सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 26 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 3
(15 फरवरी 2020)
गुजरात के वेरावल शहर में यह हमारा तीसरा दिन था। उस दिन सुबह फिर एक बार सोमनाथ दर्शन कर हम पोरबंदर होते हुए द्वारका के लिए रवाना हुए।
इस समय यहाँ चौड़ी – सी सड़क बनाई जा रही थी और कहीं – कहीं सड़क तैयार भी थी। सोमनाथ से द्वारका 236 किलोमीटर की दूरी है। इसे तय करने में वैसे तो साढ़े तीन घंटे ही लगते हैं पर हम बीच में अन्य कई स्थान होते हुए द्वारका पहुँचे जिस कारण हमें द्वारका पहुँचते हुए दोपहर के तीन बज गए।
सड़क समुद्र से खास दूर न होने की वजह से हवा में एक अलग- सी गंध थी और हवा भी शीतल थी। जब गाड़ी समुद्र से थोड़ी दूरी से गुज़रती तो समुद्र की लहरों के उठने और गिरने की आवाज स्पष्ट सुनाई देती जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया और पानी उतरता गया वैसे -वैसे आवाज कम होती गई।
हमने ए.सी चलाने की बजाए खिड़कियाँ खुली रखना अधिक पसंद किया। सड़क के दोनों किनारे पर खेत नज़र आए। हरियाली मनभावन थी। हवा के कारण खड़ी फसलें इस तरह झूमती मानो आते – जाते लोगों का नतमस्तक होकर वे सबका स्वागत कर रही हों।
हम पोरबंदर पहुँचे। यहाँ का आकर्षण था उस घर को देखना जहाँ गाँधी जी का जन्म हुआ था। यहीं पोरबंदर में श्रीकृष्ण के घनिष्ठ मित्र सुदामा का भी निवास स्थान था। हमारे लिए दोनों ही स्थान उत्साह का कारण थे।
हम टैक्सी स्टैंड पर उतरे और भीड़ को धकेलते हुए एक ऑटोरिक्शा में बैठे। एक सुंदर पीले रंग से रंगी बड़ी – सी इमारत के सामने रिक्शा रुक गई। इस इमारत का नाम है कीर्ति मंदिर जिसके भीतर प्रवेश करने पर बड़ा- सा आँगन पड़ता है। सीढ़ी से ऊपर दूसरी मंज़िल पर कस्तूरबा पुस्तकालय है। इमारत की दाहिनी ओर मंदिर- सा बना हुआ है। सभी धर्म की निशानियाँ यहाँ देखने को मिलती है। कहीं कलश तो कहीं गुंबद सा बना हुआ है पर हाँ कहीं कोई मूर्ति नहीं है। यह एक दोमंजिला भव्य इमारत है जो वास्तव में एक संग्रहालय ही है।
यहाँ गाँधी जी के जीवन से जुड़ी कई अहम घटनाओं की तस्वीरें लगी हुई हैं। यों कह सकते हैं कि यह फोटोगैलरी ही है। बा और बापू दोनों की युवावस्था की बड़ी तस्वीर देखने को मिलती हैं। जिसके तीन तरफ़ काँच लगा हुआ है।
इस विशाल आँगन में प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को भव्य उत्सव और कार्यक्रम का आयोजन होता है। बड़ी संख्या में यहाँ लोग उपस्थित होते हैं।
आँगन की बाईं ओर गाँधी जी का जन्मस्थल है। यह इमारत आज दोमंजिली है जिसमें बाईस कमरे हैं पर ये सभी कमरे बहुत छोटे -छोटे ही हैं। कुछ – कुछ कमरों में मेज़नाइन फ्लोर भी बने हुए हैं।
2 अक्टोबर 1869 को जब गाँधी जी का यहाँ जन्म हुआ था तब यह एक पतली गलीनुमा जगह थी। आज जिस विशाल कीर्ति मंदिर को पर्यटक देखने जाते हैं वह बाद में बनाया गया है।
गाँधी जी के जन्मस्थल वाली इमारत उनके दादाजी के पिता (पड़पिता) ने 1777 में बनवाई थी। उस समय यह एक मंज़िली इमारत थी बाद में परिवार बड़ा होने पर कमरे भी बढ़ते गए। यह अपने समय में तीन मंज़िली इमारत तक बनाई गई थी। बाद में इसमें कुछ परिवर्तन किए गए। आज यह दोमंज़िली इमारत है।
इस इमारत में पर्यटकों की जानकारी के लिए उस स्थान पर जहाँ गाँधी जी जन्मे थे, वहाँ गाँधीजी की एक बड़ी – सी तस्वीर लगी हुई है। जहाँ वे चरखा चलाते हुए दिखाई देते हैं। इस तस्वीर के नीचे एक स्वास्तिक बना हुआ है यही मूल उनका जन्म स्थल है। सभी लोग इस जगह पर एकत्रित होते रहते हैं।
हमारी संस्कृति में स्वास्तिक का बहुत महत्त्व है। यह हर सनातनी धर्म को माननेवाला अच्छी तरह से जानता है पर आश्चर्य की बात यह देखने को मिली कि पर्यटकों को गाँधी जी की तस्वीर के नीचे खड़े होकर तस्वीर खिंचवाने का इतना तीव्र शौक था कि वे स्वास्तिक की अवहेलना करते हुए उस पर जूते -चप्पल पहनकर खड़े हो गए। हमारा मन भीतर तक न केवल क्रोध से भर उठा बल्कि लोगों की इस मूर्खता और अज्ञानता पर मन उदास भी हो उठा। मुझे काफी समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी और तब जाकर उस स्वास्तिक वाली जगह खाली मिली तो गाँधीजी की तस्वीर स्वास्तिक के साथ कैमरे में कैद कर पाई।
स्पष्ट दिखाई देता है कि हम अपनी संस्कृति से कितनी दूर चले गए हैं। यह विडंबना ही है और दुर्भाग्य भी कि आज की पीढ़ी इन बातों को अहमियत नहीं देती।
हम हर कमरे को घूम-घूमकर देखने लगे। हर एक कमरा स्वच्छ है और छोटी – छोटी खिड़कियाँ हरे रंग से रंगी हैं। दरवाज़े भी खास ऊँचे नहीं हैं। दरवाजे और दीवारों पर आकृतियाँ बनाई हुई हैं। कुछ दरवाज़े तो महलों की तरह एक सीध में हैं। एक के पास खड़े रहकर सीधे में चार -पाँच दरवाज़े और भी दिखाई देते हैं। सभी खिड़कियाँ और मचान नुमा कमरे ये सभी लकड़ी की बनी हुई हैं। इस घर में गाँधी जी बचपन में कुछ वर्ष तक रहे थे। बाद में उनका अधिकांश समय राजकोट में बीता।
कीर्ति मंदिर वाली जगह बाद में बनाई गई। गाँधी जी के एक प्रिय अनुयायी थे श्री दरबार गोपालदास देसाई के नाम से जाने जाते थे वे। नानजी भाई कालिदास मेहता ने 1947 में इस मंदिर को बनाने के लिए बड़ी रकम दी तब गाँधीजी जीवित थे। पर इस भवन कोञ पूरा करने में 1950 तक का समय लग गया था। इस सुंदर स्थान को बा और बापू अपनी आँखों से न देख पाए।
हम ऑटोरिक्शा में बैठकर टैक्सीस्टैंड पर लौट आए। उसी भीड़ भाड़ के बीच एक मंदिर बना हुआ है जिसे श्रीकृष्ण के मित्र सुदामा का घर माना जाता है। आज यह घर नहीं बल्कि एक मंदिर जैसी संरचना है। आस पास न केवल भीड़ है बल्कि कूड़ा करकट और गाय बैलों के झुंड भी नज़र आते हैं।
कहा जाता है कि यहीं से चलकर सुदामा द्वारका पहुँचे थे।
हमें यह देखकर अत्यंत दुख भी हुआ कि हम एक ऐतिहासिक स्थल को स्वच्छ रखने से भी चूकते हैं। यह जागरुकता का अभाव ही है।
पोरबंदर महाभारत काल से इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बनाए हुए है। अंग्रेजों के शासन काल में यह एक रियासती गढ़ था। यह व्यापार का क्षेत्र भी रह चुका है। कृष्ण सुदामा मंदिर एक और दर्शनीय स्थल है।
फिर हम अपने गंतव्य की ओर बढ़े। मंज़िल थी द्वारका। पोरबंदर से निकलकर जैसे – जैसे द्वारका के करीब पहुँचने लगे तो हरे भरे खेत न जाने क्यों अचानक विलीन से हो गए और दूर तक बंजर भूमि दिखाई देने लगी जो कंटीली झाड़ियों से पटी थी। इस इलाके में अब केवल बकरियों के झुंड दिखाई देने लगे जो पिछली टाँगों पर खड़ी होकर कंटीले झाड़ियों की ही फलियों का स्वाद ले रही थीं।
हम आपस में चर्चा करने लगे कि अचानक सारी ज़मीन बंजर क्यों हो गई? और यह अंतर आँखों को जैसे चुभ रही थी। चालक ने खुशखबरी देते हुए बताया कि गुजरात सरकार अब संज्ञान लेने लगी है और इन बंजर भूमि के टुकड़ों को लीज़ पर लेकर उस पर औषधीय पौधे लगाने का आयोजन किया जा रहा है।
बातों ही बातों में हम द्वारका नगरी आ पहुँचे। अभी सूर्यास्त को काफी समय था तो हम वहाँ के प्रसिद्ध शिव मंदिर का दर्शन कर आए। एक मंदिर समुद्र तट से जल में भीतरी ओर है जिसे भदकेश्वर मंदिर कहा जाता है। यह खास बड़ा मंदिर नहीं है। जब समुद्र का पानी भाटे के समय उतर जाता है तो दर्शन करना आसान हो जाता है। शाम के समय वहाँ बना मार्ग पानी में डूब सा जाता है केवल मंदिर का हिस्सा बचा रहता है।
दूसरा है नागेश्वर मंदिर। यहाँ मंदिर के परिसर में शिव जी की विशाल मूर्ति बनी हुई है। भक्तों की लंबी कतार भी लगी थी। भक्त मंदिर में कई प्रकार के फल, फूल, अनाज आदि ले जाते हैं चढ़ावे के रूप में। इन्हें खाने के लिए बैलों की बड़ी संख्या मंदिर के परिसर में घूमते दिखाई दिए। साथ ही कबूतरों को ज्वारी खिलाने की भी व्यवस्था है तो कबूतरों का भी झुंड उड़ता फिरता है। भीड़, पशु, पक्षी, जूते चप्पल, फेरीवाले, फोटोग्राफर सब कुछ मिलाकर वहाँ एक अजीब- सी भीड़ महसूस हुई और साथ में गंदगी भी। हम बाहर से ही दर्शन कर उल्टे पाँव लौटे।
हम आज भी न जाने क्यों भक्ति के साथ -साथ स्वच्छता को जोड़ने में असमर्थ हैं। अक्सर मंदिरों में भोजन आदि चढ़ावे के कारण जब साफ़ सफ़ाई दिन में कई बार न किए जाएँ तो चारों ओर फल फूल अनाज फैले हुए दिखाई देते हैं। मन में सवाल उठता है कि क्या भगवान इस अस्वच्छ वातावरण में रहना कभी पसंद करेंगे? न जाने हम कब इस दिशा और विषय की ओर सतर्क होंगे!
मंदिर के बाहर बड़ी संख्या में गरीब बच्चे नज़र आए। कोई बीस -बाईस होंगे जो चार साल से बारह -तेरह वर्ष के होंगे। उन सबने हमें घेर लिया। क्या चाहिए पूछने पर कुछ बच्चों ने दुकान में शीशे की अलमारी में रखी अमूल दूध की ओर इशारा किया। उन सभी बच्चों के हाथों में एक -एक अमूल दूध की बोतल थमाकर हम अपने होटल की ओर बढ़े।
हम भी दिन भर की यात्रा के बाद थक चुके थे तो अब आराम भी आवश्यक था और मन में एक संतोष की भावना भी।
© सुश्री ऋता सिंह
फोन नं 9822188517
ईमेल आई डी – ritanani[email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈