डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘मनुष्यों में आहार-श्रृंखला । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 258 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मनुष्यों में आहार-श्रृंखला 

आदमी अपनी उपलब्धियों की कितनी ही डींग मार ले, कभी न कभी उसे प्रकृति की अद्भुत व्यवस्था के सामने नतमस्तक होना पड़ता है। प्रकृति की ऐसी ही एक व्यवस्था ‘फूड-चेन’ यानी आहार-श्रृंखला है जिसके अनुसार पोषक-तत्व और ऊर्जा एक जीव से दूसरे जीव में स्थानांतरित होती है। जब एक जीव दूसरे को अपना भोजन बनाता है तो पोषक-तत्वों और ऊर्जा का स्थानांतरण पहले जीव से दूसरे जीव में हो जाता है। सन्देह होता है कि कहीं इस प्रकृति-प्रदत्त ऊर्जा को ही हम ‘आत्मा’ कह कर तो नहीं पुकारने लगे,जिसे भगवद्गीता में अच्छेद्य,अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य कहा गया है।

विज्ञान के अनुसार ऊर्जा न तो निर्मित की जा सकती है, न ही वह नष्ट होती है। वह केवल जीवों के बीच में हस्तांतरित होती है। ऊर्जा के इस हस्तांतरण के कई स्तर होते हैं। सबसे निचले स्तर पर पौधे होते हैं जिन्हें उत्पादक या प्रोड्यूसर कहा जाता है क्योंकि ये सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर अपना भोजन तैयार करते हैं। इस प्रक्रिया को ‘फोटोसिंथेसिस’ कहते हैं। इनके ऊपर उपभोक्ताओं की अनेक श्रेणियां होती है जिन्हें प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक उपभोक्ता कहा जाता है। उदाहरण के लिए, घास उत्पादकों की श्रेणी में आती है, उसे खाकर एक टिड्डा पोषक-तत्व और ऊर्जा प्राप्त करता है। टिड्डे को चूहा, चूहे को सांप और सांप को उकाब या गरुड़ खाता है। इस प्रकार ऊर्जा के स्थानांतरण का क्रम चलता रहता है और आहार-श्रृंखला का निर्माण होता जाता है। श्रृंखला के अन्तिम छोर पर ‘स्केवेंजर्स’ यानी सियार और लकड़बग्घे जैसे सफाई करने वाले जीव और  ‘डीकंपोज़र्स’ यानी मरे पशुओं को खाकर मिट्टी में बदल देने वाले फंगस और बैक्टीरिया जैसे जीव होते हैं।

जब ‘डीकंपोज़र्स’ जीव के शरीर को मिट्टी में परिवर्तित कर देते हैं तो ऊर्जा पुनः मिट्टी की शक्ल में प्रकृति की व्यवस्था में लौट आती है और चक्र पूरा हो जाता है।
मनुष्य भी इसी प्रकार ऊर्जा प्राप्त करता है। वह शाकाहारी भी होता है और मांसाहारी भी। इसलिए उसे प्राथमिक उपभोक्ता या द्वितीयक (अथवा  तृतीयक)उपभोक्ता कहा जा सकता है।

लेकिन मनुष्य अन्य जीवों की तुलना में अधिक बुद्धि-संपन्न प्राणी है, प्रकृति के द्वारा निर्मित आहार-श्रृंखला से उसका पेट नहीं भरता। इसलिए उसने अपने लिए प्रकृति की आहार- श्रृंखला से इतर आहार-श्रृंखला निर्मित की है जो उसे अधिक पोषण और ऊर्जा प्रदान करती है। इस श्रृंखला को ‘उत्कोच-श्रृंखला’ कहा जा सकता है। इस आहार-श्रृंखला के उपभोक्ता कुछ खास पदों पर बैठे खुशकिस्मत लोग होते हैं जब कि इसमें उत्पादक विभिन्न व्यवसायों में लगे बहुसंख्यक लोग होते हैं।

मनुष्य के द्वारा निर्मित इस आहार- श्रृंखला में उत्पादक से ऊर्जा और पोषण का संग्रह सबसे निचले अधिकारी या सबसे ऊपर के अधिकारी के द्वारा किया जाता है। इसके बाद ऊर्जा का स्थानांतरण उचित अंशों में नीचे से ऊपर की ओर या ऊपर से नीचे की ओर होता है। इस क्रम में थोड़ी बहुत हिंसा या क्रूरता उत्पादक के साथ ही होती है। उसके बाद पोषक-तत्वों का हस्तांतरण प्रेमपूर्वक, ईमानदारी से होता है, जबकि अन्य जीवों में उपभोग के प्रत्येक स्तर पर हिंसा और क्रूरता का व्यवहार होता है। इस दृष्टि से मनुष्य के द्वारा निर्मित आहार-श्रृंखला प्रकृति की आहार- श्रृंखला की तुलना में अधिक  मानवीय कही जा सकती है।

मनुष्यों की आहार-श्रृंखला में ‘स्केवेंजर्स’ भी होते हैं जो आहार-ग्रहण की प्रक्रिया के सबूतों को मिटाते हैं। इसी प्रकार इसमें ‘डीकंपोज़र्स’ होते हैं जो मरे-गिरे मनुष्य को अपना भोजन बनाकर उसे मिट्टी बना देते हैं।

मनुष्य को इस श्रृंखला में अपने संचित पोषक-तत्वों को चोरों, लुटेरों,ई.डी.,इनकम टैक्स जैसे शिकारियों से बचाना पड़ता है। इनसे बच गये तो फिर मनुष्य को यह सुविधा मिलती है कि अपने पोषक-तत्वों को अपनी सन्तानों को हस्तांतरित कर सके और अपनी तरह उनके जीवन को भी खुशहाल बना सके।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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