सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात के दर्शनीय स्थल)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 25 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 2 ?

(14 फरवरी 2020)

वेरावल शहर छोटा सा बंदरगाह है। समुद्र तट की सुंदरता के अलावा खास दर्शनीय कुछ  और नहीं है। हमारे हाथ में एक दिन बचा था तो सोमनाथ देखने के बाद दूसरे दिन हम दिव (Diu ) के लिए रवाना हुए।

सोमनाथ से दिव 113 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह समुद्री तट पर बसा शहर है। हम से टैक्सी चालक ने कहा कि हम एक दिन में ही दिव देखकर लौट सकते हैं। हमें दिव पहुँचने में 2.50 मिनिट लगे। रास्ता बहुत ही मखमली होने के कारण यह एक आरामदायक सफ़र रहा। हम हभी साधारणतया दमन और दिव कहते हैं पर ये दोनों अलग -अलग शहर हैं।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि गुजरात में सड़कों पर हमारे देश के अन्य शहरों की तरह ढाबे या रेस्तराँ की भरमार नहीं है। यहाँ के निवासी घर से ही थेपला, फाफड़ा, ढोकला, फरसाण आदि भोजन पदार्थ अपने साथ लेकर चलते हैं जिस कारण ढाबे या रेस्तराँ का खास प्रचलन नहीं है। हम लोग प्रातः सात बजे निकले थे तो अपने साथ कुछ भोजन सामग्री लेकर ही चले थे।

कुछ 30 कि.मी. जाने के बाद चाय पीने की इच्छा हुई और सड़क से हटकर ज़रा दूर एक ढाबा सा दिखा। हमने वहाँ अपनी गाड़ी मोड़ ली। ढाबे के बाहर रेतीली भूमि थी जिस पर कुछ  चारपाइयाँ रखी हुई थीं। साथ में एक प्लास्टिक की मेज़ थी जिसके पायों को  रेत में धँसा दिया गया था। अभी सुबह का ही समय था तो हमें गरमागरम चाय और पकौड़े मिले। हम अपने साथ ब्रेड और मक्खन लेकर गए थे तो सब कुछ मिलाकर बढ़िया नाश्ता हो गया।

कुछ दो घंटे बाद हम दिव पहुँचे।

दिव सुंदर स्वच्छ शहर है। पर आज भी वहाँ पुर्तगाली संस्कृति की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। लोगों में लेट बैक एटिट्यूड दिखाई देता है। पुर्तगाली तो चले गए पर अपना असर छोड़ गए। देर सबेरे तक शहर भर में कहीं कोई नज़र नहीं आता। यहाँ लोगों के दिन की शुरुआत भी देर से ही होती है। तब तक सभी दुकानें बंद ही होती हैं।

यह शहर समुद्र तट पर बसा हुआ है। शहर में ख़ास हलचल नहीं है, न ही भीड़भाड़ है। इस तरह का वातावरण और समानता हमने गोवा और पोर्त्युगल में भी अनुभव किया है। यहाँ की आबादी खास नहीं है।

रास्ते से जब टैक्सी गुज़रने लगी तो अधिकतर घर बंद नज़र आए जिन पर ताले जड़े दिखे। पूछने पर चालक ने बताया कि पुर्तगाल से उन स्थानों के निवासियों को स्थायी नागरिकता के लिए वीज़ा दिया जा रहा है जहाँ पुर्तगाली राज्य किया करते थे। हमने सिर पीट लिया। 450 वर्ष की गुलामी के बाद 1961 के करीब देश को उनसे मुक्ति मिली थी और अब यह क्या हो रहा है?

जिन लोगों के दादा – परदादा ने पुर्तगालियों की गुलामी की थी, अत्याचार सहे थे, जबरन ईसाई बनने के लिए मजबूर किए गए थे या प्राण बचाने के डर से अन्यत्र भाग गए थे या मार दिए गए थे उसी  दामन और दिव की आज की यह पीढ़ी  पचास साल बाद पुर्तगाल जाकर बस रही है!

पुर्तगाली स्वभाव से आलसी हैं, उन्हें सब प्रकार के काम करने के लिए लोग चाहिए इसलिए तो वीज़ा दे रहे हैं। न जाने कितने ही लोग विदेश में रहने के लालच में यहाँ से वहाँ चले गए। हमारे देशवासियों को सफेद चमड़े के प्रति इतना आकर्षण है कि फिर एक बार गुलाम बनने को तैयार हो गए। सुना है अवैध रूप से कई कागज़ात बनाकर लोग जाने की ताक में बैठे हैं। पता नहीं हम अपनी भूमि से प्रेम करना कब सीखेंगे!

भारी मन से हम आगे बढ़े। यहाँ कुछ पुराने चर्च हैं, जहाँ रविवार के दिन प्रार्थना सभा होती है। कुछ चर्च तीन सौ वर्ष पुराने भी हैं। इन सभी जगहों पर पर्यटक घूमते दिखाई देते हैं। हम एक विशाल चर्च में घुसे। हम सनातनी धर्म के अनुयायी मंदिर हो या चर्च अपने जूते उतारकर ही भीतर प्रवेश करते हैं। हमारे लिए  देवालय चाहे किसी का भी हो पूजनीय स्थान होता है।

वहाँ बैठा प्रहरी बोला जूते पहनकर जाओ माताजी, यहाँ जूते नहीं निकालते। हम आश्चर्य चकित हुए पर फिर भी जूते उतारकर ही भीतर गए। हमारी संस्कृति किसी दूसरे धर्म के ईश्वर का अपमान करने का अधिकार नहीं देती। चर्च के भीतर कुछ पुरानी मूर्तियाँ देखने को मिलीं बाकी कुछ खास नहीं। सूली पर चढ़ी उदास ईशु की मूर्ति चुपचाप सी नज़र आई। कुछ धूलयुक्त प्लास्टिक की माला गले में पड़ी थी। वैसे फूल-माला चढ़ाने की कोई प्रथा ईसाई समुदाय में नहीं है। संभवतः यह भारत भूमि पर खड़ा गिरजाघर है तो कभी किसी न चढ़ाया होगा। किसी धर्म के पैगंबर को इस तरह देखकर मन भीतर तक उदास हो उठा पर हमारे लिए झुककर प्रणाम करने के अलावा करणीय कुछ भी न था।

आज शहर में निवासी ही नहीं तो चर्च की सटीक देखभाल भी नहीं। पर अपने समय में यह एक जीता जागता प्रार्थनागृह रहा होगा क्योंकि इसकी इमारत बहुत विशाल और भव्य है।

हम घूमते हुए समुद्र तट के पास आ पहुँचे।

इस शहर में समुद्र के किनारे एक बहुत पुराना मंदिर है। कहा जाता है यह मंदिर पांडवों के समय का बना हुआ है। उस समय यहाँ तक समुद्र का जल नहीं आता था। मंदिर गुफानुमा बना हुआ है। गुफा की दीवार पर बड़ा – सा पंचमुखी नाग बनाया हुआ है और नीचे पाँच शिवलिंग हैं। कहा जाता है कि कभी वनवास के दौरान पांडव वहाँ आए थे और पूजा किया करते थे। इसे गंगेश्वर मंदिर कहते हैं। आज समुद्र का जल न जाने कितनी ही बार उन पाँच शिवलिंगों को नहला जाता है। दोपहर को पानी जब भाटे के कारण दूर सरक जाता है तब आराम से दर्शन करना संभव होता है। हम दोपहर को पानी उतरने के बाद ही मंदिर में दर्शन करने पहुँचे। मंदिर स्वच्छ था। कई सीढ़ियाँ उतरकर हम मंदिर के पास पहुँचे जहाँ शिवलिंग बने हुए हैं। एक स्थान पर बड़े से छोटे पाँच शिवलिंगों का दर्शन आश्चर्य की ही बात थी। मूलतः हर शिव मंदिर में एक ही शिवलिंग का दर्शन होता है। यह महाभारत की कथा के अनुसार एक गवाह के रूप में दिखाई देने वाला स्थान है। हमसे पूर्व लोगों ने शिवलिंगों की पूजा की थी। वहाँ खूब सारे नारियल चढ़ावे में रखे हुए थे।

हम और आगे अब समुद्र तट की ओर निकले। पास ही एक पुराना किला बना था जो समुद्र  से होनेवाले आक्रमणों से बचने के लिए बनाया गया था। यह किला भी कुछ तीन सौ वर्ष पुराना ही था। भाटा पूरे ज़ोर पर था जिस  कारण पानी उतर चुका था और बड़े -बड़े पत्थर तथा  चट्टानें अब समुद्र के जल से ऊपर बाहर की ओर निकल आई  थीं। ऐसा लग रहा था मानो विशाल मत्स्य जल से निकलकर हवा को सूँघ रहा हो।

दोपहर का समय था पर समुद्री तट पर शीतल हवा थी। हमें ज़रा भी गर्मी का अहसास नहीं हुआ। तट से दूर समुद्र की लहरें कदमताल करती आतीं और दूर से ही लौट जातीं। उन लहरों पर जब सूरज की किरणें पड़तीं तो असंख्य लहरों के ऊपरी हिस्से यों चमकते मानो कई बड़े से नाग अपने फन पर मणि लेकर द्रुतगति से आगे बढ़ रहे हों। आँखों को एक अद्भुत सुकून का अहसास हो रहा था। हम सभी निःशब्द इस सौंदर्य को सम्मोहित – सा  होकर निहार रहे थे।

समुद्र पर सफ़ेद महीन, मुलायम कपास के समान सुकोमल  रेत फैली थी। पैर मानो उसमें धँसे जा रहे थे और उस मुलायम रेत के भीतर ठंडी रेत जब पैरों को छू रही थी तो पैरों को एक अद्भुत गुदगुदी के साथ आराम का भी अहसास हो रहा था। दोपहर का सूरज सिर पर था। रेत में बहुत ही छोटी -छोटी  सींपियाँ और शंख थे जिन्हें बड़ी संख्या में हम चुनने में व्यस्त हो गए।

एक लड़के ने पास आकर कहा, “ताल ले लो माई” हमारी तंद्रा टूटी। काले से ताल के भीतर मुलायम मीठे नारियल की गरी के समान ताल की मलाई उसने निकालकर हमें दी। मीठा, रसीला स्वादिष्ट! हमने पूछा, “कहाँ से लाया ?”

तो उसने उँगली ऊपर करके तट की ओर इशारा किया। समुद्र के तट पर दूर तक जहाँ नज़र दौड़ाते ताल के ही वृक्ष सजे हुए दिखाई दिए। इतनी देर तक हम सब लहरों को देखकर मुग्ध हो रहे थे उस बालक के कहने पर हमने सुदूर  तट की ओर रुख किया। हवा की वेग से उसके झालरदार पत्ते झूम रहे थे मानो कोई मतवाला हाथी सिर हिलाता हुआ झूम रहा हो।

देर दोपहर तक हम तट पर ही बैठे रहे। शांत वातावरण में लहरों की ध्वनि किसी गीत के धुन के समान कर्ण प्रिय लग रही थी। हम सबने वहीं बैठकर न जाने पृथ्वी के कितने ही विभिन्न समुद्र तट और अपने अनुभवों की चर्चा करते रहे। एक महिला अंगीठी पर भुट्टे भूनकर दे रही थी। हम लोगों ने दोपहर का भोजन तो किया ही न था। जो कुछ साथ लाए थे वही चबाते रहे। भुट्टे के भुनने की तीव्र गंध ने नथुनों को फुला दिया और हमारे पेट में भूख जाग उठी। बड़े -बड़े भुट्टे कोयले की आग पर  सेंके गए और उस पर नींबू और मसाला लगाकर दिया गया। हमने मानो बचपन को फिर एक बार जी लिया।

शाम होने लगी। पानी अब तट की ओर बढ़ने लगा। हमने भी प्रस्थान करना उचित समझा।

रास्ते में एक ढाबे पर गरम थेपले और इलायची अदरकवाली चाय का हमने आनंद लिया। प्रशंसनीय तो यह बात थी कि उस ढाबे को चलानेवाली और काम करनेवाली सभी महिलाएँ ही थीं। साथ में यह संदेश भी मिला कि वहाँ महिलाओं के लिए कोई डरवाली बात नहीं होती है। वे स्वाधीनता से अपना जीवन जीती हैं। वे सब बहुत सुरक्षित महसूस करती हैं। वाह! रे मेरे गुजरात !

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments