डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख याद व विवाद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 253 ☆

☆ याद व विवाद 

“भूलने की सारी बातें याद हैं/ इसलिए ज़िंदगी में विवाद है।” इंसान लौट जाना चाहता/ अतीत में/ जीना चाहता उन पलों को/ जो स्वर्णिम थे, मनोहारी थे/ खो जाना चाहता/ अतीत की मधुर स्मृतियों में/ अवगाहन करना चाहता, क्योंकि उनसे हृदय को सुक़ून मिलता है और वह उन चंद लम्हों का स्मरण कर उन्हें भरपूर जी लेना चाहता है। जो गुज़र गया, वह सदैव मनभावन व मनोहारी होता है। वर्तमान, जो आज है/ मन को भाता नहीं, क्योंकि उसकी असीमित आशाएं व आकांक्षाएं हृदय को कचोटती हैं, आहत करती हैं और चैन से बैठने नहीं देती। इसका मूल कारण है भविष्य के सुंदर स्वप्न संजोना। सो! वह उन कल्पनाओं में डूब जाना चाहता है और जीवन को सुंदर बनाना चाहता है।

भविष्य अनिश्चित है। कल कैसा होगा, कोई नहीं जानता। अतीत लौट नहीं सकता। इसलिए मानव के लिए वर्तमान अर्थात् आज में जीना श्रेयस्कर है। यदि वर्तमान सुंदर है, मनोरम है, तो वह अतीत को स्मरण नहीं करता। वह कल्पनाओं के पंख लगा उन्मुक्त आकाश में विचरण करता है और उसका भविष्य स्वत: सुखद हो जाता है। परंतु ‘इंसान करता है प्रतीक्षा/ बीते पलों की/ अतीत के क्षणों की/ ढल चुकी सुरमई शामों की/ रंगीन बहारों की/ घर लौटते हुए परिंदों के चहचहाने की/ यह जानते हुए भी/ कि बीते पल/ लौट कर नहीं आते’– यह पंक्तियाँ ‘संसार दु:खालय है और ‘जीवन संध्या एक सिलसिला है/ आँसुओं का, दु:खों का, विषादों का/ अंतहीन सिसकियों का/ जहाँ इंसान को हर पल/ आंसुओं को पीकर/  मुस्कुराना पड़ता है/ मन सोचता है/ शायद लौट आएं/ वे मधुर क्षण/ होंठ फिर से/ प्रेम के मधुर तराने गुनगुनाएं/ वह हास-परिहास, माधुर्य/ साहचर्य व रमणीयता/ उसे दोबारा मिल जाए/ लौट आए सामंजस्यता/ उसके जीवन में/ परंतु सब प्रयास निष्फल व निरर्थक/ जो गुज़र गया/ उसे भूलना ही हितकर/ सदैव श्रेयस्कर/ यही सत्य है जीवन का, सृष्टि का। स्वरचित आँसू काव्य-संग्रह की उपरोक्त पंक्तियाँ इसी भाव को प्रेषित व पोषित करती हैं।

मानव अक्सर व्यर्थ की उन बातों का स्मरण करता है, जिन्हें याद करने से विवाद उत्पन्न होते हैं। न ही उनका कोई लाभ नहीं होता है, न ही प्रयोजन। वे तत्वहीन व सारहीन होते हैं। इसलिए कहा जाता है कि मानव की प्रवृत्ति हंस की भांति नीर-क्षीर विवेकी होनी चाहिए। जो अच्छा मिले, उसे ग्रहण कर लें और जो आपके लिए अनुपयोगी है, उसका त्याग कर दीजिए। हमें चातक पक्षी की भांति स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूंदों को ग्रहण करना चाहिए, जो अनमोल मोती का रूपाकार ग्रहण कर लेती हैं। सो! जीवन में जो उपयोगी, लाभकारी व अनमोल है– उसे उसका ग्रहण कीजिए व अनमोल धरोहर की भांति संजो कर रखिए।

इसी प्रकार यदि मानव व्यर्थ की बातों में उलझा रहेगा; अपने मनो-मस्तिष्क में कचरा भर कर रखेगा, तो उसका शुभ व कल्याण कभी नहीं हो सकेगा, क्योंकि पुरानी, व्यर्थ व ऊल-ज़लूल बातों का स्मरण करने पर वाद-विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है, जो तनाव का कारण होती है। इसलिए जो गुज़र गया, उसे भूलने का संदेश अनुकरणीय है।

हमने अक्सर बुज़ुर्गों को अतीत की बातों को दोहराते हुए देखा है, जिसे बार-बार सुनने पर कोफ़्त होती है और बच्चे-बड़े अक्सर झल्ला उठते हैं। परंतु बड़ी उम्र के लोग इस तथ्य से अवगत नहीं होते कि सेवा-निवृत्ति के पश्चात् सब फ्यूज़्ड बल्ब हो जाते हैं। भले ही वे अपने सेवा काल में कितने ही बड़े पद पर आसीन रहे हों। वे इस तथ्य को स्वीकारने को लेशमात्र भी तत्पर नहीं होते। जीवन की साँध्य वेला में मानव को सदैव प्रभु स्मरण करना चाहिए, क्योंकि अंतकाल केवल प्रभु नाम ही साथ जाता है। सो! मानव को विवाद की प्रवृत्ति को तज, संवाद की राह को अपनाना चाहिए। संवाद समन्वय, सामंजस्य व समरसता का संवाहक है और अनर्गल बातें अर्थात् विवाद पारस्परिक वैमनस्य को बढ़ावा देता है; दिलों में दरारें उत्पन्न करता है, जो समय के साथ दीवारों व विशालकाय दुर्ग का रूप धारण कर लेती हैं। एक अंतराल के पश्चात् मामला इतना बढ़ जाता है कि उस समस्या का समाधान ही नहीं निकल पाता। मानव सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है;  हैरान-परेशान रहता है, जिसका अंत घातक की नहीं; जानलेवा भी हो सकता है।  आइए! हम वर्तमान में जीना प्रारंभ करें,  सुंदर स्वप्न संजोएं व भविष्य के प्रति आश्वस्त हों और उसे उज्ज्वल व सुंदर बनाएं। हम विवाद की राह को तज/ संवाद की राह अपनाएं/ भुला ग़िले-शिक़वे/ दिलों में क़रीबियाँ लाएं/  सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की/ राह पर चल/ धरा को स्वर्ग बनाएं।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments