प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “मनुष्य आज है दुखी…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा # 188 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – मनुष्य आज है दुखी… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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मनुष्य आज है दुखी मलिन मनोविकर से
सुधार शायद हो सके सुदृढ़ सुसंस्कार से ।।
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राग द्वेष लोभ मोह स्वार्थ शक्ति साधना-
की कर रहे हैं लोग आज रात दिन उपासना ।।
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इसी से है विक्षुब्ध मन, असंतुलित समाज है
अशांत विश्व, त्रस्त सब मनुष्य जाति आज है ।।
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कहीं पै लोग जी रहे चरम विभव-विकास में
कहीं पै जी रहे विवश, अनेक कल की आश में ।।
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प्रकाश एक सा मिले, हो मुक्ति भूख-प्यास से
हो जिंदगी समृद्ध सबकी नित नये विकास से ।।
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जो दान-त्याग, प्रेम, नीति, बंधुता का मान हो
तो क्षेत्र हर पुनीत हो मनुष्य भाग्यवान हो ।।
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न मन कभी हुआ सुखी है ऊपरी विकास से
प्रसन्नता तो जन्मती है आत्मिक प्रकाश से ।।
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मनुष्य का मनुष्य से ही क्या. समस्त सृष्टि से
अटूट तंतुओं से है जुड़ाव आत्मदृष्टि से ।।
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अतः उदार वृत्ति, प्रेम दृष्टि मित्र भावना
उचित है बाल मन में जन्म-दिन से ही उभारना ।।
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सहानुभूति, प्रीतिनीति की पवित्र कामना
जगाये मन औ’ बुद्धि में सहिष्णुता की भावना ।।
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गूँथी जो जायें शिशु-चरित्र में विविध प्रकार से
सुशैक्षिक प्रयत्न से, समाजगत विचार से ।।
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तो व्यक्ति हो प्रबुद्ध, शुद्ध सात्विक विचार से
मनुष्य जाति हो सुखी समृद्ध संस्कार से ।।
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धरा पै स्वर्ग अवतरित हो विश्व में सुधार हो
मनुष्य में मनुष्य के लिए असीम प्यार हो ।।
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इस विचार का सुचारू सप्रचार चाहिये
जगत में स्नेह का हरा-भरा निखार चाहिये ।।
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© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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