श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  दहीहांडीकी अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 116 – दहीहांडी ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सावन तो जा चुका है और रक्षाबंधन भी. इसके फिर  कृष्णजन्माष्टमी और गणेशोत्सव के पर्व आने वाले हैं. सावन के आने का इंतजार बेटियां करती हैं, बहनें करती हैं, सावन में पत्नियां और मातायें भी अपने रोल को विस्मृत कर बहनों और बेटियों में सुकून और बचपन ढूंढती हैं. सावन के जाने की प्रतीक्षा करने वाले भी महापुरुष होते हैं जो धार्मिकता और रसरंग में संतुलन बनाने की कोशिश करते हुये अपने सुराप्रेम और सामिष भोज्यप्रेम की चाहत को दबाकर रखते हैं.

आज हम इन महापुरुषों को उनके हाल पर छोड़ते हुये याद करते हैं दहीहांडी के खेल रूपी उत्सव को जो मुख्यतः महाराष्ट्र के सांस्कृतिक उत्सवों की प्राणवायु है. हम मध्यप्रदेश वासी भी अपने बचपन से इस क्रीड़ा के उत्साही दर्शक और कभी कभी इस टोली के कुशल खिलाड़ी रह चुके होंगे.

अब तो मामला पेट से लेकर दिल तक पहुंच चुका है पर फिर भी हमें दिल को चुराने वाले इस खेल के हसरती दर्शक बनने से नहीं रोक पाया है. इस खेल में भाग लेने वालों के समूह की संख्या निर्धारित करने वाला कोई नियम बना नहीं है. इस खेल में टीम नहीं बल्कि टोलियाँ भाग लेती हैं और लक्ष्य बहुत ऊपर लटकी हुई मिट्टी की हांडी होती है जिसके अंदर दही के अलावा कुछ इनामी राशि भी होती है. प्रयास करने के मौके तब तक मिलते रहते हैं जब तक की दहीहांडी सहीसलामत लटकी रहती है.

ये हमारी सांस्कृतिक आदतों से मेल करता है कि ऊपर पहुंचे हुये और अधर में लटके हुओं को फोड़कर नीचे गिराना जो हम बखूबी करते रहते हैं. पिट्टू जमाना, फिर बॉल से फोड़ना और फिर जमाने की कोशिश करते हुये खिलाड़ियों को टंगड़ी मारना नामक क्रिया, क्रीडागत कुशलता की मान्यता कई सालों से लिये हुये है. जो चुस्त और चपल होते हैं वो इन बाधाओं को पारकर विजेता बनते हैं. यही खेल हम सारी जिंदगी खेलते रहते रहते हैं, खेलते रहते हैं. हमारी जीवनयात्रा इन खेलों के बीच से गुज़रते हुये और क्रमशः तीर्थयात्रा को संपन्न करते हुये अंतिमयात्रा की ओर समाप्त होती है जो जय पराजय, यशअपयश, लाभ हानि सब विधि के हाथों में फिर से सौंपकर, इस अंतिम यात्रा के नायक के मुख पर निश्चिंतता की छवि को उकेर देती है. इस तरह के नायकों को भी हम पंचतत्वों के हवाले कर फिर से दहीहांडी के उत्सव में जीवन पाने का प्रयास करते हैं.

दहीहांडी एक टीम या समूह का खेल है. सबसे पहले या सबसे नीचे कुछ बलिष्ठ खिलाड़ी एक दूसरे को मजबूती से पकड़कर ऊपर लक्ष्य की ओर जाने का आधार बनाते हैं. यह आधार कितना मजबूत रहेगा यह इन खिलाड़ियों के तालमेल, मजबूती और आघातों को सहकर भी स्थिर रहने की क्षमता पर निर्भर होता है. ये पहला वृत्त या सर्किल होता है जो जमीन से जुड़ा और जमीन पर खड़ा होता है. बाद में इसकी स्थिरता stability के बल पर ऊपर क्रमशः छोटे सर्किल बनाये जाते हैं. ये जमीन पर तो नहीं खड़े होते पर अपनी संतुलन कला के बल पर ऊंचाई की ओर जाने में महत्त्वपूर्ण सहायक का रोल निभाते हैं. ऊपर की ओर बना हर सर्किल अपनी स्थिरता को उसी अनुपात में खोकर संतुलन कला के दम पर मंजिल पाने का मार्ग प्रशस्त करता है. अंत में वह खिलाड़ी जो सामान्यतः बालअवस्था में होता है, अर्थात “भार कम और चपलता अधिक” के अनुपात से संपन्न होता है, इन्हीं सर्किलों के सहारे ऊपर चढ़ते हुये अंतिम लक्ष्य याने दहीहांडी को फोड़कर विजय प्राप्त करता है. विजय पाने के बाद, यह टोली अपने सारा स्थायित्व, संतुलन और टीमवर्क को दरकिनार कर जीतने के जश्न में डूब कर नाचने लगती है.

सारे खिलाड़ी जीतने की खुशी में नीचे आने की प्रक्रिया भूल जाते हैं. जो गिरता है वह भी कभी कभी इन्हीं हमजोलियों के हाथों संभाल लिया जाता है और यह टोली फिर अगले चौक पर लटकी दहीहांडी को पाने के लिये आगे बढ़ जाती है. यह जीत गिरने से आई चोटों पर पेनकिलर का काम करती है.

इस विजय में, जिसे उसकी भारहीनता और चपलता, मटकी फोड़ने का अवसर देती है, वह बालक ही दर्शकों की निगाहों में नायक बन जाता है पर उसकी यह विजय सिर्फ उसकी भारहीनता याने मानवीय दुर्बलताओं की हीनता और चपलता के कारण ही नहीं बल्कि जमीन से जुड़े और संतुलन कला में निपुण साथी खिलाड़ियों के कारण भी मिलती है.

यही हमारी जीवनयात्रा में मिली सफलताओं का भी सारांश है जिसमें माता-पिता, भाई-बहन, शिक्षकगण, गुरुजन, कोच, संगी-साथी, मित्रगण, पत्नी, संताने, ऑफिस के सीनियर और जूनियर भी अपनी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इन्हें कभी भी भी कमतर समझना या गैर जिम्मेदार समझना, कामचोर समझना, बहुत बड़ी भूल ही कही जायेगी क्योंकि दहीहांडी फोड़ने के बाद नीचे गिरने पर, संभालने वाले हाथों की जरूरत हर विजेता को पड़ती है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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