सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – उत्तराखंड – भाग – 2)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 35 – उत्तराखंड – भाग – 2 ?

इस बार उत्तराखंड के कुछ हिस्सों की सैर करने का मन बनाया और बिटिया के पास देहरादून आ गए।

हम कानाताल से लैंडोर जा रहे हैं। सड़क पर बहुत भीड़ थी। गाड़ियाँ तो थीं ही साथ में पैदल चलने वाले और मोटरबाइक से यात्रा करनेवाले सभी सड़क पर ही थे।

शनिवार -रविवार को इन जगहों पर बड़ी भीड़ होती है। आज तो सोमवार का दिन है तो फिर इतनी जमकर भीड़ क्यों है भला? ड्राइवर ने बताया कि अब चार पाँच दिन सब जगह दीवाली की छुट्टी है। आस -पास रहनेवाले रोज़मर्रा के जीवन से थोड़ा हटकर आनंद लेने के लिए लैंडोर के लिए निकल पड़ते हैं।

सड़क पर खचाखच भीड़ है। गाड़ियाँ हिल ही नहीं रही हैं। जाम लगने का एक और कारण था, सड़क की दाईं ओर किसी घर में पिछली रात शायद शादी का कार्यक्रम था। आस -पास के घरों को भी दो रंगों के सैटिन के कपड़ों से सजाया गया था। घर के आस पास न केवल घर वालों की भीड़ थी बल्कि गाने-बजाने वालों की स्पीकर लगाई गाड़ी भी खड़ी कर दी गई थी जिसके कारण यातायात में व्यवधान उत्पन्न हो रहा था पर पहाड़ी जगह के लोग न तो ऊँची आवाज़ में बोलते हैं न गालीगलौज ही करते हैं।

अक्सर सुनने में आता है कि भारतीयों में सहिष्णुता का अभाव है। अगर किसी को सच्चे अर्थ में सहिष्णुता की परिभाषा जानने की इच्छा हो तो वह पहाड़ी लोगों के बीच आ जाएँ।

अब हमारी गाड़ी ठीक विवाह वाले घर से थोड़ी दूर हटकर रुक गई। मेरा ध्यान बाहर की ओर गया। मोटरबाइक वाले चढ़ाई की ओर जा रहे थे और गाड़ी रुकी हुई थी तो वे निरंतर गाड़ी रेज़ कर रहे थे ताकि गाड़ी बंद न पड़ जाए। इस वजह से काफी धुआँ निकल रहा था। हमारी गाड़ी की खिड़कियाँ बंद करवा दी गईं। इस पुरी यात्रा में हमने ए.सी का उपयोग किया ही न था क्योंकि पहाड़ी शुद्ध हवा का आनंद ही कुछ और है। फिर पहाड़ों को प्रदूषित करने से भी बचना था।

मैं मन ही मन मोटर साइकिल से निकलनेवाले काले धुएँ को देख असंतुष्ट हो रही थी कि किस तरह स्वच्छ पर्यावरण को दूषित किया जा रहा है। मैंने जब खिड़की बंद करने से रोका क्योंकि ए.सी चलाना भी तो पर्यावरण को दूषित करने का ही एक दूसरा माध्यम है तो बाप -बेटी ( हम सब साथ सफ़र कर रहे थे)बोल पड़े “तुमको ही तकलीफ़ होगी फिर दमा ज़ोर पकड़ेगा। ” मैं चुप हो गई।

कभी -कभी अपने उसूलों और सिद्धांतों के साथ समझौता करना पड़ता ही पड़ता है और तब अपनी अवसरवादी वृत्ति सामने खड़ी हो जाती है यह स्मरण कराने के लिए कि कुछ हद तक हम सभी स्वार्थी हैं। मैं अपवाद नहीं बन सकती।

खैर गाड़ी रुकी हुई थी। भीतर एक विचारों का जंग चल रहा था और नयन बाहर के दृश्यों पर नज़रें टिकाए हुए थे।

शादीवाले घर का उत्सव समाप्त हो गया। एक सजा सजाया मिट्टी का घड़ा रखा था। एक दुबला पतला कुत्ता अपने सामने के पैरों को घड़े के किनारे पर टिकाकर कुछ खा रहा था। शायद घड़े में रखे गए भोजन की उसे गंध आ गई थी। मुँह निकालकर जीभ से उसने अपने जबड़े चाटे। पुनः मुंडी उसने घड़े में घुसा दी।

घड़ा शायद विवाह में किसी काम के लिए रखा गया था। अब उसकी ज़रूरत पूरी हो गई तो उसमें बचा हुआ भोजन डाल दिया गया था।

कुत्ता भोजन का भरपूर आनंद ले रहा था। भोजन अब घड़े के आधे हिस्से तक पहुँच गया और कुत्ता गर्दन तक उसमें घुस गया। घड़ा सामने की ओर लुढ़क गया। अब कुत्ते का दम घुटने लगा तो वह घड़े से सिर निकालने के लिए छटपटाने लगा। काफ़ी समय तक वह छटपटाता रहा। मैं सुन्न -सी असहाय उसकी ओर अपलक दृष्टि गड़ाए बैठी उसे देख रही थी। इतने में एक चौदह-पंद्रह वर्ष का बालक एक मोटा डंडा लाया और कपाल क्रिया करने जैसा उस घड़े पर एक वार किया।

घड़ा टूटकर तीन भागों में विभक्त हो गया। भूखा कुत्ता अचानक घड़े पर डंडे की चोट लगने और उसके फूटने पर भयभीत हुआ। अपनी पिछली टाँगों के बीच पूँछ दबाकर थोड़ी दूर वह हट गया। पर वह निरंतर अभी भी जीभ निकाले जबड़ा चाट रहा था।

घड़े के फूटने पर उसमें पड़ा भोजन बाहर झाँकने लगा और दो कुत्ते अब उसका आनंद लेने उस पर टूट पड़े। भयंकर पीड़ा सहन कर जो कुत्ता अब तक अपनी मुंडी उस घड़े में फँसाए बैठा था उसकी तंद्रा टूटी। वह भूख और अधिकार के भाव से उन दोनों कुत्तों पर टूट पड़ा। वे दोनों वहाँ से थोड़ी दूरी पर जाकर खड़े हो गए और ललचाई दृष्टि से भोजन को देखने लगे।

कुत्ता तीव्र गति से भोजन खाता रहा। सम्पूर्ण भोजन पर वह अब अपना अधिकार समझता रहा। दूसरे कुत्ते पूँछ हिलाते हुए पास भी आते तो वह गुर्राता। अब इस मटके पर वह हेकड़ी जमाए बैठा था। पेट तो भर गया था शायद पर कल के लिए भी भोजन संचित करके रखने की वृत्ति अब कुत्ते में भी दिखने लगी। लोभ तो अपरिमित है और तृष्णा दुष्पूर!

गाड़ी अब आगे बढ़ने लगी। मन यह सब देखकर अशांत तो हुआ पर एक बात से प्रसन्नता हुई कि मनुष्य प्राणियों के कष्ट के प्रति आज भी सजग है वरना भोजन के लालच में कुत्ता दम घुटकर परलोक सिधार जाता।

© सुश्री ऋता सिंह

27/10/24, 6.40pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments