डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय कथा – ‘पहचान’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 256 ☆

☆ कथा कहानी ☆ पहचान

मिस्टर टी.पी. त्रिवेदी या तेज प्रकाश त्रिवेदी अब एक रिटायर्ड अफसर हैं। रिटायरमेंट के साथ ही ‘मिस्टर टी.पी. त्रिवेदी’ की खनक खत्म हो गयी और अब वे ‘त्रिवेदी साहब’ रह गये। रिटायरमेंट के बाद पुराने रोब-दाब की यादें थप्पड़ जैसी लगती हैं।

रिटायरमेंट के बाद लोगों के चेहरे कैसे बदल जाते हैं। आसपास मंडराते हुजूम एकदम छंट जाते हैं, जैसे कोई प्रवंचना थी जो मंत्र पढ़ते ही समाप्त हो गयी। दिन भर घर पर मत्था टेकने वाले, भेंटें लेकर आने वाले लोग जैसे किसी जादू से एकाएक ग़ायब हो जाते हैं। सड़क पर मिलते भी हैं तो उनकी नज़र रिटायर्ड आदमी के शरीर से बाहर निकल जाती है, देखकर भी देखना ज़रूरी नहीं समझते। सारे संबंध अपने असली, निर्मम रूप में आ जाते हैं, तटस्थ और व्यवहारिक। रह जाता है अकेलापन और किसी फिल्म की तरह सामने से तेज़ी से गुज़रती, बदलती हुई दुनिया।

रिटायरमेंट के बाद दिन बहुत लम्बे हो जाते हैं। बुढ़ापे में वैसे ही जल्दी आंख खुल जाने और देर से नींद आने के कारण दिन लम्बा हो जाता है, फिर काम से अवकाश दिन को और लम्बा कर देता है। त्रिवेदी जी सवेरे घूमने निकल जाते हैं, आधे घंटे पूजा कर लेते हैं। शाम को भी टहल लेते हैं। फिर भी वक्त भारी लगता है। शाम के घूमने के लिए वे निर्जन सड़कों को ही चुनते हैं क्योंकि व्यस्त सड़कों पर अब नमस्कार करने वाले कम मिलते हैं, उपेक्षा करने वाले ज़्यादा।

शास्त्री रोड पर जो मन्दिर है वहां शाम को अक्सर त्रिवेदी जी जाते हैं। आधा घंटा वहां गुज़ार लेने से उन्हें अच्छा लगता है। आसपास विश्वास और उम्मीद लिए बैठे या ध्यान में डूबे लोग, अगरबत्तियों की गंध, घंटी की टिनटिन— दृश्य सुखकर होता है। आस्था की बड़ी मज़बूत डोर से बंधीं, उसी के सहारे बड़ी-बड़ी मुश्किलों को झेलती स्त्रियां। त्रिवेदी जी को वह दूसरी ही दुनिया लगती है,खलबलाती हुई ज़िन्दगी से अलग।

लेकिन एक चीज़ त्रिवेदी जी को मन्दिर में चैन से नहीं बैठने देती। वह है जूतों की चिन्ता। जूते बाहर छोड़कर भीतर इत्मीनान से बैठना मुश्किल होता है। जूता-चोरी की घटनाएं अक्सर होती रहती हैं। लोग बताते हैं कि वहां आसपास कुछ फटेहाल लोग रहते हैं। उनके बच्चे भक्तों के जूते उड़ाने के चक्कर में घूमते रहते हैं, इसलिए लोगों को जूतों के मामले में सतर्क रहना पड़ता है। त्रिवेदी जी भी भरसक उपाय करते हैं। आजकल उन्होंने नया तरीका खोज लिया है। एक जूते को ढेर के एक कोने में और दूसरे को दूसरे कोने में रख देते हैं। इस तरह चोर को जल्दी जोड़ी चुराने में मुश्किल होती है। शायद इन्हीं तरकीबों की वजह से उनके जूते सुरक्षित रहे।

लेकिन एक दिन जिस चीज़ का डर था वह हो ही गयी। त्रिवेदी जी जूतों को उसी रणनीति से रखकर गये थे, लेकिन जब वे आधे घंटे बाद बाहर निकले तो जूते ग़ायब थे। इस छोर वाला भी और उस छोर वाला भी। लगता है चोर ने उन्हें जूते रखते वक्त देखा होगा, और उनकी चतुराई पर वह शायद बाद में हंसा भी हो। जो भी हो, त्रिवेदी जी के आठ सौ रुपये में खरीदे हुए, आठ महीने पुराने जूते ग़ायब थे, और त्रिवेदी जी बार-बार ढेर पर निगाह फेर रहे थे, जैसे उन्हें जूतों के खोने का भरोसा न हो रहा हो।

अन्ततः उन्होंने हार मान ली। कुछ हो भी नहीं सकता था। जूते की चोरी की रिपोर्ट पुलिस में करना हास्यास्पद लगता था। आये दिन की बात थी। पुलिस किस-किस के जूते ढूंढ़ती फिरे?

हताशा में एक क्षण के लिए एक गन्दा विचार भी आया कि क्यों न ढेर में से जूते का कोई दूसरा जोड़ा पांव में डाल लिया जाए। लेकिन त्रिवेदी जी ने शीघ्र ही अपने को इस घटिया खयाल से मुक्त कर लिया। बात नैतिक अनैतिक की नहीं थी। समस्या मध्यवर्गीय प्रतिष्ठा की थी। यदि किसी ने उन्हें जूता चुराते पकड़ लिया तो उम्र भर की कमाई इज्ज़त एक क्षण में सटक जाएगी। शहर में रहना मुश्किल हो जाएगा। उससे बड़ी बात यह है कि उनके साथ-साथ पूरे खानदान की नककटाई होगी।

वे हार कर मन्दिर से निकल कर सड़क पर आ गये। नंगे पांव सड़क पर आते ही उनकी रीढ़ में फुरफुरी दौड़ गयी।वे घर के भीतर भी पांव में चप्पल डाले रहते थे। कभी नंगे पांव चलना पड़ा तो पांव के नीचे की रेत मन में जाने कैसी गिजगिजाहट पैदा करती थी। शरीर के रोम खड़े हो जाते थे। अब नंगे पांव लम्बा रास्ता तय करना था।

पांव रखते ही रेत और छोटे-छोटे कंकड़ महसूस हुए। मुलायम तलवों में कंकड़ों की चुभन असहनीय लगी। वे पैरों को कुछ तिरछा रखते हुए बढ़े। आसपास बहुत से कांच के टुकड़े और कांटे दिखायी पड़ते थे। उन्हें लगता था कि ये सब उन्हीं के लिए हैं और उनके पांव में ज़रूर चुभेंगे। वे अक्सर इस रास्ते पर आते थे, लेकिन उन्हें इतने सारे कांच और कांटे कभी नहीं दिखे। उनकी नज़र बराबर ज़मीन पर ही गड़ी हुई थी।

उनका मन हुआ कि रिक्शा ले लें, लेकिन उधर रिक्शे बहुत कम थे। मन्दिर के सामने दो रिक्शे ज़रूर खड़े थे, लेकिन लौटने वाले थे। आगे दूर तक कोई रिक्शा दिखायी नहीं पड़ता था।

आगे बढ़ने पर आबादी शुरू हो गयी। उन्हें दो रिक्शे और मिले, लेकिन एक तो उनके रोकने से रुका ही नहीं और दूसरे ने इतने ज़्यादा पैसे मांगे कि वे चुप हो गये। आबादी शुरू होने के साथ वे जूतों के बिना बेहद असमंजस महसूस कर रहे थे। उन्हें लगता था जैसे उनका कद चार छः इंच छांट दिया गया हो। मुंह उठाकर रिक्शों को देखने के बजाय उन्हें सिर झुका कर चलना ज़्यादा सुरक्षित लग रहा था। सिर उठाने पर परिचित चेहरे नज़र आते थे। इस वक्त उन्हें लग रहा था जैसे सब उनके परिचित हैं और सब उन्हें कौतूहल से देख रहे हैं।

थोड़ा आगे बढ़ने पर बायीं तरफ खत्री की किताब की दूकान पड़ी। यहां से उनके घर के बच्चे पढ़ने के लिए किराये पर पत्रिकाएं ले जाते थे। वह उन्हें जानता था। उन्होंने बिना आंखें उठाये कनखियों से देख लिया कि खत्री दूकान पर था। वे सिर झुकाए, अपनी गति तेज़ करके आगे बढ़ गये। चलते-चलते उन्हें दूकान से किसी का स्वर सुनायी पड़ा— ‘रिटायर होने के बाद लोगों की क्या हालत होती है, उधर देखो।’

उन्हें लग रहा था कि सड़क बहुत लम्बी हो गयी है। वे अपनी समझ से घंटों चल चुके थे, लेकिन जब उन्होंने नज़र उठा कर देखा तो सामने ‘प्रदीप मिष्ठान्न भंडार’ था, यानी वे मुश्किल से एक किलोमीटर चले थे।

थोड़ा और बढ़ने पर उन्हें किसी ने आवाज़ दी। देखा, सक्सेना साहब थे। उनके पांव की तरफ इशारा करके बोले, ‘यह क्या है? नंगे पांव कैसे?’

त्रिवेदी जी ने फीकी हंसी हंसकर जवाब दिया, ‘जूते मन्दिर में चोरी हो गये।’

सक्सेना साहब ज़ोर से हंसे— ‘वही तो। मुझे तो देख कर चिन्ता हो गयी कि आप कहीं सनक तो नहीं गये।आजकल बहुत खराब ज़माना है। मेरे दोस्त प्रेमशंकर का जवान लड़का दस बारह दिन पहले एकाएक सनक गया। घर में रहता ही नहीं। इधर-उधर घूमता रहता है। न कपड़ों की चिन्ता, न खाने पीने की। इसीलिए आपको देखकर मैं घबरा गया। सोचा, कहीं ऐसा ही कुछ न हो।’

इसी समय एक रिक्शा बाज़ू से गुज़रा और त्रिवेदी जी ने उसे रोक लिया। घर अब मुश्किल से आधा किलोमीटर दूर था, लेकिन वे बीस रुपये देने को राज़ी हो गये। रिक्शे पर बैठते हुए उन्होंने वैसी ही राहत महसूस की जैसी रास्ते में एकाएक बीमार हो जाने वाले को घर लौटने के लिए कोई वाहन मिल जाने पर होती है। वे बहुत थकान महसूस कर रहे थे। यह थकान शारीरिक कम और मानसिक ज़्यादा थी। उन्हें लगा जैसे सारे रास्ते उन पर एक बहुत बड़ा बोझ लदा रहा हो।

घर में घुसते ही पूछताछ शुरू हुई। सब ने अफसोस ज़ाहिर किया, लेकिन सबको चर्चा के लिए एक विषय भी मिल गया। घर के लोग अपने दोस्तों के बीच बताते हैं, ‘यार, कल मन्दिर में किसी ने पिताजी के जूते पार कर दिये। क्या ज़माना है!’ सुनने वाला भी कोई किस्सा निकालता है। फिर किस्से में किस्सा जुड़ता जाता है। वक्त कट जाता है।

त्रिवेदी जी ने घर में घुसकर जैसे बड़ी मुसीबत से मुक्ति पायी। सड़क पर उन्हें लग रहा था जैसे जूते खोने के साथ समाज में उनकी पहचान गड़बड़ा गयी हो। समाज के साथ उनका समीकरण उलट-पलट हो गया हो। अब घर लौटने के बाद वे फिर आश्वस्ति महसूस कर रहे थे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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