☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 293 ☆

? व्यंग्य – बेगानी शादी, अब्दुल्ला दीवाना ?

शाम की, लक्जरी टू बाय टू कोच झुमरीतलैया से पटना जा रही थी। बस अपने स्टैंड से चली तो शहर से बाहर निकलते ही एक संभ्रांत से दिख रहे बुज़ुर्ग एकाएक अपनी सीट से खड़े हो गए। लोकतंत्र में सीट से खड़े होने का रिवाज आम है। बहरहाल वे मुसाफिरों का ध्यान आकर्षित करते हुए जोर से नेता जी की तरह कहने लगे भाइयों बहनों मैं कोई भिखारी नहीं हूँ, ऊपर वाले ने मुझे खूब नवाजा है, पर मेरी पत्नी भगवान को प्यारी हो गई है, दुर्भाग्य अकेले नहीं आता, कुछ दिन पहले मेरी फैक्ट्री में आग लग गई, आप लोगों ने अखबारों में वह हादसा पढ़ा होगा, मैं इम्पोर्ट एक्सपोर्ट का कारोबार करता हूँ, मेरा सारा माल जल गया, इन हालात में मुझे दिल का दौरा पड़ चुका है। रिश्तेदारों ने हमसे किनारा कर लिया है। ये मेरी जवान बेटी है, मेरे बाद इसे कौन देखेगा यही ग़म मुझे खाए जा रहा है। वह शख्स रोने लगा। उसकी सुन्दर, गोरी युवा बेटी अपनी ओढ़नी संभालते उठी और बाप को सहारा देकर बैठा दिया। यात्री इस एकाएक संभाषण से हतप्रभ थे। उनके भाषण से प्रभावित होकर पिछली सीट से एक आदमी खड़ा हुआ। उसने कहा ” मैं पटना में रहता हूं, खुद का घर है, ये जो मेरे बगल में बैठा हुआ है, मेरा इकलौता बेटा है, इंजिनियर है, इसके लिये मुझे अच्छी दुल्हन की तलाश है।

मुझे यह बच्ची बहू के रूप में अच्छी लग रही है। मैं इस बेटी का हाथ अपने बेटे के लिए मांगता हूं। बाजू में बैठा लड़का भी युवती की ओर मुखातिब होते हुए बोला कि यदि इन्हें यह रिश्ता मंजूर हो तो मैं इस शादी के लिये तैयार हूं। लड़की ने भी संकोच से हामी में सिर हिला दिया। यात्री प्रसन्नता से तालियां बजाने लगे। लेना एक न देना दो, हम सब एवेई तालियां पीटने में माहिर हैं।

बस में मौजूद एक पंडित जी खड़े होकर बोले ये सफर बहुत सुहाना है। अभी मुहूर्त भी मंगलकारी है, विवाह जैसा एक शुभ कार्य हो जाए वह भी सफर में इससे अच्छी बात औऱ क्या हो सकती है। यदि सब राजी हों तो इन दोनों का विवाह करा दूँ। लड़का लड़की राजी तो, भला एतराज कौन करता ? सरकारी बिल की तरह वाह वाह के ध्वनि मत से समर्थन मिला। कुछ उत्साही युवक और महिलायें वर पक्ष और वधू पक्ष के हिस्से बन गये। मंगल गान गाए जाने लगे। यात्रियों को मुफ्त का मनोरंजन और टाइम पास सामाजिक कार्य मिल गया। पंडित जी ने चलती बस में ही मंत्रोच्चारण कर दीपक की परिक्रमा से विवाह संपन्न कर दिया। अपनी अपनी परेशानियां भूल सब खुश हो रहे थे। इसी प्रकार हिप्नोटाइज कर खुश कर देने के इस फन में सारे बाबा निपुण होते हैं।

एक साहब खड़े होकर कहने लगे मैं छुट्टी पर घर जा रहा था, बच्चों के लिये मिठाई लेकर, इस मुबारक मौके को देखकर समझता हूँ कि लड्डूओ से यहीं सबका मुँह मीठा करा दिया जाए।

दुल्हन के बाप ने ड्राइवर से किनारे बस रोकने का आग्रह किया जिससे सब मिलकर मुंह मीठा कर लें।

सारा घटनाक्रम सहज और प्रवाहमान था, सब वही देख सुन और कर रहे थे जो दिखाया जा रहा था। बिना प्रतिरोध रात होने से पहले बस सड़क किनारे रोक दी गई।

शादी की खुशी मनाते सब मिलकर मिठाई खाने लगे। लड्डू खाते ही कुछ क्षण बाद सब उनींदे हो खर्राटे भरने लगे।

जब लोग नींद से जागे तो सुबह के 6 बज रहे थे। बताने की जरूरत नहीं कि दूल्हा दुल्हन उनके बाप, पंडित और लड्डू बांटने वाला शख्स नदारत थे।

यात्रियों के बटुए, गहने, कीमती सामान भी गायब होना ही था।

तो ये था किस्सा ए “बेगानी शादी, अब्दुल्ला दीवाना”। भाग एक।

 – भाग दो –

हाल ही देश के सेठ जी के बेटे और एक दूसरे बिन्नेस मैन की बेटी की, दुनियां की बहुतई बड़ी शादी हुई है। दुनियां के अलग अलग डेस्टीनेशन पर महीनों चली रस्मों में हर कोई फेसबुक, इंस्टा, थ्रेड, ट्वीटर, ऊ टूब पर सहयात्री अब्दुल्ला बना बेहोशी में झूम रहा है।

अब्दुल्ला ही क्यों, भोलेराम, क्रिस, नसीबा, प्रिया, एन्जेल, देशी विदेशी, पेड, अनपेड मेहमान, मूर्धन्य धर्माचार्य, राजनीति के पुरोधा, पक्ष विपक्ष के शीर्षस्थ, मीडिया, सब सेठ जी से अपनी निकटता साबित करते फोटू खिंचवाते नजर आये।

सेठ जी के कर्मचारियों को सोहन बर्फी और चिप्स के पैकेट में ही सात सितारा खाने का मजा आ गया। साथ में मिले चांदी के सिक्के के संग सेल्फी के प्रोफाईल पिक्चर लगाकर वे सब निहाल हैं।

जब जनता की नींद खुली तो हमारे मोबाईल का टैरिफ बढ़ चुका था। अभी बहुत कुछ लुटना बाकी है, आहिस्ता आहिस्ता लूटेंगे लूटने वाले।

क्रमशः, जीवन भर बेगानी शादी में अब्दुला बने रहना हमारी प्रवृति, संस्कृति, और विवशता है। बजट दर बजट, चुनाव दर चुनाव, जनता को नशे के लड्डू खाने हैं, कभी धर्म की चासनी में बने लड्डू तो कभी आश्वासनों में पागी गई शब्दों की बर्फी। कभी कोई नेता, कभी कोई धर्माचार्य, कभी कोई शेयर बाजार का हर्षद मेहता, कभी कोई प्लांटेशन स्कीम, कभी ये तो कभी वो खिला जायेगा और अब्दुल्ला दीवाना बना बेगानी शादी में नाचता रह जायेगा, उसकी अमानत लुटती रहेगी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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