सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 20 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 3 ?

27 मार्च 2024

हम लोग सुबह ही 9 बजे दोचूला पास देखने के लिए रवाना हुए। यहाँ एक पहाड़ी के ऊपर 108 स्तूप बने हुए हैं। यहाँ काफी सर्द हवा चल रही थी। यह एक खूबसूरत स्थान है। यहाँ 2003 में जो मिलीटरी ऑपरेशन हुए थे उन भूटानी शहीद सैनिकों की स्मृति में ये स्तूप बनाए गए हैं। इसे द्रुक वाँग्याल चोर्टेन्स कहा जाता है। ऊपर से दृश्य अद्भुत सुंदर है। मेघ ऐसे उतर आते हैं मानो वे स्तूपों के साथ उनका अनुभव साझा करना चाहते हैं। हमने यहाँ खूब सारी तस्वीरें खींची। स्वच्छ और नीले आकाश से बादलों के टुकड़े बीच- बीच से झाँकते रहे। चारों ओर पहाड़ों पर हरियाली थी। मेघ के टुकड़े रूप बदलते हुए सरक रहे थे। देखकर ऐसा लग रहा था कि हम उन्हें अपने हाथों में भर लें। हवा सर्द थी। घंटे भर बाद हम वहाँ से नीचे उतर आए और हमारे दूसरे दर्शनीय स्थान की ओर बढ़े।

यह था फर्टीलिटी टेम्पल। यह गोलाकार ऊँची बड़े भूखंड पर बना एक मंदिर है। इसे चिमी लाख्यांग टेम्पल कहते हैं। मंदिर में शिश्न की बड़ी आकृति रखी रहती है जिसे फुलाका कहा जाता है। भूटान के लोगों का विश्वास है कि इस मंदिर में पूजा करने पर संतान की प्राप्ति होती है। संतान की स्त्री अपने हाथ में फुलाका पकड़कर तीन बार प्रदक्षिणा करती है। संतान प्राप्ति के पश्चात नवजात के नामकरण के लिए सपरिवार इस मंदिर में दर्शन करने आता है। यह चौदहवीं शताब्दी में बनाया गया मंदिर है। वास्तव में देखा जाए तो भारत के कई राज्य में भी संतान प्राप्ति हेतु माता के मंदिर हैं। अंतर इतना ही है कि भूटान में फुलाका का महत्त्व है। हमारे यहाँ माता शक्तिरूपा है इसलिए माता की पूजा होती है। थाइलैंड में एक विशाल शिवलिंग बना हुआ है जिसकी पूजा वहाँ के निवासी संतान के जन्म की अभिलाषा से करते हैं। स्मरण करा दें कि थाईलैअंड भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं।

मंदिर में दर्शन लेकर हम अब पुनाखा द्ज़ॉंग देखने के लिए निकले। यह एक महल है। पत्थर और नक्काशीदार लकड़ियों से बनी इमारत है। सन 1637-38 में ज़ाब्दरंग नाग्वांग नामग्याल इसी राजा ने भूटान की स्थापना की थी। इससे पूर्व यह सारा देश छोटे -छोटे कबीलो में बँटा हुआ था।

भूटान में दो नदियाँ बहती हैं जिनका नाम है फो चू और मो चू ये दोनों नदियाँ पिता और माता के रूप में मानी जाती हैं। यह इमारत इन्हीं दो नदियों के संगम स्थान पर बनी हुई है।

राजा का विश्वास था कि पुरुष और स्त्री दोनों के सहयोग से परिवार, समाज और राज्य बनता है साथ ही दोनों मिलकर ही ऊर्जा देते हैं ठीक इन नदियों की तरह। ये दोनों नदियाँ लंबी यात्रा करती हैं और यथेष्ट पानी से नदियाँ भरी रहती हैं।

द्ज़ॉंग इमारत धार्मिक तथा शासकीय व्यवस्थाएँ चलाने के उद्देश्य से सन 1950 तक काफ़ी कार्यशील रही। यहाँ कई प्रकार के धार्मिक कार्यक्रम होते रहे। साथ ही भूटान के राजा उज्ञेन वाँगचुक का राजतिलक भी यहीं पर हुआ था। यहीं से वाँगचुक परिवार राजा बनते आ रहे हैं और आज यहाँ पाँचवे वर्तमान राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक हैं। उनकी पत्नी जेत्सुन पेमा वांगचुक रानी हैं। संसार के सबसे जवान और कम उम्र में बने राजा हैं जिग्मे।

इस विशाल इमारत में आज भी कई धार्मिक उत्सव मनाए जाते हैं। इसका विशाल परिसर, स्वच्छ और सुंदर आँगन, बड़ी सी इमारत न केवल स्थानीय लोगों को आकर्षित करती है बल्कि पर्यटकों को यह सब कुछ बहुत ही सुंदर और शांति प्रदान करने वाली जगह प्रतीत होती है।

इस इमारत से थोड़ी दूरी पर श्मशान भूमि है क्योंकि यहाँ नीचे नदी बहती है। फिर एक कच्ची और उबड़-खाबड़ रास्ते से हम ससपेन्शन ब्रिज देखने पहुँचे।

यह ब्रिज थाँगटॉन्ग ग्याल्पो ने बनया था। इस ससपेन्शन ब्रिज की कई बार मरम्मत भी की गई है। इसे पुनाखा डोज़ॉन्ग से उस पार के अन्य गाँवों से जोड़ने के लिए बनाया गया था। यह ब्रिज 180 मीटर लंबा है। यह फो चू नदी पर बनाया हुआ है। इस पर चलते समय थोड़ा डर अवश्य प्रतीत होता है क्योंकि यह लोहे से बना पुल केवल इस पार से उस पार तक झूल रहा है। बीच में कोई आधार नहीं है। हवा चलने पर पुल हमारे भार से लहराने लगता है। पुल के दोनों ओर असंख्य प्रार्थना पताकाएँ बाँधी हुई हैं। यह स्थानीय लोगों की आस्था का प्रतीक भी है। देर शाम तक घूमने के बाद हम अपने होटल में लौट आए। हमारा दिन आनंदमय और जानकारियों से परिपूर्ण रहा।

28/3/24

आज हम पारो पहुँचे। पहाड़ी के ऊपर स्थित एक भव्य तथा सुंदर होटल में हमारे रहने की व्यवस्था थी। होटल के कमरे से बहुत सुंदर मनोरम दृश्य दिखाई दे रहा था। नीचे नदी बहती दिखाई दे रही थी।

पारो पहुँचने से पूर्व हमने पारो एयर पोर्ट का दर्शन किया। ऊपर सड़क के किनारे खड़े होकर नीचे स्थित हवाई अड्डा स्पष्ट दिखाई देता है। यह बहुत छोटा हवाई अड्डा है। भूटान के पास दो हवाई जहाज़ हैं। यहाँ आनेवाले विदेशी पर्यटक दिल्ली होकर आते हैं क्योंकि भूटान एयर लाइन दिल्ली और मुम्बई से उड़ान भरती है। कई बार भारतीय विमान के साथ भी व्यवस्था रहती है। इस हवाई अड्डे पर दिन में एक या दो ही विमान आते हैं क्योंकि छोटी जगह होने के कारण रन वे भी अधिक नहीं हैं। साफ़ -सुथरा हवाई अड्डा। दूर से और ऊपर से देखने पर खिलौनों का घर जैसा दिखता है।

दोपहर का भोजन हमने एक भारतीय रेस्तराँ में लिया जहाँ केवल निरामिष भोजन ही परोसा जाता है। पेमा और साँगे के लिए अलग व्यवस्था की गई थी और उन्हें अलग टेबल पर बिठाया गया था। वहीं पर उन दोनों को अपने परिचित कुछ चालक और गाइड भी मिले। भोजन के पश्चात पेमा ने बताया कि उन्हें लाल भात, मशरूम करी और दाल परोसी गई। पेमा ने बताया कि अपने साथ घूमने वाले पर्यटकों को जब वे ऐसे बड़े रेस्तराँ में लेकर आते हैं तो उन्हें कॉम्प्लीमेन्ट्री के रूप में (निःशुल्क ) भोजन परोसा जाता है। पर यह भोजन फिक्स्ड होता है। अपनी पसंदीदा मेन्यू वे नहीं ले सकते। पर यह भी एक सेवा ही है। वरना आज के ज़माने में मुफ़्त में खाना कौन खिलाता है भला! वहाँ आनेवाले हर ड्राइवर और गाइड को भरपेट भोजन दिया जाता है। यहाँ बता दें कि भूटानी तेज़ मिर्चीदार भोजन पसंद करते हैं।

रेस्तराँ से निकलते -निकलते दो बज गए। हमारी सहेलियाँ वहाँ के लाल चावल और कुछ मसाले खरीदना चाहती थीं तो हम उनके लोकल मार्केट में गए। वहाँ कई प्रकार की स्थानीय सब्ज़ियाँ देखने को मिलीं जो हमारे यहाँ उत्पन्न नहीं होतीं। कई प्रकार की जड़ी बूटियाँ दिखीं जिसे वे सूप पकाते समय डालते हैं जिससे वह और अधिक पौष्टिक बन जाता है।

कुछ मसाले और चावल खरीदकर अब हम एक ऐसी जगह गए जहाँ सड़क के किनारे कई दुकानें लगी हुई थीं। इन में पर्यटकों की भीड़ थी क्योंकि वे सोवेनियर की दुकानें थीं।

यहाँ महिलाएँ ही दुकानें चलाती हैं। हर दुकान के भीतर सिलाई मशीन रखी हुई दिखी। महिलाएँ फुरसत मिलते ही बुनाई, कढ़ाई, सिलाई का काम जारी रखती हैं। कई प्रकार के छोटे पर्स, थैले, पेंसिल बॉक्स, शॉल आदि बनाती रहती हैं। कुछ महिलाओं के साथ स्कूल से लौटे छोटे बच्चे भी थे। शाम को सात बजे सभी दुकानें बंद कर दी जाती हैं। खास बात यह है कि सभी महिलाएँ व्यवहार कुशल हैं और हिंदी बोलती हैं। हमें उनके साथ बात करने में आनंद आया। कुछ उपहार की वस्तुएँ खरीदकर गाड़ी में बैठने आए तो गाड़ी काफी दूर लगी हुई थी।

इसबाज़ार की एक और विशेषता देखने को मिली कि दुकानी वाले अहाते में यहाँ गाड़ियाँ नहीं चलतीं। सभी खरीददार बिना किसी तनाव या दुर्घटना के भय से दूर रहकर आराम से हर दुकान के सामने खड़े होकर वस्तुएँ देख, परख, पसंद कर सकते हैं। दुकानों और मुख्य सड़क के बीच कमर तक दीवार बनाई गई है। ग्राहकों के चलने के लिए फुटपाथ है। ऐसी व्यवस्था हमें गैंगटॉक और लेह में भी देखने को मिली थी। इससे पर्यटकों को भीड़ का सामना नहीं करना पड़ता है। अब तक पाँच बज चुके थे। पेमा ने हमें पूरे शहर का एक चक्कर लगाया और हम होटल लौट आए।

पारो शहर स्वच्छ सुंदर है। खुली चौड़ी सड़कें, विद्यालय से लौटते बड़े बच्चे जगह -जगह पर खड़े होकर हँसते -बोलते दिखे। पहाड़ी इलका और प्रकृति के सान्निध्य में रहनेवाले ये खुशमिजाज़ बच्चे हमारे मन को भी आनंदित कर गए।

स्थान -स्थान पर चेरी के और आलूबुखारा के फूलों से लदे वृक्ष दिखे। ये गुलाबी रंग के सुंदर फूल होते हैं। दृश्य अत्यंत मनोरम रहा। कहीं कहीं छोटे बगीचे भी बने हुए दिखाई दिए।

हम होटल लौट आए। चाय पीकर हम तीनों फिर ताश खेलने बैठीं।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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