श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री विजी श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित पुस्तक “इत्ती सी बात…” (व्यंग्य संग्रह) पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 167 ☆
☆ “इत्ती सी बात” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक … श्री विजी श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
व्यंग्य संग्रह … इत्ती सी बात
लेखक .. विजी श्रीवास्तव, भोपाल
प्रकाशक .. वनिका पब्लीकेशन, बिजनौर
पृष्ठ ..२२४, मूल्य ३५० रु
चर्चाकार …विवेक रंजन श्रीवास्तव
सतीश शुक्ल का उपन्यास “इत्ती सी बात” नाम से ही प्रकाशित हुआ था, जिसमें दो दोस्तों की कहानियां थी। १९८१ में एक फिल्म आई थी “इतनी सी बात” पारिवारिक ड्रामा था। कोरोना के बाद एक फिल्म आई ‘इत्तू सी बात’ जिस की कहानी इत्ती सी है कि अपनी प्रेमिका से आई लव यू सुनने के लिए एक युवा को आईफोन का जुगाड़ करना है। कहने का आशय यह कि “इत्ती सी बात” में ऐसी बड़ी बातें समाई होती हैं जो बार बार रचनाकारों को आकर्षित करती रहती हैं। व्यंजना के धनी विजी श्रीवास्तव का व्यंग्य संग्रह इत्ती सी बात २०१९ में आया। पिछले लंबे समय से मेरे तकिये के पास था, और मैं इसे मजे लेकर चबा चबा कर पढ़ता रहा। आज आजाद ख्याल विजी भाई का जनमदिन भी है और देश की आजादी की भी वर्षगांठ है, सोचा इत्ती सी बात पर कुछ चर्चा करके विजी जी को बधाई दे दूं। अस्तु।
व्यंग्य पुरोधा डा ज्ञान सर ने लिखा है कि विजी किसी महत्वाकांक्षा के बिना एक बड़े से व्यंग्य लेखक हैं। व्यंग्य यात्रा के सारथी डा प्रेम जनमेजय जी विजी को अपनी पसंद का लेखक बताते हैं। किताब में सम्मलित स्फुट रूप से लिखे गये विभिन्न विषयों के ७२ व्यंग्य लेखों पर व्यंग्य के प्रखर आलोचक सुभाष चंदर जी किताब को सार्थक व्यंग्य की बानगी बताते हैं, व्यंग्य के अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ आलोक पुराणिक ने विजी की व्यंग्य साधना को सहज निरुपित किया है। अनूप शुक्ल इन्हें बिना लाग लपेट के लिखे गये बताते हैं। और शांति लाल जैन जी ने इन व्यंग्य लेखों की भाषा में नटखट चुलबुलापान दूंढ़ निकाला है। समकाल के व्यंग्य परिदृश्य के इस प्रमाणीकरण के बाद लिखने को शेष कम बचता है। स्वयं विजी अपने बिगड़े बोल में किताब को कैक्टस का गुलदस्ता बताते हैं।
विजी चाहते तो इतने स्तरीय कलेवर से कम से कम दो किताबें प्रकाशित कर सकते थे। लंबे समय का विविध स्फुट लेखन किताब में संग्रहित है। कुछ विषय जिन्हें मैंने पढ़ते हुये रेखांकित किया, का उल्लेख करता हूं ” गुरु द्रोण तुम कहाँ हो” “सत्य जो ढूँढन मैं चला” “मुझे अवार्ड लौटाना है” “किसान की आत्मा धरने पर” “कट-कॉपी पेस्ट” “हिन्दी के आँसुओं का विश्लेषण” “विकास की चिंता और इकत्तीस मार्च ” “हिन्दुस्तानी चैनल की बहस” “मौत का मुआवज़ा” “इत्ती सी बात”
” सब कुछ प्रायोजित है” “पेन देंगे भाईसाहब ” …. प्रत्येक व्यंग्य दूसरे से कुछ बढ़कर लगा। पूरी किताब गुदगुदाती है, ऐसा लगता है कि ये मेरी अपनी अनुभुति है, बल्कि कई विषयों पर मैंने भी लिखा ही है, किसी दूसरी तरह किसी भिन्न शीर्षक से, पर यह तय है कि जिन मुद्दों पर संवेदनशील मन कचोटता है, उन पर विजी जी ने कलम चलाई है, बेबाकी से पूरी निष्ठुरता से बिना डरे, व्यंग्य के कौशल व्यंजना और लक्षणा के बोध के साथ संप्रेषण की योग्यता के साथ चलाई है। वे अपने लक्षित पाठकों तक कथ्य पहुंचाने में सफल पाये गये। सभी व्यंग्य छोटे हैं पर लक्ष्य बेधन में सफल हैं। शीर्षक व्यंग्य “इत्ती सी बात ” से उधृत है ” आजादी के इत्ते सालों बाद हमने विकास का जित्ता सफर तय किया है उत्ता तो हमने न जाने कब पीछे छोड़ दिया होता जो उत्ता लुटे न होते ” कित्ती कित्ती कुर्बानियों से बने देश में इत्ती इत्ती सी बात पर झगड़ने से हम कित्ता कित्ता खुद का नुकसान कर लेते हैं ” ऐसी सरल शैली में इत्ती वाजिब चिंता विजी के विजन और सोच बताती है।
“बड़े बाबू की पर्सनल डायरी” में विजी एक नये तरीके से डायरी के पन्नो को व्यंग्य बनाने की क्षमता प्रदर्शित करते हुये एक सर्वथा भिन्न शैली में लिखते हैं। इसी भांति ” तोड़ी नाखो, फोड़ी नाखो, भूको करी नाखो ” नाट्य संवाद शैली का व्यंग्य है। अमिताभ बच्चन और किसान चैनल में भी उन्होंने नवीनता का बोध करवाया है, सुप्रसिद्ध टी वी कार्यक्रम के बी सी की तर्ज पर कटाक्ष से भरपूर सवाल हैं जो किसान के परिदृश्य में करुणा, संवेदना और दर्द से पाठक को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकते। वे अपनी आजीविका में कृषि जगत से जुड़े हुये हैं और उन्होंने जो कुछ बहुत पास से देखा उसे पाठको को उसी भाव से संप्रेषित करने में सफलता अर्जित की है। “रेप से बेअसर रेपो” कटु सचाई है। दुखद है कि विजी ने जो मुद्दे व्यंग्य के लिये चुने वे समाज का शाश्वत नासूर बन रहे हैं। कहा जाता है कि व्यंग्य की उम्र अधिक नहीं होती वह अखबारी होता है, किंतु व्यंग्यकार की दृष्टि, और उसकी अभिव्यक्ति सशक्त हो तो व्यंग्य दीर्घ जीवी बन जाता है, क्योंकि मूल मानवीय और सामाजिक प्रवृतियां किंबहुना स्वरूप बदल बदल कर वही बनी हुई हैं। किताब चर्चा योग्य है, खरीदकर पढ़ना घाटे का सौदा बिल्कुल नहीं है। किताब का अंतिम पैरा पढ़वाता हूं ” अजीबो गरीब कहानियों की जलेबी, फेकम फाँक पगे घेवर, गठजोड़ का खत्टा चिरपरा मिक्चर, किसी को पच नहीं रहा। …. चूरण की जरूरत किसे है ? जनता को या उन्हें जिनकी न लीलने की सीमा न उगलने का शउर है। “न लीलने की सीमा न उगलने का शउर ” से।
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈