डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘एक दिन ऐसा आयेगा। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 262 ☆

☆ व्यंग्य ☆ एक दिन ऐसा आयेगा

दफ्तर में एक टाइपिस्ट की ज़रूरत थी। अभी पोस्ट की मंज़ूरी नहीं आयी थी, इसलिए एक एडहॉक नियुक्ति करने का फैसला हुआ।

बंसगोपाल बाबू संकोच में सिमटते- सिकुड़ते साहब के पास पहुंचे, बोले, ‘सर, टाइपिस्ट की जगह के लिए अगर मेरे साले के नाम पर विचार हो जाए तो जनम जनम आपके गुन गाऊंगा।’

साहब पढ़े-लिखे, समझदार आदमी थे। बोले, ‘अगले जनम में तो आप तभी गुण गाएंगे जब आपको आदमी की योनि मिले। यह पक्का नहीं। इसलिए इसी जन्म की बात कीजिए। आपके साले साहब की टाइपिंग की स्पीड कैसी है?’

बंसगोपाल बाबू सिर खुजाते हुए बोले, ‘सर, अभी एक महीने से सीख रहा है। अभी तो थोड़ा धीमा है, लेकिन जल्दी फारवट हो जाएगा। दफ्तर में लग जाएगा तो सीख जाएगा।’

साहब बोले, ‘दफ्तर कोई टाइपिंग सिखाने वाला इंस्टिट्यूट नहीं है, बंसगोपाल बाबू। आप चाहें तो कल अपने साले साहब को ले आइए।मैं काम कराके देखूंगा, तभी फैसला करूंगा।’

दूसरे दिन साले साहब आ गये। साहब ने उनकी जांच की, फिर बोले, ‘बंसगोपाल बाबू, आपके साले साहब ज़्यादा देर टाइप करेंगे तो कंप्यूटर को सुधरने भेजना पड़ेगा। काफी वज़नदार हाथ मारते हैं। स्पीड बहुत धीमी है। अभी आप इनको घर पर ही रखिए। कुछ दिन रियाज़ करने के बाद देखेंगे।’

अशोक नाम के लड़के को रख लिया गया। कुछ दिन बंसगोपाल बाबू अशोक से नाराज़ रहे क्योंकि वह उनके साले की जगह छीन कर बैठा था, फिर धीरे-धीरे सामान्य हो गये।

अशोक अस्थायी था इसलिए दब कर रहता था। साहब जो भी काम बताते, बिना ना- नुकुर के कर देता। दूसरे बाबू पांच बजे तक अपने  दराज़ों में  ताले जड़कर चलते बनते, वह छः सात बजे तक खटर-पटर करता रहता। उसे साहब को खुश रखकर अपना भविष्य बनाना था।

साहब से तो कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन दूसरे सभी बाबू यह समझने लगे थे कि उसकी नियुक्ति विशेष तौर से उन्हीं की सेवार्थ हुई है। दफ्तर में एक  और पुराने टाइपिस्ट बाबू सेवालाल थे। वे अपना तीन-चौथाई काम उसके सिर पर पटक देते थे। सिर्फ बहुत महत्वपूर्ण कागज़ों के लिए ही वे अब कंप्यूटर को अपनी उंगलियों का स्पर्श-सुख देते थे। उनका कहना था— ‘काम नहीं करोगे तो सीखोगे कैसे? खूब टाइप करोगे तभी तो रवानी आयेगी।’

पूरे दफ्तर की नज़र उस पर जमी रहती थी। वह फुरसत में दिखा नहीं कि किसी न किसी कोने से आवाज़ आ जाती थी— ‘भैये, जरा एक मिनट आना। ये फिगर चेक कर लेना। कहीं गलती न रह गयी हो।’ फिर खाली हुआ कि दूसरे कोने से आवाज़ आ जाती— ‘अरे ब्रदर, जरा आना तो। इन बिलों की एंट्री कर दो। वो शर्मा बाबू बुला रहे हैं। थोड़ा बैठ आऊं।’

उसके बगल वाले नन्दी बाबू तो बगुले की तरह उसकी मेज़ पर नज़र जमाये रहते थे। ज़रा खाली हुई नहीं कि अपना गट्ठा उसकी तरफ सरका देते। कहते, ‘जरा निपटाओ भैया, अपना तो सिर दर्द करने लगा।’

वह अपने काम से जब भी ऊपर नज़र उठाता, उसे कोई न कोई हाथ बुलाने के लिए हिलता नज़र आता। इसलिए वह अपना सिर कम  उठाता था। सीधे देखने के बजाय वह  कनखियों से ज़्यादा देखता था। काम  इतना लाद दिया जाता कि वह लंच टाइम में भी लगा रहता। एक दो बाबू थे जो उस पर दया-दृष्टि रखते थे, लेकिन बाकी सब उसे लद्दू घोड़ा समझकर अपना काम उस पर पटके जा रहे थे।

कुछ लोग रोज़ दफ्तर से दस बीस शीट कागज़ घर ले जाने के  आदी थे। वे भी उसी से मांगते। कहते, ‘घर में थोड़ा बहुत लिखा-पढ़ी का काम रहता है। दफ्तर में इतना कागज रहता है। पैसा खर्चने से क्या फायदा?’

बड़े बाबू का तरीका दूसरा था। अशोक काम में लगा रहता तो वे मिठास से कहते, ‘अशोक बाबू, कितना काम करोगे? थोड़ा घूम घाम आओ।’

वह जाने के लिए उठता तो वे अपनी जैकेट की जेब में हाथ डालते, कहते, ‘एक ज़र्दे वाला पान लेते आना।’

पान की फरमाइश करते वक्त वे अपना हाथ हमेशा जैकेट की जेब में डालते ज़रूर थे, पर सबको पता था कि वे पैसा कुर्ते की जेब में रखते थे। उनका हाथ जैकेट की जेब में तब तक घुसा रहता था जब तक अशोक ‘रहने दीजिए बड़े बाबू, मैं ले आऊंगा’ न कह देता। उसके यह कहते ही वे संकोच दिखाते हुए ‘अरे भाई’ कह कर हाथ को जैकेट के बंधन से मुक्त कर लेते।

दफ्तर के सयाने वक्त-वक्त पर अशोक को सीख देते थे— ‘देखो भैया, हम लोग दफ्तर के सीनियर आदमी हैं। जब पक्का अपॉइंटमेंट होगा तो साहब हम लोगों की राय लेंगे। हम लोगों की थोड़ी बहुत सेवा करते रहोगे तो आगे तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल होगा। सेवा करो, मेवा खाओ। अभी तुम्हारी नयी उम्र है, ज्यादा काम से तुम्हारा कोई नुकसान नहीं होगा। शरीर का क्या है? जैसा बना लो, वैसा बन जाएगा। आराम-तलब बन जाओगे तो आगे काम करना मुश्किल हो जाएगा और भविष्य भी खतरे में पड़ जाएगा।’

दफ्तर के बाबुओं में एक कवि भी थे— छोटेलाल ‘आहत’। वे दफ्तर के टाइम में भी कविताएं लिखते थे और दफ्तर में ही उन्हें टाइप कराते थे। पांच बजे के बाद वे अशोक से चिपक कर बैठ जाते, कहते, ‘गुरू, जरा फटाफट टंकित तो कर दो। जब संग्रह छपेगा तो कृतज्ञता- ज्ञापन में तुम्हारा नाम भी जाएगा।’ अशोक को उनकी कविताएं टाइप करके ही छुट्टी नहीं मिलती थी, उन्हें सुनना भी पड़ता था, जो टाइपिंग से ज़्यादा कष्टदायक काम था।

अशोक ने छः महीने इसी तरह हम्माली में काटे। अन्त में पक्की नियुक्ति का आदेश आ गया। इंटरव्यू हुए।

बंसगोपाल बाबू एक बार फिर साहब के सामने हाज़िर हुए, बोले, ‘सर, अब तो साले को रखने पर विचार कीजिएगा। घरवाली कहती है कि साहब से जरा सा काम भी नहीं करा सकते। घर में पोजीशन खराब होती है सर।’

साहब ने पूछा, ‘टाइपिंग में कोई तरक्की की उसने?’

बंसगोपाल बोले, ‘क्या तारीफ करूं, सर। अब तो एक मिनट में शीट निकाल कर फेंक देता है। एकदम फरचंट हो गया है। कंप्यूटर पानी की तरह चलता है, सर।’

फिर टेस्ट हुआ। अशोक की नौकरी नियमित हो गयी। बंसगोपाल बाबू फिर मायूस हुए। साहब से पूछा तो उन्होंने जवाब दिया, ‘बंसगोपाल बाबू, आपके साले का कंप्यूटर पानी पर नहीं, बरफ के ढेलों पर चलता है। जब बरफ पिघल जाएगी तब सोचेंगे।’

नियमित होते ही अशोक का हाव- भाव बदल गया। आदमी को बिगड़ते भला कितनी देर लगती है? जब नन्दी बाबू ने अपना गट्ठा उसकी तरफ सरकाया तो उसने उसे वापस ढकेलते हुए कहा, ‘नन्दी बाबू, अपना गट्ठा संभालो। सिरदर्द के इलाज के लिए बाजार में बहुत सी दवाएं मिलती हैं।’

अब उसे कोई हाथ उठा कर बुलाता तो वह हाथ उठाकर ही निषेध कर देता। टाइम से काम बन्द करके लंच पर जाता और टाइम से लौटता। शाम को भी पांच बजे ही काम समेटना शुरू कर देता।

‘आहत’ जी कविताएं लेकर आते तो कहता, ‘जरा साहब से परमीशन ले लीजिए। पता चल जाएगा तो मेरी पेशी हो जाएगी।’ ‘आहत’ जी ने दुखी होकर कविताओं को हाथ से ही ‘फेयर’ करना शुरू कर दिया। यही  जवाब उनको भी मिला जो दफ्तर को कागज़ की फ्री सप्लाई का डिपो समझते थे। उनके भी अच्छे दिनों का अन्त हुआ।

अब बड़े बाबू पान मंगाते तो अशोक तब तक उनके सामने खड़ा रहता जब तक उनका हाथ जैकेट से निकल कर कुर्ते में न चला जाता ।

एक दिन बड़े बाबू दुखी स्वर से साहब से बोले, ‘अब अशोक में पहले वाली बात नहीं रही सर।’

साहब ने पूछा, ‘क्या बात है? काम में गड़बड़ी करता है क्या?’

बड़े बाबू जल्दी से बोले, ‘नहीं नहीं, यह बात नहीं है सर। बस पहले से थोड़ा चालू हो गया है।’

साहब समझकर व्यंग्य से मुस्करा दिये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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