श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- “हौमेटो की आत्मकथा”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 184 ☆
☆ बाल कहानी – हौमेटो की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
सब्जियों के राजा ने कहा, ‘‘चलो ! आज मैं अपनी आत्मकथा सुनाता हूं.’’ सभी सब्जियों ने हांमी भर दी, ‘‘ ठीक है. सुनाओ. आज हम आप की आत्मकथा सुनेंगे.’’ बैंगन ने कहा.
हौमोटो ने अपनी कथा सुनाना शुरू की.
‘‘बहुत पुरानी बात हैं. उस वक्त मैं रोआनौक द्वीप पर रहता था. वहीं उगता था. वैसे मेरा वैज्ञानिक नाम बहुत कठिन है लाइको पोर्सिकोन एस्कुलेंटक. यह याद रखना बहुत कठिन है. मेरी समझ में नहीं आता है वैज्ञानिकों ने मेरा पहला नाम इतना कठिन क्यों रखा था.
इस नाम को बाद में सोलेनम लाइको पोर्सिकोन कर दिया गया. यह नाम मेरे पहले वाले नाम से बहुत ज्यादा कठिन नहीं है. मगर, मुझे क्या ? मुझे अपने काम से काम रखना है.
कहते हैं कि मेरी उत्पत्ति दक्षिण अमेरिका के एंडीज नाम की जगह पर हुई थी. वहां मैं बहुतायात में पाया जाता था. मेरा हरालाल आकारप्रकार बहुत सुदंर था. इस कारण मुझे बहुत ज्यादा पसंद किया जाता था.
मैंक्सिको के मय जाति के लोग मुझे फिन्टो मेंटल कहते थे. वे मेरी इसी विशेषता के कारण मेरी खेती किया करते थे. वे मुझे मेरे कठिन नाम से नहीं पुकारते थे. ये तो वैज्ञानिक लोगों के लिए था. आम लोग तो कुछ समय बाद मुझे मेटल या हौमेटो कहते थे. बाद में यह नाम और सरल होता गया. लोग मुझे धीरेधीरे हौमेटो कहने लगे. यह हौमेटो कब टौमेटो में बदल गया पता ही नहीं चला.’’
‘‘ओह ! तो तुम हौमेटो से टौमेटो बने हो ?’’ आलू ने पूछा.
‘‘हां भाई. यह अटठारहवी शताब्दी की बात है. उस वक्त लोग मुझे सजावटी चीज समझते थे. मैं कमरे या दालान में सजाने के काम आता था. जैसे आज के लोग क्यारियों में फूल लगा कर अपना आंगन सजा कर रखते हैं. उसी तरह पुराने लोग मुझे क्यारियों में सजावटी पौधे के रूप में मुझे लगाते थे.
जब मैं मेरा फल यानी हौमेटो कच्चा रहता है तब वह हरा रहता था. जब यह हौमेटो पक जाता है तब लाल हो जाता है. इसलिए सजावटी क्यारियों में कहीं लाल टौमेटो होते थे कहीं हरे. इस से क्यारियां बहुत खूबसुरत लगती थी. जैसे फूलों की तरह यह नया फूल लगा हो.
इन्हें तोड़ कर कुछ व्यक्ति अपनी बैठक में मुझे सजा लिया करते थे. जैसे फूलों को गमलों में सजाया जाता है. वैसे मुझे प्लेट में सजा कर रख दिया जाता था. कालांतर में मैं इधरउधर घुमता रहा. लोग मुझे सजावटी चीज समझते थे. उस समय तक मैं अखाद्य यानी नहीं खाने वाली चीज था.
मेरा उपयोग खाने में इसलिए नहीं होता था, क्यों कि लोग मुझे जहरीली चीज समझते थे. उन का मत था कि इसे कोई खा लेगा तो उस की मृत्यु हो जाएगी. मगर, यह धारणा भी जल्दी टूट गई. इस धारण के पीछे एक व्यक्ति की जिद थी. वह व्यक्ति एक रंगसाज था.
हुआ यू कि अमेरिकी जहाज पर एक व्यक्ति काम करता था. वह जहाज को रंगरोगन व सजाने का काम करता था. यह सन 1812 के लगभग की बात है. वह मेरी खूबसूरती पर मोहित हो गया. यह चीज इतनी खूबसुरत है तो खाने में कैसी होगी ? इसलिए वह मेरा स्वाद जानना चाहता था. वह मुझे तोड़ कर खाने लगा.
उस के दोस्त भी जानते थे कि मैं एक जहरीली चीज हूं. जिसे कोई भी खाएगा वह मर जाएगा. इसलिए उस के दोस्तों ने उसे ऐसा करने से मना किया. उसे बहुत समझाया कि इसे खाने से तू मर जाएगा. मगर, वह माना नहीं. उस ने मुझे खा लिया. उसे मेरा स्वाद बहुत बढ़िया लगा.
जब उस के दोस्तों ने देखा कि मुझे खाने से वह व्यक्ति मरा नहीं. तब उन्हें यकीन हो गया कि मैं जहरीला नहीं हूं. तब उन्हों ने भी मुझे नमकमिर्ची लगा कर खाया. उन्हें मेरा स्वाद बहुत अच्छा लगा.
यह बात उस समय अचंभित करने वाली और अनोखी थी. कोई व्यक्ति जहरीला पदार्थ खा ले और मरे नहीं. यह सभी के लिए चंकित कर देने वाली होती है. फिर वही व्यक्ति कहे कि यह तो बड़ी स्वादिष्ठ चीज है. बस इसी कारण यह अनोखी घटना उस वक्त वहां के अखबार में प्रकाशित हुई थी. बात इतनी फैली कि लोगों ने मुझे खाना शुरू कर दिया . यह सब से पहली शुरूआत थी जब मैं सजावटी वस्तु से खाने वाली वस्तु में तब्दील हो गया.
कुछ एशियाई लोग मुझे हौमेटो नहीं बोल पाते थे. उन्हों ने टोमेटो कहना शुरू किया. फिर धीरेधीरे मुझे टमाटो बोलना शुरू कर दिया. कालांतर में मेरा हिन्दी नाम टमाटर पड़ गया. जो आज भी प्रचलित है.
यह बात कितना प्रमाणित है कि हिन्दी नाम टोमेटो से टमाटर कैसे पड़ा, यह मुझे पता नहीं. मगर, एशियाई देशों में मुझे टमाटर नाम से ही जाना जाता है. अंग्रेजी में मुझे आज भी टौमेटो ही कहते हैं.’’
‘‘और मैं बटाटो,’’ आलू ने कहा.
‘‘सही कहते हो भाई,’’ टमाटर ने कहना जारी रखा, ‘‘एक ओर मजेदार बात है. यह बात उस समय की है जब सन् 1812 में जेम्स नामक व्यक्ति ने सास बनाने की विधि खोज निकाली थी. वह विभिन्न चीजों को मिला कर चटनी बनाया करता था. उस समय मशरूम आदि चीजों से स्वादिष्ट चटनी बनाई जाती थी. मछली और विभिन्न चीजों की मांसाहारी चटनी उस वक्त ज्यादा प्रचलित थी.
इस व्यक्ति ने मशरूम से बनने वाली चटनी में मेरा प्रयोग करना शुरू किया. मेरे प्रयोग से चटनी का स्वाद ओर अच्छा हो गया. तब से मैं चटनी के लिए उपयोग में आने लगा.
सन् 1930 तक मेरा प्रयोग मशरूम के साथ होता रहा. जब पहली बार मेरा प्रयोग मशरूम की जगह किया गया. इस से चटनी का स्वाद ओर बढ़ गया. तब यह पहला अवसर था जब मैं चटनी के रूप में स्वतंत्र रूप से उपयेाग में आने लगा. उस वक्त मुझे स्वतंत्र खाद्यसामग्री घोषित कर दिया गया.
उस के बाद मेरे दिन चल निकले. मैं हर सब्जी में स्वाद बढ़ाने के लिए डाला जाने लगा. यह देख कर हैज कंपनी ने 1872 में पहली बार मेरा कैचअप के रूप में प्रायोगिक इस्तेमाल किया. मेरा स्वाद लोगों को इतना भाया कि मैं ने अपना स्वतंत्र रूप ले लिया. आजकल मैं विभिन्न स्वादों और रूपों में मिलने लगा हूं. पहले मेरे अंदर रस ज्यादा रहता था. आजकल मैं बिना रस का भी रहता हूं.’’
‘‘ यह मेरी छोटीसी आत्मकथा थी. सुन कर तुम्हें अच्छी लगी होगी.’’ टमाटर के यह कहते ही सभी सब्जियों ने ताली बजा दी.
‘‘ वाकई तुम्हारी आत्मकथा अच्छी थी.’’ बहुत देर से चुप बैठी आलू ने कहा, ‘‘ अगली बार हम किसी ओर की आत्मकथा सुनना चाहेंगे.’’ कहते हुए आलू चुप हो गया.
© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
16.07.2018
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