डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य – ”नवाब साहब का पड़ोस‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 253 ☆
☆ व्यंग्य ☆ नवाब साहब का पड़ोस ☆
मैंने उनके पड़ोस में बसने की गुस्ताख़ी करीब डेढ़ साल पहले की थी। सुनता था कि वे किसी मशहूर नवाब ख़ानदान के भटके हुए चिराग़ हैं। कभी-कभार गेट के पास मिल जाने पर सलाम- दुआ हो जाती थी, लेकिन आना जाना कतई नहीं था। उनके घर कई लोगों का आना- जाना लगा रहता था। बहुत से कार वाले लोग आते थे। उनके पास भी एक पुरानी एंबेसेडर थी जो घंटों में स्टार्ट होती थी और जो रोज़ हमारे घर को धुएँ और शोर से भर देती थी। मैं लिहाज़ में धुएँ के घूँट पीता बैठा रहता था।
एक दिन सवेरे सवेरे वे गेट खोलकर हमारे घर आ गये। मैं उन्हें देखकर उलझन में पड़ गया क्योंकि मैं अमूमन मामूली इंसानों से ताल्लुक रखता हूँ, सामन्तों और ऊँचे लोगों से निभाव करने का मुझे अभ्यास नहीं है। उनके आने से मैं सपरिवार कृतार्थ हो गया।
वे कुर्सी पर विराज कर बोले, ‘आपसे मिलने की तबीयत तो कई बार हुई, लेकिन आ ही नहीं सका। अजीब बात है कि हम डेढ़ साल से पड़ोसी हैं और एक दूसरे को बाकायदा जानते भी नहीं।’
मैंने उन्हें चाय पेश की। वे चुस्कियाँ लेते हुए बोले, ‘दरअसल मैं इस वक्त इसलिए आया था कि अचानक दो हज़ार रुपये की ज़रूरत आ पड़ी है। वैसे तो बहुत रुपया आता जाता रहता है, लेकिन इस वक्त नहीं है।’
मैं उनके आने से अभिभूत था। लगा, पैसा माँग कर वे मुझ पर इनायत कर रहे हैं।’
भीतर से पैसे लाकर मैंने उनके सामने रख दिये। मैं पैसे जेब में रखते हुए बोले, ‘दरअसल पानवाला और गोश्तवाला सवेरे सवेरे पैसों के लिए सर पर खड़े हो गये हैं। इसलिए आपको तकलीफ देनी पड़ी।’
मैंने संकोच से कहा, ‘कोई बात नहीं।’
वे बोले, ‘हमारे यहाँ रोज़ सौ डेढ़-सौ रुपये के पान आते हैं। गोश्त भी रोज डेढ़ दो किलो आ जाता है। मेहमान आते हैं तो बढ़ भी जाता है। महीने डेढ़-महीने में हिसाब होता है।’
फिर ठंडी साँस लेकर बोले, ‘क्या ज़माना आ गया है कि पानवालों और गोश्तवालों की हिम्मत पैसे माँगने के लिए हमारे घर आने की होने लगी। पुराना ज़माना होता तो पैसा मांगने वाली ज़बान काट ली जाती।’
फिर व्यंग्य से हंँसकर बोले, ‘डेमोक्रेसी है न! डेमोक्रेसी में सब तरह के लोगों को सर पर बैठाना पड़ेगा।’
मैंने सहानुभूति में सिर हिला कर कहा, ‘दुरुस्त फरमाते हैं।’
वे उठ खड़े हुए। बोले, ‘अब इजाज़त चाहता हूँ। आप फिक्र मत कीजिएगा, पैसे जल्दी भेज दूँगा। मौके की बात है, वर्ना पैसे तो आते जाते रहते हैं।’
मैंने जवाब दिया, ‘कोई बात नहीं। आप फिक्र न करें।
वे चले गये। मैं दो हज़ार देकर भी खुश था। इतने इज्ज़तदार लोगों को कर्ज़ देने के मौके बार-बार नहीं मिलते।
धीरे-धीरे दिन गुज़रते गये, लेकिन नवाब साहब के पास से पैसा लौट कर नहीं आया। जब दो महीने बीत गये तो मेरे सब्र का पैमाना छलक उठा। एक शाम को हिम्मत जुटाकर उनके दौलतख़ाने में घुस गया। वे बरामदे में ‘सब रोगों की दवा’ का गिलास लिये बैठे थे। बगल में पानदान रखा था और एक तरफ पीकदान। मुझे देखकर उन्होंने बड़े तपाक से स्वागत किया।
गिलास की तरफ इशारा करके बोले, ‘थोड़ी सी नोश फ़रमाएंँगे?’
मैंने क्षमा मांँगी तो हँस कर बोले, ‘अपनी तो इससे पक्की दोस्ती है। इसके बिना शाम नहीं कटती। आप भी इससे दोस्ती कर लीजिए तो ज़िन्दगी रंगीन हो जाएगी।’
मैंने हँसकर उनकी बात टाल दी।
उन्होंने पॉलिटिक्स की बात शुरू कर दी। बोले, ‘इन नेताओं को हुकूमत करना नहीं आता। हम जैसे ख़ानदानी नवाबों से कुछ सीखते तो मुल्क का भला होता। हमारे तो ख़ून में हुकूमत बैठी है। मेरे जैसे सैकड़ों राजाओं-नवाबों के काबिल वारिस बेकार बैठे हैं, लेकिन हमारी काबिलियत का इस्तेमाल करने वाला कोई नहीं। हमें क्या, नुकसान तो मुल्क का हो रहा है।’
थोड़ी देर तक उनकी लंतरानी सुनने के बाद मैंने जी कड़ा करके कहा, ‘नवाब साहब, वे पैसे मुझे मिल जाते तो मेहरबानी होती। मुझे ज़रूरत है।’
वे माथे पर बल देकर बोले, ‘कौन से पैसे?’
मैंने हैरान होकर कहा, ‘वही जो लेने आप मेरे गरीबख़ाने पर तशरीफ लाये थे।’
वे उसी तरह बोले, ‘वे रुपये मैंने आपको लौटाये नहीं?’
मैंने अपराध भाव से गिड़गिड़ा कर कहा, ‘अभी नहीं लौटे, नवाब साहब।’
वे गाल पर उँगली टिकाकर बोले, ‘मैं तो बिलकुल भूल ही गया था। दरअसल मैं समझ रहा था कि मैंने लौटा दिये हैं। एक मिनट में हाज़िर हुआ।’
वे उठकर कुछ अप्रसन्न भाव से भीतर चले गये। लौट कर बोले, ‘माफ कीजिएगा। पैसे आये तो थे, लेकिन पिछले हफ्ते हमारे साले साहब फेमिली के साथ आ गये थे। उनके साथ सैर के लिए कार से पचमढ़ी चला गया था। काफी पैसा खर्च हो गया। दो-तीन दिन में भिजवा देता हूँ।’
मैं चलने लगा तो वे बोले, ‘दरअसल मैं शाम को किसी से लेन-देन नहीं करता। पीने का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है।’
मैं उनसे बार-बार माफी माँग कर अपराधी की तरह लौट आया।
दो-तीन दिन की जगह तीन महीने गुज़र गये। नवाब साहब के घर से खाने की ख़ुशबू और कार का धुआँ आता रहा लेकिन पैसे नहीं आये।’
आख़िरकार एक बार फिर बेशर्मी की चादर ओढ़ कर उनके हुज़ूर में हाज़िर हो गया। इस बार थोड़ा जल्दी गया ताकि उनके सुरूर में ख़लल न पड़े।
वे बेगम के साथ बैठे चौपड़ खेल रहे थे। मुझे देखकर बेगम अन्दर तशरीफ ले गयीं। नवाब साहब पहले की तरह जोश से मुझसे मिले, बोले, ‘आप तो ईद के चाँद हो गये। मुद्दत के बाद मुलाकात हो रही है।’
फिर वे मुझे बताने लगे कि कैसे उनसे मिलने एक मिनिस्टर साहब आये थे जिनके दादा उनके दादाजान के यहाँ बावर्ची हुआ करते थे। बोले, ‘अब भी बहुत इज्ज़त से पेश आता है। भई वो इंडिया का प्रेसिडेंट हो जाए, फिर भी हम हमीं रहेंगे और वो वही रहेगा।’
मैंने कहा, ‘इसमें क्या शक है।’
वे एक शिकार का किस्सा शुरू करने जा रहे थे कि मैंने बीच में कहा, ‘माफ कीजिएगा, नवाब साहब, मैं ज़रा जल्दी में हूँ। मैं अपने पैसों के बारे में आया था। आपने फरमाया था कि दो-तीन दिन में पहुँच जाएँगे।’
नवाब साहब ने पहले तो ‘ओह’ कह कर माथे पर हाथ मारा, जैसे मेरी रकम भूल जाने का उन्हें अफसोस हो। फिर पहले की तरह ‘एक मिनट’ कह कर भीतर गुम हो गये। लौट कर बोले, ‘आप एक घंटे पहले आ जाते तो दे देता। अब तो गड़बड़ हो गया। पैसा आते ही लेनदार सूँघते हुए आ जाते हैं। आप चलिए, मैं कल तक कुछ इन्तज़ाम करता हूँ।’
चलने लगा तो उन्होंने हँसकर टिप्पणी की, ‘आपका दिल पैसों में कुछ ज़्यादा ही रहता है। पैसा तो हाथ का मैल है। ज़िन्दगी का लुत्फ़ लीजिए। कुछ हमसे सीखिए।’
मैंने कहा, ‘कोशिश करूँगा।’
उस दिन सारी शाम दिमाग ख़राब रहा। जब एक हफ्ते तक नवाब साहब का ‘कल’ नहीं आया तो इस बार गुस्से में फिर उनके घर जा धमका। वे बालों और मूँछों में ख़िज़ाब लगाये कुछ चिन्तित से बैठे थे। मुझे देखकर आधा उठकर हाथ मिलाया।
मेरे कुछ बोलने से पहले ही बोले, ‘बड़ा ख़राब ज़माना आ गया है। आज शराब के लिए आदमी भेजा जो गुस्ताख़ शराब वाले ने कहलवा भेजा कि पहले पिछला उधार चुका दूँ, फिर आगे शराब मिलेगी। आदमी की कोई कद्र, कोई इज्ज़त नहीं रह गयी। पैसा ही सब कुछ हो गया। पुराना ज़माना होता तो—‘
मैंने उनकी बात काट कर कहा, ‘आपने दूसरे दिन पैसा भेजने को कहा था। तब से इन्तज़ार ही कर रहा हूँ।’
वे गुस्से में हाथ नचाकर बोले, ‘हद हो गयी। मैं इस फ़िक में परेशान हूं कि मेरी आज की शाम कैसे गुज़रेगी और आपको अपना पैसा दिख रहा है। खूब पड़ोसी हैं आप! रुकिए, अभी आता हूँ।’
वे भीतर चले गये। भीतर कुछ देर तक मियाँ-बीवी में ज़ोर-ज़ोर से बात करने की आवाज़ें आती रहीं, फिर वे गुस्से में मुँह बिगाड़े बाहर निकले। मेज़ पर कुछ नोट रख कर बोले, ‘ये लीजिए। एक हज़ार हैं। अपना कलेजा ठंडा कर लीजिए और मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए। उधर बेगम हैं कि एक एक पैसे के लिए झिकझिक करती हैं, और इधर आप जैसे लोग सूदख़ोरों की तरह पीछे पड़े रहते हैं।’
मैंने उठते हुए पूछा, ‘बाकी?’
वे हाथ हिलाते हुए बोले, ‘बाकी भी मिल जाएँगे। थोड़ा सब्र रखना सीखिए। हम ख़ानदानी लोग हैं, आपका पैसा लेकर भाग नहीं जाएँगे। अब मेहरबानी करके पैसों का तकाज़ा करने के लिए तशरीफ़ मत लाइएगा। हम खुद भिजवा देंगे।’
तब से फिर एक महीना गुज़र गया है और नवाब साहब के घर से खुशबुओं के अलावा और कुछ नहीं आया। अब फिर किसी दिन मेरा दिमाग ख़राब होगा और नवाब साहब की शाम ख़राब करने उनके दौलतख़ाने पर जा धमकूँगा।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈