श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 263 उड़ जाएगा हंस अकेला… ?

मॉल में हूँ। खरीदारी हो चुकी। खड़े रहते और भटकते-भटकते थक भी चुके। परिवार फूडकोर्ट में जाने की घोषणा कर चुका है। फूडकोर्ट जाने के लिए एस्केलेटर के मुकाबले एलेवेटर पास है। अत: एलेवेटर से फूडकोर्ट के लिए चले। लिफ्ट से बाहर निकलते हुए देखता हूँ कि दाहिने हाथ पर पीने के पानी की मशीन लगी है और ऊपर बोर्ड लिखा है, ‘फ्री ड्रिंकिंग वॉटर।’

अपने युग का कितना बड़ा बोध करा रहे हैं ये शब्द! पीने का पानी नि:शुल्क..!

एक समय था जब मनुष्य सीधे नदी का पानी पिया करता था। तब नदियाँ स्वच्छ थीं। अब नदी के पानी के शुद्धीकरण की प्रक्रिया होती है।  घर पर आर.ओ. के जरिए उसे फिर शुद्ध करते हैं। एक-एक कर उसके सारे प्राकृतिक तत्व निकाल फेंकते हैं। कामधेनु को छेरी करने का अद्भुत मानक स्थापित किया है हमने।

पानी की निर्मलता को लेकर एक घटना याद हो आई। वर्ष 2000 में राजस्थान के  मारवाड़ जंक्शन के निकट एक गाँव में एक डॉक्युमेंट्री फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। पशुओं की किसी औषधि से सम्बंधित डॉक्युमेट्री थी। शूटिंग स्थल के निकट ही एक स्वच्छ तालाब था। गाँव उस तालाब के पानी का पीने के लिए उपयोग करता था। हम सब भी उस तालाब का पानी पी रहे थे। फिल्म में किसी भूमिका के लिए समीपवर्ती नगर से एक अभिनेत्री को  बुलाया गया था। उन्होंने मिनरल वॉटर की मांग की। आज से लगभग ढाई दशक पहले ग्रामीण भाग में बोतलबंद मिनरल वॉटर अपवाद ही था।  हमारी जीप का ड्राइवर अभिनेत्री से बोला, “मैडम जी, हमारे तालाब का पानी अमरित है। पी लो। यूँ भी जल में मल नहीं होता।”

मानवीय सभ्यता के विकास का इतिहास साक्षी है कि मनुष्य ने जल की उपलब्धता देखकर ही बस्तियाँ बसाईं। नदी से जल और परोक्ष में जीवन पाने वाला मनुष्य आगे चलकर नदियों का गला घोंटने लगा। नदियाँ निरंतर प्रदूषित की जाने लगीं। नदियाँ नाले में परिवर्तित कर दी गईं। अब नदी के नाम पर ठहरा हुआ पानी है, दुर्गंध है, कारखानों से गिरता अपशिष्ट है, सीवेज लाइन के खुलते दरवाज़े हैं। अपने उद्गम पर नदी आज भी अमृत है पर मनुष्य की बस्तियों तक पहुँचते- पहुँचते हम उसे मृत कर देने पर उतारू हैं।

बहुत समय नहीं बीता जब राह चलते को पानी पिलाने का चलन था। उस समय बारह मास पानी का संकट भोगनेवाले राजस्थान जैसे मरुस्थली भूभागों पर भी प्याऊ लगाई जाती। गाँव के बुज़ुर्ग विशेषकर महिलाएँ इसके लिए बारी-बारी से सेवा देतीं। इसे जलमंदिर भी कहा जाता था। तब किसी जलमंदिर पर ‘फ्री ड्रिंकिंग वॉटर’ का कोई बोर्ड नहीं लगा होता था। यह मनुष्य के साथ मनुष्य का मनुष्यता का व्यवहार था।

मनुष्य की देह पंच महाभूतों से बनी है। महाभूत नि:शुल्क हैं। जो नि:शुल्क है, वह अमूल्य है। नि:शुल्क के उपसर्ग का अब प्रतिस्थापन हो चुका। अब सब सशुल्क है। सशुल्क धीरे-धीरे बहुमूल्य हो जाता है।

जल अब धड़ल्ले से बेचा-ख़रीदा जाता है। ऑक्सीजन कैफे हैं, जिनमें प्राणवायु बिक रही है। तब पुरखों की भूमि को प्रतिष्ठा माना जाता था, मंदिर पाठशाला, धर्मशाला के लिए भू-दान किया जाता था। अब प्रति स्क्वेयर फीट से प्रतिष्ठा का सौदा हो रहा है। आकाश में अंतरिक्ष स्टेशन और सेटेलाइटों की भीड़ है। मनुष्य ने न धरती छोड़ी, न आकाश। न हवा स्वच्छ रखी, न पानी। सब बेचा जा रहा है, सब बिक रहा है।

कहा गया है,

अद्भिः सर्वाणि भूतानि जीवन्ति प्रभवन्ति च।

तस्मात् सर्वेषु दानेषु तयोदानं विशिष्यते॥

(महाभारत, शान्तिपर्व)

अर्थात जल से संसार के सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं एवंं जीवित रहते हैं। अतः सभी दानों में जल का दान सर्वोत्तम है।

हम दान से विक्रय तक आ पहुँचे हैं। जल के प्राकृतिक स्रोतों की सुरक्षा और स्वच्छता अब भी दिशा परिवर्तन कर सकते हैं।

अमूल्य को बहुमूल्य करने की उलटी यात्रा को रोकना होगा। लौटना होगा बहुमूल्य से अमूल्य की ओर। अपने-अपने स्तर पर और सामूहिक रूप से जो किया जा सके, अवश्य करें। माध्यम कोई भी हो, जैसे आकाश से गिरा हुआ पानी  समुद्र में जाता है, वैसे ही हर प्रयास बहुमूल्य को अमूल्य करने में सहायक सिद्ध होगा।

आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् |

सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ||

© संजय भारद्वाज 

रात्रि 2:05 बजे, 1.11.2024

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 दीपावली निमित्त श्री लक्ष्मी-नारायण साधना,आश्विन पूर्णिमा (गुरुवार 17 अक्टूबर) को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी (मंगलवार 29 अक्टूबर) तक चलेगी 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ लक्ष्मी नारायण नम: 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments