श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा रिश्तों की तुरपाई ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 200 ☆

🌻लघु कथा🌻 🌳 रिश्तों की तुरपाई 🌳

ये लघुकथा का शीर्षक मेरी अपनी कृति रिश्तो की तुरपाई है।

पेशे से वकील हजारीलाल (एच लाल) । गंभीर, तीक्ष्ण बुद्धि, मधुर व्यवहार, सौम्य, शांत, उनके पास न जाने कितने केस आते और सबकी पैरवी भी करते।

सदैव सुलझाते हुए परिणाम सुखद दिलाते हैं। पारिवारिक, घरेलू विवाद, बँटवारा, आपसी मतभेद के केस को ज्यादा महत्व देते थे और एक मौका उसे सुधारने का जरूर देते थे।

शायद इसे ही अच्छे वकील की पहचान कह सकते हैं। फीस की राशि पर कोई कंप्रोमाइज नहीं करते थे। बल्कि आम वकील से दुगना फीस लेते।

मनुष्य को तो सरल सहज और कोर्ट के चक्कर लगाना ना पड़े। इसलिए भी एच लाल की पैरवी सभी को बहुत पसंद आई थी।

उम्र का पड़ाव और तजुर्बा दोनों से परिपक्व, आज उसके स्वयं के बेटा बहू जिन्होंने अपनी पसंद से, दूर पढ़ते समय ही अपने जीवन की फैसला कर लिया।

विवाह के बंधन में बनने का निर्णय ले चुके थे दोनों प्राइवेट कंपनी में काम करते थे न जाने कब दूरियाँ बन गई। अभी ठीक से गृहस्थी का सामान भी नहीं आया और बेटे और बहू को गलतफहमी की वजह से एक छत के नीचे अजनबी की तरह रहना पड़ रहा था।

तेज बारिश और सावन का महीना लगते ही बागों में हरियाली होती है धरा की सुंदरता बढ़ जाती है।

आज कोर्ट से लौटते समय वकील साहब के हाथों में सुंदर दो छोटे-छोटे पौधे थे। उन्होंने पौधे को बेटा बहू को बुला कर देते हुए कहा… तुम दोनों अलग तो हो ही रहे हो क्यों ना अपने अलग होने की निशानी के तौर पर इन पौधों को यहाँ बगीचे पर लगा दो।

ताकि जब कभी किसी को बताना पड़े तो मुझे बताते हुए कह सकूँ कि यह पौधा मेरे बेटा बहू के तलाक के कारण लगाया गया है।

मगर मेरी शर्त है कि यह दोनों पौधे को सहेजने और बड़ा करने के लिए कम से कम एक वर्ष तक मेरी शर्तों पर तुम दोनों को इन पौधों की सेवा करना है।

जिसका पौधा ज्यादा सुंदर बड़ा और अच्छा होगा कि उसी के पक्ष में निर्णय जाएगा।

आज बेटे बहू दोनों को वकील साहब ने बुलाया और निर्णय की बात रखी।

निर्णय का इंतजार हो रहा था। पौधे तो दोनों के बराबर लगे हुए थे। चश्मे के अंदर से आँखों को पोंछते हुए आज वकील साहब (पिताजी) बने दोनों को गले लगाए।

अनुभव कर रहे थे की पीठ के पीछे बेटा बहू के हाथ एक दूसरे के हाथ में जुड़ा हुआ था। पश्चाताप से सरोबार बेटा बहू अपने पिताजी के कारण अपनी गलतफहमियों को दूर कर चुके थे।

आज सावन का पावन महीना हाजारी लाल फिर से एक बार अपने केबिन में जाकर वकालत की किताबों की जगह ‘रिश्तों की तुरपाई’ पढ़ रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments