श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “बूढ़ी आजी माँ और मैं। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 138 – बूढ़ी आजी माँ और मैं ☆

मैं

टकटकी लगाए

देख रहा हॅूं ,

उन हाथों को

जो कर्मठता के

प्रतीक थे ।

माटी के लौंदो में

सने वे हाथ

अपने व अपने-

जिगर के टुकड़ों के लिए

घरौंदा बनाने

कितने उतावले थे ।

संग्रह की प्रवृत्ति ने

उन्हें कहीं का न छोड़ा था ,

तन तार-तार कर दिया था –

और सम्पूर्ण जीवन

लगा दिया था, दाँव पर ।

तब कहीं जा कर

एक घर बना था ।

ऐसा घर, जहाँ पूरा

कुनबा का कुनबा

रह रहा था-बड़े ठाट से,

बड़े आराम से ।

आज वही हाथ

झुर्रियों से भऱे थे –

और काँप रहे थे ,

किसी सहारे की आस में ।

इस कोने से उस कोने

घिसट- घिसट कर

लोगों के दिलों में

बैठने भर के लिये

स्थान ढूँढ़ रही थी ।

पर जगह तो

बिल्कुल सिमट कर

रह गयी थी ।

अब तो वह मात्र

पूजा गृह से बुहारे गये

बासे फूलों

और शेष बचे हवन के

कचरे जैसी थी ,

जिसे यूँ ही झाड़ कर

कहीं भी नहीं डालते

क्योंकि ऐसा करने से

लगता है -पाप ।

फिर तो उसे अभी कुछ दिन और

एक कोने में पड़े रहना है ।

जब तक वह ढेर न हो जाये,

ऐसा करने से किसी को भी

पाप नहीं लगेगा ।

और साथ ही सब पुण्य के

भागीदार बनेंगे ।

बस सभी को इंतजार है,

उनकी मृत्यु और उनसे मुक्ति का ।

जीवन का यह अंतिम सत्य

इसी तरह बार-बार दुहराया जाता है ।

इसीलिए कभी -कभी

मुझे अपना शरीर भी

झुर्रियों के आवरण से ढॅंका,

कमानी सा झुका,

खाँसता खखारता-

और हड्डियों के ढाँचे सा

किसी डॉक्टर की डिस्पेंसरी में टंगा

कैडलॉक सा नजर आता है।

बूढ़ी आजी के

काँपते तन के समान

स्वयं को पाता हूँ ।

और लगता है- मैं भी

उस कचरे के समान पड़ा हूँ ,

एक किनारे

ढेर होने के लिए ।

कोई आए और मुझे भी

विसर्जित कर आए ।

शायद इसी को

प्रत्येक के जीवन की

नियति कहते हैं ।

या कृतघ्नता की

पराकाष्ठा ।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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