डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख नीयत और नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 254 ☆
☆ अंतर्मन की शांति… ☆
हम बाहरी दुनिया में शांति नहीं प्राप्त कर सकते, जब तक हम भीतर से शांत न हों–धर्मगुरु दलाईलामा का यह कथन दर्शाता है कि संसार मिथ्या है, मायाजाल है; जो हमें आजीवन उलझा कर रखता है। जब तक हमारा मन शांत नहीं होगा, हम सांसारिक मायाजाल में उलझे रहेंगे। परंतु जब हम एकाग्रचित्त होकर ध्यान-स्मरण करेंगे; हम इस भौतिक संसार से ऊपर उठ जाएंगे। हमें अनहद नाद के स्वर सुनाई पड़ेंगे और अलौकिक आनंदानुभूति होगी। हम उस ध्वनि में इतने लीन हो जाएंगे कि हमें किसी बात की खबर नहीं होगी। मन ऊर्जस्वित रहेगा। इसका दूसरा अर्थ यह है कि जब तक हम सांसारिक विषय-वासनाओं पर विजय नहीं पा लेते; हमारा मन शांत नहीं रह सकता। एक के बाद दूसरी इच्छा सिर उठाए खड़ी रहेगी और हम उस जंजाल से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकेंगे। हमारी यही इच्छाएं ही हमारी सबसे बड़ी शत्रु हैं, जो हमें आजीवन उलझाए रखती हैं।
कठिनाई के समय में कायर बहाना ढूंढते हैं और बहादुर व्यक्ति रास्ता खोजते हैं। सरदार पटेल जी आलसी लोगों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि उनकी दशा ‘नाच ना जाने, आंगन टेढ़ा’ जैसी हो जाती है। उनमें किसी कार्य को अंजाम देने की क्षमता तो होती ही नहीं, वे तो बहाना ढूंढते हैं। परंतु वीर व्यक्ति अपनी राह का निर्माण स्वयं करते हैं, क्योंकि पुरानी, बनी-बनाई लीक पर चलना उन्हें पसंद नहीं होता। सो! वे दुनिया के सामने नया उदाहरण पेश करते हैं। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रही हैं अब्दुल कलाम जी की पंक्तियां ‘जो लोग ज़िम्मेदार, सरल, ईमानदार व मेहनती होते हैं, उन्हें ईश्वर द्वारा विशेष सम्मान मिलता है, क्योंकि वे धरती पर ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना होते हैं।’ जिस कार्य को भी वे प्रारंभ करते हैं, उसे पूरा करने के पश्चात् ही चैन से बैठते हैं। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा संसार में ईमानदार, ज़िम्मेदार व मेहनती इंसानों को ही महत्व प्राप्त होता है। वे बीच राह से लौटने में विश्वास नहीं रखते, क्योंकि वे असफलता को सफलता के मार्ग में श्रेष्ठ कदम स्वीकारते हैं। ऐसे महानुभाव विश्व के लोगों के लिए श्रद्धेय व पूजनीय होते हैं तथा उनका पथ-प्रदर्शन कर सम्मान पाते हैं।
दार्शनिक जॉन हार्ट को एकांत प्रिय है और वे कहते हैं ‘यह तो आपका भ्रम ही है, जो आप मुझे एकांत में अकेला समझ रहे हैं, मैं तो अब तक अपने साथ था तथा मुझे अपना साथ सदा प्रिय है। मगर आपने आकर मुझे अकेला कर दिया’ अर्थात् मन एकांत में अलौकिक आनंदानुभूति करता है और यदि कोई उसके काम में बाधा बनता है तो वह उसकी ध्यान-समाधि में विक्षेप होता है और उसे बहुत दु:ख होता है। सो! मानव को सदैव अपनी संगति में रहना चाहिए। परंतु ओशो का चिंतन सर्वथा भिन्न है। ‘जब प्यार और नफ़रत दोनों ही ना हों, तो हर चीज़ साफ और स्पष्ट दिखाई देती है।’ यह निर्लेप अवस्था है, जब मानव का मन शून्यावस्था में घृणा व प्रेम से ऊपर उठ जाता है। उस स्थिति में स्व-पर व राग-द्वेष का प्रश्न ही नहीं उठता और ना ही भाव-लहरियां उसके हृदय को उद्वेलित करती हैं। वह परमात्म-सत्ता उसे प्रकृति के कण-कण में दिखाई पड़ती है और वह उसके प्रति श्रद्धा भाव से समर्पित होता है। यह संसार उसे मायाजाल भासता है और मानव उसमें न जाने कितने जन्मों तक उलझा रहता है। इसलिए मानव को सदैव निष्काम कर्म करने का संदेश दिया गया है, क्योंकि फलासक्ति दु:खों का मूल कारण है। महात्मा बुद्ध ने संसार को दु:खालय कहा है। सुख-दु:ख मेहमान हैं, आते-जाते रहते हैं और इनका चोली दामन का साथ है। वैसे एक के रुख़्सत होने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है। तो किसी भी विषम परिस्थिति में घबराना व घुटने टेकना कारग़र नही
‘जो मुसीबत बंदे को रब्ब से दूर कर दे वह सज़ा/ जो ख़ुदा के क़रीब ला दे आज़माइश/ अर्थात् मुसीबतें मानव को प्रभु के क़रीब लाती हैं। इसलिए द्रौपदी ने प्रभु से यह वरदान मांगा था कि तुम मुझे कष्ट देते रहना, ताकि तुम्हारी स्मृति बनी रहे। मानव सुख में सब कुछ भूल जाता है। कबीरदास जी मानव को संदेश देते हुए कहते हैं कि ‘जो सुख में सुमिरन करे, तो दु:ख काहे को होय।’ तुलसीदास जी विद्या, विनय व विवेक को दु:ख के साथी तथा मानव के सच्चे हितैषी स्वीकारते हैं। वे मानव के प्रेरक हैं; उसका सही मार्गदर्शन करते हैं और सभी आपदाओं से मुक्त कराते हैं। सो! मानव को इनका दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। संबंध व संपत्ति को समान इज़्ज़त दीजिए, क्योंकि दोनों को बनाना अत्यंत कठिन है और खोना आसान है। सो! अच्छे लोगों की संगति कीजिए तथा संबंधों को लंबे समय तक बनाए रखिए, क्योंकि हर कदम पर हमारी सोच, हमारे बोल, हमारे कर्म ही हमारा भाग्य लिखते हैं। इसलिए सकारात्मक सोच रखिए। ‘चूम लेता हूं/ हर मुश्किलों को मैं/ अपना मान कर/ ज़िंदगी जैसी भी है/ आखिर है तो मेरी ही’ गुलज़ार की यह पंक्तियां सुख-दु:ख में सम रहने का संदेश देती हैं, क्योंकि मुश्किलें व ज़िंदगी दोनों मेरी स्वयं की हैं। इसलिए इनसे ग़िला-शिक़वा क्यों?
हर मुसीबत अभिशाप नहीं होती, समय के साथ आशीर्वाद सिद्ध होती है। सो! मुसीबतों से घबराना कैसा? ‘है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है’ हमें अपनी सोच को सकारात्मक बनाए रखने का संदेश देता है। महर्षि वेदव्यास के अनुसार ‘संसार में ऐसा कोई नहीं हुआ, जो आशाओं का पेट भर सके।’ इसी संदर्भ में यह तथ्य उल्लेखनीय है, ‘एक इच्छा से कुछ नहीं बदलता/ एक निर्णय से थोड़ा कुछ बदलता है/ लेकिन एक निश्चय से सब कुछ बदल जाता है।’ सो! दृढ-निश्चय कीजिए और अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर पदार्पण कीजिए; आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी। आप वह सब कुछ कर सकते हैं, जो आप सोच सकते हैं। सो! निरंतर परिश्रम करते रहिए, मंज़िल अवश्य प्राप्त होगी। परंतु इसके लिए एकाग्रचित होने की दरक़ार है। यदि मन शांत होगा; तो आपको मनचाहा प्राप्त होगा। चित्त की एकाग्रता में ईश्वर से तादात्म्य कराने की क्षमता है। शांत रहने से आप अलौकिक आनंदानुभूति करते हैं। सांसारिक विषय-वासनाएं आपका कुछ बिगाड़ नहीं पातीं। आइए! अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा चित्त को एकाग्र करें और अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हों; आत्मा-परमात्मा का भेद मिट जाएगा और पूरी सृष्टि में तू ही तू नज़र आएगा।
●●●●
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी
संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈