हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #49 ☆ कविता – “मैं एक ग़रीब हूँ, हाँ मैं इंसान हूँ…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 49 ☆

☆ कविता ☆ “मैं एक ग़रीब हूँ, हाँ मैं इंसान हूँ …☆ श्री आशिष मुळे ☆

तुम्हारी इस कायनात का

एक मामूली ज़र्रा हूँ

छोटीसी एक ख़ुशी का

हरपल मैं ग़ुलाम हूँ

 

जितने जहाँ, देखो मैं दौड़ा हूँ

ख़ुदसे ही मगर देखो मैं हारा हूँ

भूखे बच्चे और डरी अबलाएं 

दुनिया में इनकी रहता हूँ

 

लफ़्ज़ों की दुबली रस्सी से

जन्नत पाना सोचता हूँ

एहसास की टूटी कश्ती से

जहन्नम पहुँच रहा हूँ

 

तेरी रोशनी हर दिन सदियोंसे

देख नहीं पाता हूँ

समशेरियों में ही क्यूँ

हर जवाब पाता हूँ

 

ये फूल ये कलियाँ ये ज़र्रा

दौलत इनकी देखता हूँ

नहीं बनाते मुझे तो क्या फ़र्क़ पड़ता

यहीं में सोचता हूँ

 

मैं एक ग़रीब हूँ

हाँ मैं इंसान हूँ

 

हा मैं वहीं जन्नत से गिरा

नंगा, घबराया आदम हूँ

 

मैं एक ग़रीब हूँ

हाँ मैं इंसान हूँ….

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈