डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

आचार्य दुबे ने सुनाई कविता – छूते ही हो गई देह कंचन पाषाणों की

18 अगस्त 24 को संस्कारधानी जबलपुर के साहित्य प्रभाकर, सरल, सहज, मृदुभाषी, आधे सैकड़ा कृतियों के रचयिता, जिन पर दर्जनों शोधपत्र लिखे जा रहे हैं। जिन्होंने चौदह पन्द्रह हजार विविधवर्णी दोहे सृजित किये है। जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कादम्बरी संस्था के यशस्वी अध्यक्ष हैं। जिनका नाम देश-विदेश में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है।

ऐसे महाकवि आचार्य भगवत दुबे जी का बयासी वाँ जन्म दिवस है। मैं विजय तिवारी ‘किसलय’ पूर्वान्ह वरिष्ठ साहित्यकार इंजी. संजीव वर्मा सलिल के साथ उनके निवास पहुँचा। हम दोनों ने 81 वीं वर्षगाँठ पर उनका मुँह मीठा कराया और बधाई दी।

इस अवसर पर मेरे आग्रह पर उन्होंने एक शृंगारिक रचना ‘छूते ही हो गई देह कंचन पाषाणों की’ सुनाई। इसे आप भी यहाँ आत्मसात कर सकते हैं। 

– डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 68 – छूते ही हो गई देह कंचन पाषाणों की… आचार्य भगवत दुबे ☆ साभार डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ ✍

(आचार्य भगवत दुबे जी के बयासी वें जन्मदिवस पर)

छूते ही हो गयी देह कंचन पाषाणों की

है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

*

खंजन नयनों के नूपुर जब तुमने खनकाए

तभी मदन के सुप्तप पखेरू ने पर फैलाए

कामनाओं में होड़ लगी फि‍र उच्चफ उड़ानों की

है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

*

यौवन की फि‍र उमड़ घुमड़ कर बरसीं घनी घटा

संकोचों के सभी आवरण हमने दिए हटा

स्वोत: सरकनें लगी यवनिका मदन मचानों की

है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

*

अधरों से अंगों पर तुमने अगणित छंद लिखे

गीत एक-दो नहीं केलिके कई प्रबन्धन लिखे

हुई निनादित मूक ॠचाएँ प्रणय-पुरोणों की

है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

*

कभी मत्स्यगंधा ने पायी थी सुरभित काया

रोमंचक अध्या‍य वही फि‍र तुमने दुहराया

परिमलवती हुईं कलियाँ उजड़े उद्यानों की

है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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