहीं है।

रास्ते में तिवारी दादा मिल गये। उनके प्रश्न के उत्तर में मैंने बताया कि मेरे सहयोगी वर्मा की मृत्यु हो गयी है।

‘अरे!’, दादा के मुँह से निकला। मृत्यु का कारण जान लेने के बाद उन्होंने कहा, ‘बहुत बुरा हुआ।’

मैं उनसे विदा लेकर आगे बढ़ा ही था कि लगा वे मुझे पुकार रहे हैं। मैंने घूमकर देखा तो वे सचमुच रुके हुए थे। मैं उनके पास गया।

वे परेशानी के स्वर में बोले, ‘सुनो, मुझे कभी अपने वैद्य जी के पास ले चलो न। तीन महीने से पेट में बहुत गैस बनती है। भूख नहीं लगती। मुँह में खट्टा पानी आता है। पेट भी साफ नहीं रहता। बड़ी तकलीफ रहती है।’

मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि उन्हें ज़रूर ले जाऊँगा।

वर्मा के यहाँ पहुँच कर लगा कि अभी देर-दार है। सामान जुटाया जा रहा था। वर्मा के भाई से सहानुभूति जता कर मैं सामने वाले बंगले के गेट के पास धूप में खड़ा हो गया।

बंगले के निवासी एक सज्जन और उनकी पत्नी भी गेट के पास खड़े होकर सामने का दृश्य देख रहे थे। वे बोलचाल से पंजाबी लग रहे थे। महिला शिकायती लहज़े में पति से कह रही थी— ‘जाने किस बुरी घड़ी में इस मकान में आये थे। एक महीने में मोहल्ले में तीन-तीन मौतें देख चुकी हूँ। इससे तो सराफा वाला मकान अच्छा था। तुम्हीं तो नेपियर टाउन के लिए आफत किये रहते थे।’

दफ्तर के लोग एक-एक कर पहुँच रहे थे। उपाध्याय मेरे पास आकर खड़ा हो गया। ‘बहुत बुरा हुआ’, वह बोला। थोड़ी देर रुक कर चिन्तित स्वर में बोला, ‘कहना तो न चाहिए, लेकिन अब वर्मा साहब वाली पोस्ट पर प्रमोशन का मेरा चांस है। लेकिन साहब नाखुश रहते हैं। देखो करते हैं या नहीं। आपसे साहब की बात हो तो सपोर्ट करिएगा।’

थोड़ी देर में साहब की कार भी आ गयी। दफ्तर के सब लोगों ने उन्हें घेर लिया। साहब जब तक उपस्थित रहे, सब लोग उनके इर्द-गिर्द ही सिमटे रहे। उनकी प्रत्येक जिज्ञासा का समाधान करने में एक दूसरे से स्पर्धा  करते रहे। साहब के आने से सबके चेहरे पर चमक आ गयी थी। जब तक साहब वहाँ रुके, वर्मा के शव से ज़्यादा वे सब के ध्यान का केन्द्र बने रहे। वे आधे घंटे बाद कार में बैठकर चले गये।

इस बीच मुर्तज़ा भी वहाँ पहुँच गया था। उसके चेहरे पर संतोष और निश्चिंतता का भाव था, जिससे लगता था उसका काम हो गया था।

शव के उठने की तैयारी हो रही थी। मैं बगल की एक कुलिया में घुसकर चुपचाप वहाँ से फूट लिया। देखा तो आगे आगे शेवड़े जा रहा था। वह भी मेरी तरह खिसक आया था।

मैंने आवाज़ देकर उसे रोका। पहले तो मैंने अपनी शर्म को ढकने के लिए उसे सफाई दी कि मेडिकल कॉलेज जाना ज़रूरी है, फिर उसके चले आने का कारण पूछा।

वह बोला, ‘यार क्या बताऊँ। घर में अनाज खत्म हो रहा है और बहुत से व्यापारी बतलाते हैं कि कल बोरे पर पन्द्रह-बीस रुपये कीमत बढ़ जाएगी। इसलिए सोचता हूँ आज कुछ लेकर डाल दूँ। इतवार तक तो जाने क्या हालत होगी।’

घर पहुँचने पर देखा कि साले साहब पधारे हुए थे। पत्नी प्रमुदित घूम रही थी। साले साहब ने बताया कि छोटी बहन की शादी एक माह बाद होने वाली थी, इसलिए वे दीदी को लेने आये थे। मुझे भी बाद में पहुँचना था। सुनकर मूड एकदम ‘ऑफ’ हो गया।

‘जल्दी नहा कर खाना खा लो’, पत्नी ने कहा।

भोजन के लिए बैठने पर देखा भाई के सत्कार के लिए पत्नी ने कई चीज़ें बना डाली थीं। भोजन बड़ा स्वादिष्ट था। खाते-खाते पत्नी के जाने की बात की कड़वाहट भूलने लगा।

हाथ धोते समय अचानक याद आया कि वर्मा की मृत्यु हो गयी है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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