श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 299 ☆
बुंदेली बारता – हमाओ दिमाक तन्निक कुंद है बुंदेली में… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
हमसै कभौं कोई कुछ कयें और हम न करें ऐसो होई न सकत. संपादक जी ने भाट्सऐप पे कई कि हमें बुंदेली में कछु लिखने ही है. काऐ से कि अभिनंदन ग्रंथ की किताब बन रई हैं बुंदेली की. अच्छो काम है, अपनी जड़ों को सींचने भोतई जरूरी और अच्छो काम है.
सो हम बुंदेली में लिखने को मन बना के बैठ तो गये, पर सच्ची कै रये, हमाओ दिमाक थोड़ो कुंद है बुंदेली में. पहले कभौं कुछ लिखोई नई हतो हमने बुंदेली में. और एक बात बतायें भले हमाई अम्मा बरी, बिजौरा, बुकनू, कचरियां बनात हैं मगर हमाए घर में हम औरें खड़ी हिन्दी में बतकई करत हैं, सो बुंदेली में लिखबे को तै करके हम बुरे फंसे. हमाओ फील्ड नई है ऐ. फिर हमने सोची कि ऐसो कौन सों अंग्रेजी में हम बड़े एक्सपर्ट हैं, पर बड़े बड़े पेपर लिखत हैं न, बोलत भी हैं, अरे दुनियां घूम आये अंग्रेजी बोल बोल के. फिर आज को जमानो तो ए आई को है, जो अगर कहीं फंसे तो इंटरनेट को आसरो है ना. तो हम कम्प्यूटर खोल के बैठ गये लिखबे को. कौनो मुस्किल नई, हम लिखहैं, आखिर हमो नरो गड़ो है न मण्डला के महलात में.
अब अगलो पाइंट जे आऔ कि आखिर लिखें तो का लिखें ? सोचे कि सबसे अच्छो ये है बुंदेली के बारे में लिख डारें. तो ऐसो है कि देस के बीचोंबीच को क्षेत्र है बुन्देलखण्ड. इते जौन लोकभाषा बोलचाल में घरबार में लोग बोलत हैं, ओही है बुंदेली. कोई लिखो भओ इतिहास नई होने से तै नई है कि बुंदेली कित्ती पुरानी बोली है. पर जे तो सौ फीसद तै है कि बुंदेली बहुतै मीठी बोली है, अरे ईमें तो गारी भी ऐसीं लगें जैसे कान में सीरा पड़ रओ. भरोसा नई हो तो कोनो सादी में बरात हो आओ. घरे पंगत में बिठाके, प्रेम से पुरी सब्जी और गुलगुले खिला खिला के ऐसी ऐसी गाली देंवे हैं लुगाईयां लम्बे लम्बे घूंघट मे कि सुन के तुम सर्मा जाओ. मगर मजाल है कि तुमे बुरो लगे. अरे ऐसी मिठास भरी संस्कृति है बुंदेली की.
हम इत्तो कै सकत हैं कि भरतमुनि के नाट्य शास्त्र में सोई बुंदेली बोली का उल्लेख मिलत है, मने भौतई पुरानी है अपनी बुंदेली. कहो जा सकत है कि बुंदेली की अम्मा प्राकृत शौरसेनी भाषा रई है और संस्कृत को बुंदेली के पिता कै सकत हैं. जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचना कही जात हैं. जगनिक और विष्णुदास को बुंदेली के पहले कवि माने जात हैं. भारतेन्दु के टैम के लोककवि ईसुरी के रचे भये फाग गीत आज भी बुंदेलखंड में मन्डली वालों के रटे भए हैं. ईसुरी के गीतन में बुन्देली लोक जीवन की मिठास, अल्हड़ प्रेम की मादकता और रसीली रागिनी है. जे गीत तबियत तर करके मदमस्त कर देत हैं. पढ़बे बारों ने ईसुरी पर डाक्टरेट कर डारी हैं. उनके गीतन में जीवन को मनो बिग्यान, श्रंगार, समाज, राजनीति, भक्ति, योग, संयोग, वियोग, लौकिक शिक्षा, काया, माया सबै कुछ है. गांवन को बर्णन ईसुरी के फागों में कियो गओ है. मजे की बात जे है कि इत्ते पर भी बुंदेली को लिखो भओ बहुत कम है, सब याददास्त के जरिये सुनत कहत सासों से बहुओ और दादा से पोतों तक चल रओ है. बुंदेली में काम करबों को बहुत गुंजाइस है. बुंदेली में बारता मने गद्य में कम लिखो गओ है. गीत जादा हैं. फाग, गारी, बिबाह गीत, खेतन में काम करबे बकत गाने वाले गीत बगैरा बहुत हैं. जा भाषा सारे बुंदेलखंड में एकई रूप में मिलत आय. मगर बोली के कई रूप में बोलबे को लहजा जगा के हिसाब से बदलत जात है. जई से कही गई है कि कोस-कोस पे बदले पानी, गांव-गांव में बानी. जा हिसाब से बुंदेलखंड में बहुतई बोली चलन में हैं जैसे डंघाई, चौरासी पवारी, विदीशयीया( विदिशा जिला में बोली जाने वाली) बगैरा.
तो हमाओ आप सबन से हाथ जोड़ के बिनती है कि बुंदेली कि डिक्सनरी बनाई जाये, जो कहाबतें और मुहाबरे अपनी नानी दादी बोलत हैं उन्हें लिख के किताब बनाई जाए. बुंदेली गीतों को गाकर यू ट्यूब पर लोड करो जाये. जेमें अपने नाती नतरन को हम कभौं बता सकें कि हाउ स्वीट इज बुंदेली.
© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार
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